आज हम एक ऐसे विषय के बारे में जानेंगे जो हम सभी के दिल के एकदम करीब है – परम चमत्कारिक स्तोत्र श्री भक्तामर. आखिर भक्तामर की रचना किसने की और क्यों की? भक्तामर स्तोत्र का उद्भव कहाँ से है?
यह सब हम इस Article के माध्यम से जानेंगे.
आचार्य श्री का प्रारंभिक जीवन
श्री भक्तामर स्तोत्र की रचना करनेवाले प.पू. आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी म.सा. और इसलिए ही भक्तामर की अंतिम गाथा में ‘तं मानतुंगमवशा’ आता है. उनकी जन्म भूमि भारत की प्रसिद्द विद्यानगरी काशी नगरी थी. वे धनदेव नामक एक ब्रह्म क्षत्रिय के पुत्र थे और उनका नाम मानतुंग था. मानतुंग ने काशी नगरी में ही संन्यास स्वीकार किया था परंतु उनके जीवन में किसी घटना के घटित होने के कारण उनका उस संन्यास पर से विश्वास उठ गया था.
थोड़े समय के बाद प.पू. आचार्य श्री जिनसिंहसूरीजी म.सा. काशी नगरी में पधारे और महाकीर्ति के नाम से प्रसिद्द मानतुंग सन्यासी ने उनके उपदेश को सुनकर प्रतिबोधित होकर श्वेतांबर साधु धर्म की दीक्षा स्वीकार की. उन्होंने थोड़े ही समय के अंदर शास्त्र पढ़कर योग्यता प्राप्त कर ली और योग्यता आने पर उनके गुरुजी ने उन्हें आचार्य पद दे दिया और उसके बाद से उनकी आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी के नाम से प्रसिद्धि हुई.
भक्ति से हुआ चमत्कार
उस समय काशी नगरी में हर्ष राजा का राज्य था. उनकी राजसभा में बहुत से पंडित थे और उनमें से एक महाकवी थे मयूर. उस कवी की एक रूपवान और गुणवान कन्या थी. मयूर कवी ने बहुत तलाश करवाकर उसकी शादी कवी बान के साथ करवाई थी. मयूर ने बान कवी का परिचय राजा के साथ करवाया और उसे राजसभा का सदस्य भी बनाया था.
इस घटना से एक चीज़ पता चलती है कि अपने Relative को Politics में आगे कर उसको Seat दिलवाने की परंपरा अभी से नहीं बल्कि पहले से है. कई लोग इस परंपरा को Nepotism के नाम से भी जानते हैं लेकिन बस इसमें फर्क इतना था कि पहले के समय में कला के साथ ही ऊपर जाया जा सकता था जिससे किसी का नुक्सान नहीं होता था, Good Nepotism कह सकते हैं शायद, लेकिन आज तो हम देख ही रहे हैं. खैर,
एक बार बान कवी का अपनी पत्नी के साथ झगडा हो गया और कवी ने पूरी रात पत्नी को मनाने की बहुत कोशिश की लेकिन पत्नी मानवाली थी और उसने अपना मान नहीं छोड़ा. आखिर बान कवी ने अपनी पत्नी के लिए एक श्लोक की रचना की और उसमें ‘सुभ्रू’ शब्द का उच्चारण किया. योगानुयोग पंडित मयूर उस लड़की के पिता उसी समय वहां आए और उन्होंने यह सुनकर तुरंत कह दिया ‘हे कविराज! इसे ‘सुभ्रू’ कहने की जरुरत नहीं, चंडी के नाम से इसे पुकारो.’
बस, यह सुनकर मयूर की पुत्री और बान कवी की पत्नी शर्मा गई, क्रोधित हो गई. उसने अपने पिता को श्राप दे दिया क्योंकि उसका और उसके पति का नीजी जीवन देखने का अधिकार किसी को नहीं था. उसने पंडित मयूर को श्राप दिया कि ‘तुम रसलुब्ध कोढ़ी बनोगे यानी Leprosy रोग का शिकार बनोगे.’ मयूर पंडित के शरीर में कोढ़ रोग उत्पन्न होना शुरू हो गया और उसने राजसभा में जाना बंद कर दिया.
