महापुरुष आर्द्रकुमार की रोचक कथा
जैन शास्त्रों में साधु साध्वीजी भगवंत के लिए पंच महाव्रतों का पालन अनिवार्य बताया गया है. उन महाव्रतों का निरतिचार पालन आत्मा को उसी भव में शाश्वत मोक्षपद दिलवा सकता है जबकि महाव्रतों में लगा अतिचार यानी दोष आत्मा को इस संसार में कहीं फेंक देता है.
आज हम इसी बात को Prove करती हुई भरहेसर सज्झाय के महापुरुष आर्द्रकुमार की अद्भुत कथा जानेंगे.
बने रहीए इस Article के अंत तक.
जातीस्मरण ज्ञान
एक बार राजगृही के महाराजा श्रेणिक ने अनार्यदेश यानी जहाँ जीवदया का बिलकुल भी प्रचलन नहीं होता, जो देश हिंसा से भरपूर होते हैं, ऐसे अनार्यदेश में रहे आर्द्रक राजा को एक कीमती वस्तु अपने मंत्री के साथ Gift में भेजी.
आर्द्रक राजा ने उस मंत्री से पूछा ‘आपके महाराजा के राजकुमार का क्या नाम है?’ मंत्री ने कहा ‘उनका नाम अभयकुमार है, वे बुद्धिनिधान हैं, 500 मंत्रियों के अधिपति हैं, धर्मज्ञ हैं और तत्त्वज्ञ हैं.’ आर्द्रक राजा का राजकुमार आर्द्रकुमार भी वहीं उपस्थित था.
अभयकुमार का परिचय सुनकर उसके मन में अभयकुमार के प्रति Attraction पैदा हुआ. अभयकुमार से Friendship करने के लिए आर्द्रकुमार ने Precious Gifts भेजे और कहलाया कि ‘आर्द्रकुमार आपसे मैत्री यानी Friendship करना चाहते हैं.’
मंत्री ने जाकर श्रेणिक और अभयकुमार को सारी बातें कहीं और आर्द्रकुमार द्वारा भेजी गई भेंट भी अभयकुमार को दी. अभयकुमार ने सोचा
‘वह मुझसे Friendship करना चाहता है, जरुर कोई उत्तम आत्मा होनी चाहिए. पूर्व भव में शायद कोई विराधना की होगी, जिसके Result से वह अनार्य देश में पैदा हुआ है लेकिन उसमें कुछ Potential जरुर है, इसी कारण वह मुझसे मैत्री करना चाहता है.’
इस प्रकार विचारकर अभयकुमार ने दूसरी बार रत्नों से जडित अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा Gift के रूप में आर्द्रकुमार को भेजी. Gift Box खोलकर जब आर्द्रकुमार ने वह प्रतिमा देखी तो वह सोचने लगा ‘यह कौनसा अलंकार यानी गहना है? इसे किस तरह, कहाँ, कैसे पहना जाए? यह गले में पहनने का आभूषण है या मस्तक पर?’
इस प्रकार सोचते हुए बार बार प्रतिमा को Check करते करते आर्द्रकुमार को जातिस्मरण ज्ञान यानी जिससे पूर्व भवों को देख सकते हैं, वैसा ज्ञान हो गया. उसे अपना पूर्व का तीसरा भव Clearly दिखाई दिया.
वह सोचने लगा ‘अहो! पूर्व के तीसरे भव में मैं सामयिक नाम का सद्गृहस्थ था, मेरी पत्नी का नाम बंधुमती था. सद्गुरु के उपदेश सुनकर हम दोनों ने दीक्षा ली थी. एक बार साध्वीजी भगवंत के Group में अपनी रूपवती पत्नी साध्वी को देखकर उसके प्रति मेरे दिल में मोह पैदा हो गया था.
मैंने उसके पास कामभोग की प्रार्थना की थी. मेरी पत्नी साध्वी ने व्रतभंग के भय से अनशन कर लिया था और वह मरकर देवी बन गई थी. उसके वियोग से दुःखी होकर मैंने भी अनशन व्रत स्वीकार किया था और मरकर देव बना.
