What is Prabhu’s Aagya and how to Identify the same? : Friend or Foe – Episode 04

परमात्मा की आज्ञा क्या होती है और किस तरह पहचानना?

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By Jain Media 7 Views 8 Min Read

परमात्मा की आज्ञा क्या होती है?
प्रस्तुत है Friend or Foe Book का Episode 04.

मोहराजा को ह्रदय से निकालकर यदि धर्मराजा यानी अरिहंत प्रभु को ह्रदय के सिंहासन पर बिठा दे फिर भी परमात्मा की आज्ञा आखिर क्या कैसे पता चलेगा?

जिज्ञासु आत्मा को सद्गुरु संक्षेप में परमात्मा की आज्ञा समझाते हैं. ‘अवर अनादिनी चाल नित-नित तजीएजी’ अर्थात् साधना किए बिना मन-वचन और काया की प्रवृत्ति सहजरूप से जो भी होती है, वह अनादि की चाल-चलन है. वह सब कुछ मोहराजा की फरमाइश, मोहराजा की आज्ञा का प्रताप है. उसका संपूर्ण बहिष्कार करो, त्याग करो और यथा संभव उससे विपरीत करो, यह जिनेश्वर भगवान की आज्ञा है. 

‘अणुसोयो संसारो पडिसोयो तस्स उत्तारो’

पूज्य श्री कहते हैं कि मोहराजा की आज्ञा से विपरीत चलना ही हितकर है, श्रेयस्कर है और आत्मा को सुख, शांति और समाधि देनेवाला है. ‘यह खाऊँ, वह खाऊँ’ ऐसा सहज होता है और रात्रिभोजन त्याग करना, कंदमूल त्याग करना, तपश्चर्या करनी आदि यह बात नई लगती है और उसमें मन को दबाना पडता है. इसीलिए खाऊँ-खाऊँ करना मोह की प्रवृत्ति है और तपश्चर्या करनी यह परमात्मा की आज्ञा है. 

खुद के गुण और दूसरों के अवगुण यानी दोष-एक दम जल्दी से और आराम से दिख जाते हैं, मेहनत नहीं करनी पड़ती, जबकि अपने खुद के दोष और अन्य के गुण सरलता से नहीं दिखते हैं. उसमें मेहनत लगती है. मन को मनाना पड़ता है. अतः अपने गुण और दूसरों के दोष देखना आत्मा के लिए अहितकर बात है, आत्मा के लिए Harmful है और दूसरों के गुण एवं अपने दोष देखना अपनी आत्मा के लिए हितकर बात है. 

हम Normally क्या करते हैं? हमारी खुद की बड़ी भूल भी छोटी मानकर ‘अरे ऐसी तो भूलें हो जाती हैं, इंसान भूल करने से ही तो सीखता है, ऐसी भूलों को तो माफ कर देना चाहिए.’ ऐसी मान्यताएँ एक दम आराम से मन में आ जाती है. अन्य की छोटीसी भूल को भी राई का पर्वत करके ‘ऐसे कैसे चलाया जा सकता है? भूल की सजा तो होनी ही चाहिए, उसके बिना भूल सुधरेगी ही नहीं.’ ऐसे भाव दिल और दिमाग में सहज ही उभरने लगते हैं. 

इनसे विपरीत, उलटे भावों को खड़ा करने में बड़ी कठिनता महसूस होती है. इसलिए यह निर्णय किया जा सकता है कि मोह की आज्ञा कौनसी है? और उसके विपरीत परमात्मा की आज्ञा कौनसी है? 

खुद के गुण और दूसरों के अवगुण देखने की मोहराजा की आज्ञा आत्मा को संक्लेश आदि करवाती है, जबकि खुद के दोष और दूसरों के गुण देखने की बात आत्मा को समाधि आदि अर्पित करती है, यही परमात्मा की आज्ञा समझना है. 

जीवन की हर एक घटना में यह Process Follow किया जा सकता है. इसलिए ज्ञानी भगवंत कहते हैं ‘अवर अनादिनी चाल नित नित तजीयेजी.” यानी अनादी काल की जो हमारी चाल है उसका त्याग करना होगा तभी प्रभु की आज्ञा को Follow कर पाएंगे.

साहजिक ममता-शत्रुता 

इसे अब थोडा Depth में समझते हैं. पूज्य श्री कहते हैं कि हमारे अपने स्वजन परिजनों के प्रति यानी परिवार, पति/पत्नी, माता-पिता, संतान, मित्र आदि स्वजनों के प्रति सहजरूप से ममत्वभाव इतना जोरदार हो जाया करता है कि आत्माराम इसके चलते अनेकों अलग-अलग पापों से भरे आचरण करने के लिए तैयार हो जाता है. 

