What Is Pure Love ? The Reality of Human Relationships | Friend or Foe – Episode 07

हमारा प्रेम शुद्ध प्रेम है या शुद्ध प्रेम के नाम से भ्रम?

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हमारा प्रेम शुद्ध प्रेम है या शुद्ध प्रेम के नाम से भ्रम?
प्रस्तुत है Friend or Foe Book का Episode 07.

तरंगवती 

तरंगवती नामक स्त्री पूर्व भव में चक्रवाकी पक्षी थी. इस भव में तरंगवती. वह यह निर्णय करती है कि चक्रवाकी वाले भव में, जो चक्रवाक पति के रूप में था, वह जीव ही इस भव में भी पति के रूप में मिले तो ही शादी करनी-वरना नहीं.’ यहाँ पर गौर करने जैसा है.  

तरंगवती कौन? अपसरा अथवा परी को भी मुँह नीचा करना पडे, ऐसा सुंदर रूप उसका, और हो सकता है कि पूर्वभव का प्रियतम चक्रवाक इस भव में भयंकर कुरूप हो, यानी अच्छा नहीं दिखता हो. खुद तरंगवती श्रीमंत की बेटी है और वह जिसे वह चाह रही है वह शायद कंगाल हो, दाने-दाने के लिए इधर उधर भटकता हो. कहाँ सोना कहाँ लोहा? कहाँ हीरा कहाँ पत्थर? 

पर नहीं! ऐसा एक भी हल्का विचार उसके मन को अपने प्रियतम के चरणों में अपने सर्वस्व को अर्पित करते हुए रोक नहीं सका. इस तरह के हलके विचार हावी होते हैं निःसत्त्वों पर, सत्त्वशील व्यक्ति के मन पर ऐसे विचारों का असर नहीं होता. ऐसा अटूट स्नेह था फिर भी तरंगवती का जीव भटका नहीं, यह हकीकत है. 

जब कि अपने धन आदि की मूर्च्छा, राग, आसक्ति, Attachment साथ में ले जानेवाले जीवों की भयंकर अवगतियाँ हुई हैं, बुरे हाल हुए हैं. ऐसे अनगिनत दृष्टांत शास्त्रों में मौजूद हैं. इसलिए लगता है कि प्राथमिक भूमिका में पौद्गलिक आकर्षण बिना का प्रेम, व्यक्तिगत निर्दोष जीवप्रेम, स्नेह, आत्मीयता की घनिष्ठता आत्मसाधना में बाधक नहीं, बल्कि सहायक है. 

पुद्गलानन्दी जीव 

पूज्य श्री कहते हैं कि मेरा सोचना है कि अभव्य या अचरमावर्ती जीवों का अन्य जीवों के साथ जब कभी भी आकर्षण पैदा हुआ होगा तो वह पुद्गल के आकर्षण की प्रधानता वाला ही होगा. पुद्गल के आकर्षण बिना का शुद्ध जीवप्रेम या जीव के गुणों का सच्चा आनंद उन्हें कभी हुआ ही नहीं और होता भी नहीं. शास्त्र में वैसे जीवों को पुद्गलानन्दी कहे हैं, वह भी इसी कारण से होगा न. 

अनादिकाल से हम Selfishness वाले प्रेम से इतने Used To हो चुके हैं कि स्वजनों के साथ के संबन्ध में पौद्गलिक स्वार्थ घुसपैठ कर ही लेता है. स्वार्थ बिना का स्वजन प्रेम लगभग असंभव जैसा है. परंतु मोहराजा इतना चालाक है कि अपने को भी उल्लू बना देता है. 

मन के जरिए वह अपने को ऐसा मानने की प्रेरणा देता है कि ‘ना, बाबा, हमें तो कोई स्वार्थ नहीं है, स्वजन स्नेहियों के प्रति मेरा जो प्रेम है वह तो शुद्ध जीवप्रेम है.’ हैं न मोह की चालबाजी. कहीं न कहीं घुस ही आता है. हमें कहीं पर True Love लगता है. लेकिन क्या वह सच में True है या हम उसे True समझ रहे हैं और धोखा खा रहे हैं?

सावधान 

True Love के झूठे घमंड में जकड़े हुए जीव को मोहराजा जीव अपना गुलाम बना ही लेता है. इसलिए ‘मुझे तो स्वजनों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम है, Unconditional Love है’ इस बात में फँसने जैसा नहीं है क्योंकि वह न ही हित करनेवाला है और न ही सुख देनेवाला, वास्तविकता यह है कि सभी स्वजन-परिजन स्वार्थ के ही सग्गे है. स्वार्थ ख़त्म बात ख़त्म. 

गुड पर मक्खी भिन्न-भिनाती है क्योंकि उसमें माधुर्य यानी मिठास है, कमल पर भौंरा गुञ्जन करता है क्योंकि उसमें मकरंद है यानी सुगंध है. उन्हें न गुड से मतलब है न कमल से, बस सभी को अपने मतलब की ही पड़ी है. एक अमीर व्यक्ति के पीछे कई लोग घूमते हैं, रास्ते पर आगे से बुलाते हैं, पैसा ख़त्म कि लोग देखकर भी अनदेखा कर देते हैं. यही Reality है इस दुनिया की. किसी को जल्द समझ आती है, किसी को देरी से समझ आती है.