विरोधियों के कहने से राजा ने मयूर पंडित को जानबूझकर राजसभा में बुलवाया. उसका राजसभा में बहुत अपमान हुआ और उसके रोग के पीछे की कहानी भी सभी में प्रसिद्द हो गई और उसकी इज्जत उड़ने लगी. अपमान ना सहन कर पाने के कारण उसने सूर्य देव की आराधना करनी शुरू की और सच्चे दिल से आराधना करने के कारण उसका रोग मिट गया और मयूर पंडित का शरीर निरोगी हो गया.
कवियों के बिच शास्त्र युद्ध
यह सभी बातें राजसभा में सभी को पता चली. राजा ने मयूर पंडित जो एक कवी भी थे उनकी बहुत प्रशंसा की परन्तु उनके दामाद बान कवी ने सभी से कहा कि ‘इसमें प्रशंसा करने जैसा कुछ भी नहीं है.’ राजा ने कहा ‘पंडितजी, हमेशा गुणवान व्यक्ति गुणवान की इर्ष्या करता है. आप ऐसा मत कीजिए. आप भी इनकी साधना जैसा कुछ करके बताइए कि जिससे हम आपकी बात को सच मानें.’
बान कवी को जैसे किसी ने उसे चाबुक लगाई हो वैसा लगा. उसने राजा के पास से खुद के हाथ पैर कटवाकर चंडी माता के मंदिर में खुद को रखवाया और वहां बैठकर चंडी देवी की भक्ति करने लगा. चंडी देवी ने भक्ति से प्रसन्न होकर बान कवी के हाथ पैर वापस जोड़कर ठीक कर दिए और यह देखकर राजा को बान कवी के ऊपर भी सम्मान जाग उठा.
इस तरह ससुर पंडित मयूर और दामाद कवी बान दोनों की प्रशंसा पूरे राज्य में होने लगी और दोनों को एक दुसरे के प्रति इर्ष्या बढती गई. राजा ने उन्हें कह दिया कि ‘आप दोनों में से कौन विजयी है और कौन पराजयी है उसका निर्णय आप कश्मीर जाकर वहां पर सरस्वती देवी की आराधना कर उनसे पूछिए.’
दोनों ससुर और दामाद कश्मीर गए और वहां साधना और तप कर सरस्वती देवी को प्रसन्न कर उन्हें प्रत्यक्ष किया. देवी ने निर्णय करने के लिए उनके सामने एक Competition रखा. ‘शतचंद्रम नभस्तलम्’ इस पद को पूरा करना था और बान कवी ने इसे पूरा कर दिया और वह जीत गया. दोनों पंडित वापस अपने राज्य में आए और राजा ने दोनों का बहुत सम्मान किया. यह घटना होने के बाद पूरे राज्य में यह बात फैल गई कि ऐसे पंडित ही चमत्कारिक हैं और जैनधर्म में कोई चमत्कार नहीं है.
श्री भक्तामर स्तोत्र की रचना
हर्ष राजा की सभा में एक जैन मंत्री भी था और उसने भी यह सब सुना. उस मंत्री ने कहा ‘राजन! जैन आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी भी इस राज्य में ही बिराजमान हैं और वे एक महाशक्तिशाली पुरुष हैं.’ यह सुनकर राजा ने आचार्य श्री को बहुमान पूर्वक राजसभा में पधारने की विनंती की. आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी के साथ राजा ने सभी पंडितों का एक वाद Competition रखा और पूरी सभा और राजा उनके अद्भुत पांडित्य, असाधारण प्रतिभा, अजोड कवित्व को देखकर प्रसन्नमुख होकर जय जयकार करने लगे. अब राजा ने अंतिम पासा फेंका और कहा कि ‘चमत्कार बताइए.’ क्योंकि हम सब जानते ही है जहाँ पर चमत्कार है वहां पर नमस्कार है.
आज भी कई जगहों पर हमें यह देखने को मिलता है कि अगर किसी मंदिर को चमत्कारिक बोल दिया जाए तो मंदिर नहीं आनेवाले लोग भी लाखों की संख्या में वहां आते हैं क्योंकि उन्हें चमत्कार में रस है, चमत्कार करनेवाले में नहीं. हमने देखा ही है कि कहीं भी किसी भी जैन प्रतिमा पर अगर अमीवर्षा होती है या केसर की वर्षा होती है या दूध झरता है तब लोग Mobile में Video लेकर उसे Viral करते हैं और इसलिए आज भी यह कहावत सच्ची ही है ‘जहाँ चमत्कार है वहां नमस्कार है.’