इसके सामने जिस व्यक्ति के प्रति उसे थोड़ी सी भी शंका हो जाए कि ‘फलाना-फलाना व्यक्ति मुझे परेशान करने पर उतारू है’ तो उसकी खैर नहीं समझो. मन में उस व्यक्ति के प्रति शत्रुता के भाव पनपने लगते हैं. आत्माराम यानी हमारी आत्मा समझना है.

धीरे-धीरे शत्रुता इस हद तक पहुँच जाती है कि भाईसाहब इसी सोच में डूबे रहते हैं ‘कैसे उसकी नाक में दम लाऊँ? वह तबाह कैसे हो जाए?’ कुछ भी हो, इन ख़राब विचारों के बल पर वह कौनसा नहीं करने जैसा कार्य नहीं करेगा? वह कह नहीं सकते. स्वजनों के प्रति ममत्व और शत्रुओं के प्रति शत्रुता बिलकुल सहजता से होती हुई देखी जा सकती है, यह हर एक व्यक्ति को Experience है ही. 

इसीलिए यह मोहराजा की आज्ञा है और आत्मा का अहित करनेवाली है, अतः त्याज्य है यानी त्याग करने जैसी है, छोड़ने जैसी है. इन दोनों भावों में पहली जो बात थी यानी स्वजनों की जो बात थी, उस अनादि की वक्र चाल को तोड़ने के लिए Atom Bomb है-अनित्य, अशरणादि भावनाएँ जिनसे वैराग्यभाव उत्पन्न होता है और स्वजनों का मोह नष्ट होता है. 

दूसरी बात यानी जिन्हें हम शत्रु समझते हैं उस टेढ़ी चाल को तोड़ने के लिए मैत्री आदि भावनाएँ हैं जिनसे वात्सल्यभाव बढ़ता है. 

रथ के दो चक्र

पूज्य श्री का कहना है कि आत्मा एक रथ है. मोक्ष को लक्ष्य बनाकर साधना के पथ पर उसे आगे बढ़ना है. 

आत्मरथ को भी साधना के पथ पर दौड़ने के लिए दो चक्रों की आवश्यकता रहती है. वैराग्यभाव और वात्सल्यभाव-ये दोनो चक्र जैसे हैं. एक की भी अनुपस्थिति नहीं चल सकती वरना गाडी ठप्प हो जाएगी यानी अनित्यादि भावनाओं से भी चित्त को भावित करना जरूरी है और मैत्री आदि भावनाओं से भी. 

इसलिए एक ओर पुत्र-पत्नी-पैसा-परिवार आदि के राग को घटाने के लिए अनित्यादि भावनाओं का उपदेश देना और दूसरी ओर शत्रुतादि को जड़मूल से उखाड़ने के लिए मैत्री आदि भावानाओं का भी उपदेश देना. 

इन दोनों बातों में कुछ भी विरोध जैसा नहीं है. इसीलिए ग्रन्थकार परमर्षि ज़्यादातर ‘एगोऽहं णत्थि में कोई.. यानी हे जीव तू अकेला आया है अकेला जाएगा ’ इत्यादि कहकर रुकने के बजाय ‘सर्वे ते प्रियबान्धवाः यानी संसार के सभी प्राणी तेरे मित्र है, शत्रु नहीं’ इत्यादि भी साथ ही साथ कहा करते हैं. जैसा रोग वैसी दवाई-जिस Medicine से रोग मिटता हो Doctor वही Prescribe करेगा . 

रोगी को सर्दी ज़ुकाम हो तो वैद्यराजजी सोंठ लेने को कहेंगे, रोगी कहे कि वह तो गरम कही जाती है, फिर भी वैद्यराजजी लेने के लिए कहते ही है. रोगी को लू लग जाए तो गुलकंद लेने को कहते हैं, रोगी कहे कि वह तो बहुत ठंडा होता है तो भी वैद्यराजजी चुपचाप लेने के लिए कहते ही है.

वैद्यराजजी के कथन में विरोधाभास जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा रोग वैसी दवाई. इसी प्रकार जिस Angle से सोचने पर आत्मा निरोगी बन सके, वैसा हमें सोचना-विचारना होगा, यह ज्ञानी भगवंतों का फरमान है. एक लाठी से भैंस हांकी नहीं जा सकती. पति-पत्नी परिवार आदि के ऊपर रागदृष्टि यानी Attachment और शत्रु के उपर द्वेषदृष्टि यानी Hatred, ये दोनों आत्मा के लिए रोग को पैदा करनेवाले साहजिक Angle है. 

क्योंकि दोनों राग और द्वेष आत्मा के शत्रु है. और इसलिए निरोगी बनने के लिए उनसे विपरीत Angle-भावनाएँ हैं. 

क्या जिस दृष्टी से सहज देखते हैं वह सब कुछ आत्मा के लिए रोग जैसा ही है? ऐसा क्यों?
जानेंगे अगले Episode में.

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