“जगत है स्वार्थ का साथी, समझ ले कौन है अपना” आदि भावनाओं से चित्त को भावित करके ममता के बंधनों को तोडना यही हित करनेवाला है. सामान्य से देखा जाए तो स्वजनों के ऊपर जो प्रेम होता है वह भी कितना स्वार्थ वाला होता है, आइए देखते हैं? 

पूनम के चांद-सा तिलक  

एक सखी ने महिला से पूछा ‘ओहो! इतना बडा तिलक?’ उत्तर में उस महिला ने कहा कि

‘अरे! यह तो बहुत छोटा तिलक है, इतना सुंदर रूपवान पति मिला तो इतना बडा तिलक क्यों नहीं?’ महिला का ऐसा अद्भुत जवाब सुनकर सखी चुप हो गई. दो महीनों के बाद फिर से मिलना हुआ, सखी ने Note किया कि तिलक छोटा हो गया था. 

ऐसे ही पूछ लिया ‘बहनजी, तिलक छोटा क्यों?’ रोती सूरत बनाकर महिला ने जवाब दिया ‘क्या कहूँ, सखी! रंग में भंग पड गया है. जीवन की मस्ती ही उड गई. वे अब दिन रात बीमार रहते हैं, उनकी सेवा से ही ऊपर नहीं उठती, क्या सोचा था और क्या हो गया.’ 

महीने के बाद वापिस मिलना हुआ तब Note किया कि तिलक का नामोनिशान ही मिट गया था. पूछने से पता चला कि वे अब इस संसार में नहीं रहे हैं. योगानुयोग चार महीने के बाद पुनः मुलाकात हो गई परंतु आश्चर्य. पूनम के चाँद-सा तिलक ललाट पर फिर से आ गया था. उससे तो पूछने की हिम्मत न हुई पर सामने से ही जवाब मिला-‘अरे. क्या देख रही हो बार- बार? अब दूसरा विवाह कर लिया है.’ 

हमारे संबंध ज्यादातर ऐसे होते हैं. मौजमज़ा और स्वार्थ बढने के साथ बढ़ते है और घटने के साथ घटते हैं, आजकल सुविधाएं हैं, घूमना फिरना है तो प्रेम है, यह सब नहीं तो प्रेम नहीं, यही प्रेम की छवि बन चुकी है, Selfies है, तो प्रेम है वरना नहीं, प्रेम अब प्रेम नहीं Status बन चुका है. I Phone Gift में आया तो प्रेम, सादा Gift आया तो रिश्ता ख़त्म. 

Social Media पर छवि ऐसी बनाते हैं जैसे जीवन में कभी अनबन होती ही नहीं, असलियत में जाकर देखो तो सच्चाई पता चले. यही सच्चाई है. इसीलिए वैराग्य की भावनाओं से आत्मा को बार-बार भावित करना भी उतना ही आवश्यक है. आजकल तो ऐसी ऐसी बातों को Divorce हो रहे हैं कि दिमाग सोचने को मजबूर कर देता है कि लोग किस तरफ जा रहे हैं.

तात्पर्य 

पूज्य श्री कहते हैं कि तात्पर्य ऐसा लगता है क्षमा आदि गुणों की Importance और जीव-आत्मा की Priority वाला जो Attraction है, Soulful Feeling है, जिसे वात्सल्य भी कह सकते हैं, वह है प्रेम-मैत्री. इस सच्चे प्रेम अथवा मैत्री का एक काम साफ़-साफ़ नज़र आता है. आत्मा के भीतर अनादिकाल से साहजिक जो द्वेष के, Hatred के संस्कार भयानक रूप से भरे पड़े हैं, उन्हें ख़त्म करके उखाड़ फेंकना. सच्ची मैत्री वही होगी. मैत्री और द्वेष साथ में नहीं चल सकते.

कुल मिलाकर मैत्री आत्मा के लिए अत्यंत हित करनेवाली है. Materialistic चीज़ों के प्रति,  जड पुद्गल एवं उसके रूप-रंगों के प्रति जीव का जो अनादि काल से साहजिक आकर्षण है वह राग है, Attachment है. बाहरी रूप, धन आदि की जिसमें Priority हो, ऐसा भी जो अन्य जीवों के प्रति लगाव रहा करता है, वह भी राग है. वैराग्य की भावनाएँ इस राग नामक बकासुर का अंत लाती है, इसलिए आदरणीय है. 

सारी दुनिया में भयंकर आतंक फैलानेवाला यह आंतकवादी है, जिसका नाम है राग उर्फ आसक्ति उर्फ वासना, यानी Attachment Lust etc, और इस आतंकवाद को शांत करनेवाली है वैराग्य भावना की पराक्रमी Battalion. राग दुःख देने का काम करता है और वैराग्य एवं वैराग्य की भावनाएं सुख देने का काम करती है. यदि विश्वास ना हो तो खुद खुद के जीवन में अनुभव करके देख सकते हैं. 

तो इस प्रकार Opposite जैसी दिखनेवाली मैत्री आदि की भावनाएँ और वैराग्य की भावनाएँ सही मायने में विरोधी नहीं हैं परंतु एक दूसरे को Support करती हैं. एक का विषय जीव और जीव के गुण है और दूसरे का विषय पुद्गल और पुद्गल के गुण हैं. जीव के प्रति मैत्री और पुद्गल के प्रति वैराग्य. Key to real happiness.

लेकिन जीवन में इतने शत्रु है उनके प्रति मैत्री भाव कैसे आ सकते हैं? जिन्हें हम शत्रु मानते हैं क्या वे Actual में हमारे शत्रु है?
जानेंगे अगले Episode में.

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