श्री मानतुंगसूरीजी म.सा. ने राजा को कहा ‘राजन! ऐसे चमत्कार का कोई महत्त्व नहीं है लेकिन फिर भी अगर आपको चमत्कार देखना हो तो देखो. आप मेरे पूरे शरीर को बेड़ियों में जकड दो और एक Room के अंदर मुझे Lock कर दो. उसके साथ उस Room को भी मजबूत तालों से Lock करदो.’ राजा ने आचार्यश्री को 44 बेड़ियां पहनाकर एक रूम में कैद कर दिया.
आचार्य श्री वहां उसी अवसर पर प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान की स्तुति स्वरुप महाप्रभाविक श्री भक्तामर स्तोत्र की रचना कर दी. जैसे जैसे आचार्य श्री एक एक श्लोक बोलते गए वैसे वैसे एक एक बेड़ि टूटती गई और इस तरह 44 श्लोक पूर्ण हो जाने पर आचार्य श्री के शरीर पर रहे 44 बंधन भी टूट गए और आचार्य श्री बंधन मुक्त होकर राज्यसभा में पधारे. राजसभा और प्रजा यह चमत्कार देखकर खुश हो गए. आचार्य श्री में रही हुई नम्रता और प्रेम, इर्ष्या का अभाव और सर्वत्त वात्सल्य भाव देखकर और प्रसन्न हुए. राजा ने आचार्य श्री की प्रशंसा की और यह भी कहा कि ‘आपकी निरअभिमानता, निष्कलंकता और उदार चरित्रता को धन्यवाद है. आपके दर्शन से मेरा जीवन सफल हुआ.’
इस घटना के बाद आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी वहां से विहार कर दूसरी जगह चले गए. आचार्य श्री द्वारा रचित श्री भक्तामर स्तोत्र आज भी विद्यमान है. कई जैन घरों में नित्य इसका पाठ किया जाता है. जिस तरह आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरीजी द्वारा रचित श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र के 44 श्लोकों की रचना की गई ठीक उसी तरह भक्तामर स्तोत्र में भी 44 श्लोक हैं. प्रभाव चरित्र, प्रबंधचिंतामणि जो कि 13वि और 14वि शताब्दी के ग्रन्थ हैं उनमें और श्री भक्तामर स्तोत्र की प्राचीन टिका में भी इस स्तोत्र के 44 श्लोक ही बताए गए हैं. उसमें 4 प्रतिहार्य का ही वर्णन किया गया है, 8 प्रतिहार्य का वर्णन नहीं है.
श्री नमीउण स्तोत्र की रचना
एक बार पू. आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी को पूर्व कर्म के उदय से पागलपन का रोग उत्पन्न हुआ, जिसे उन्माद कहा जाता है. इससे उन्होंने धरणेंद्र देव को प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करके अनशन काल के बारे में पूछा कि ‘मेरा अनशन काल कब है?’ धरणेंद्र देव ने कहा ‘हे भगवन! आपका आयुष्य तो अभी शेष है. आप अनशन मत कीजिए. मैं आपको एक 18 अक्षर का मंत्र दे रहा हूँ, इस मंत्र के जाप से आपका रोग शोक सभी का नाश हो जाएगा.’
आचार्य श्री ने नमीउण स्तोत्र की रचना कर 21 गाथा के अंदर धरणेंद्र देव द्वारा दिए गए 18 अक्षरवाले मंत्र को गर्भित रूप से रखा. आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी म.सा. का रोग उस स्तोत्र के प्रभाव से शांत हो गया और उनका शरीर कंचन के समान स्वर्णमय हो गया. यह नमीउण स्तोत्र आज भी विद्यमान है और महा प्रभावशाली है. आचार्य श्री ने ‘भत्तीब्भरथयम्’ नामक 35 गाथा के स्तोत्र की भी रचना की है.
ऐसे तो कई चमत्कारिक घटनाएँ उनके जीवन में घटित हुई थीं. महापुरुष को चमत्कार में रस नहीं होता है लेकिन कभी अवसर आए तो शासन प्रभावना को ध्यान में रखते हुए वो चमत्कार भी बता देते हैं. उन चमत्कारों में से निकले हुए स्तोत्र आज भी हमें काम आते हैं. हमारे इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं.
तो यह था आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी म.सा. द्वारा रचित महाप्रभावक स्तोत्र श्री भक्तामर की रचना का अद्भुत एवं स्वर्णिम इतिहास.