देवलोक से च्यवकर चौथे महाव्रत ब्रह्मचर्य में की गई विराधना के मानसिक पाप के कारण अनार्य देश में पैदा हुआ हूँ. मेरे धर्मगुरु अभयकुमार को धन्य है, जिन्होंने मेरे प्रतिबोध के लिए यह प्रतिमा भेजी है.’
आर्द्रकुमार की दीक्षा
एक बार अवसर देखकर आर्द्रकुमार ने अपने पिता को कहा ‘मैं अभयकुमार से मिलने के लिए राजगृही जाना चाहता हूँ.’ पुत्र की इच्छा देखकर आर्द्रक राजा ने Strictly मना कर दिया और इतना ही नहीं, वह भागकर कहीं चला न जाय, इस हेतु आर्द्रकुमार की रखवाली के लिए 500 सैनिकों को भी तैनात कर दिया.
पिता के द्वारा मना करने पर भी आर्द्रकुमार का मन शांत नहीं हुआ, उसके मन में अभयकुमार से मिलने की इच्छा और बढ़ गई और एक शुभ दिन अपनी Security के लिए तैनात किए गए सैनिकों को ठगकर भी वह राजगृही नगरी पहुँच गया.
वहां वह अभयकुमार को मिला और उसके साथ जाकर प्रभु वीर की देशना सुनी. उसे दीक्षा लेने के बाव जागे. उसने प्रभु को दीक्षा देने की प्रार्थना की. प्रभु ने उसे उसके भोगावली यानी Worldly Desires पूरे करने के कर्म बाकी जानकर ना कही.
तब आर्द्रकुमार ने खुद से ही दीक्षा लेने का निर्णय किया और दीक्षा ले ली. एक बार विहार करते हुए आर्द्रमुनि वसंतपुर नगर के बाहर उद्यान यानी Garden में पधारे और कायोत्सर्ग में खड़े रहे.
इधर उनके पूर्वभव की पत्नी बंधुमती की आत्मा देवलोक में से च्यवकर वसंतपुर नगर में किसी श्रेष्ठी के घर ‘श्रीमती’ नामक कन्या के रूप में पैदा हुई थी. एक बार वह श्रीमती अपनी सहेलियों के साथ खेलती हुई उस उद्यान में आ गई, जहाँ आर्द्रमुनि कायोत्सर्ग कर रहे थे.
उसकी सहेलियां मजाक में बोली ‘अपने मन पसंद वर यानी पति को पसंद करो.’ उस समय श्रीमती आर्द्रमुनि की तरफ देखकर बोली ‘मैं तो इस मुनि के साथ विवाह करूंगी.’ और उसी समय आकाश में देववाणी हुई ‘तूने योग्य वर को पसंद किया है.’
श्रीमती आर्द्रमुनि के चरणों में गिर गई. लेकिन संयम में स्थिर आर्द्रमुनि ने अनुकूल उपसर्ग जानकर वहाँ से तुरंत विहार कर दिया. धीरे-धीरे समय बीतने लगा और श्रीमती की शादी की उम्र हुई.
उसके योग्य पति के लिए खोज होने लगी तब वह बोली ‘मैं तो उसी मुनि के साथ विवाह करूंगी.’ पिता ने पूछा ‘तू उस मुनि को कैसे पहिचान पाएगी?’ पिता की सहमति से श्रीमती प्रतिदिन मुनियों को दान देने लगी और ठीक 12 वर्ष के बाद आर्द्रमुनि वापस विहार करते हुए वहाँ आए.
भोगावाली कर्म
उनके पैरों में रहे चिह्नों को देखकर श्रीमती उन्हें पहचान गई और बोली ‘हे स्वामि! आप मुझे छोड़कर क्यों चले गए? अब मैं आपको जाने नहीं दूंगी.’ भोगावली कर्म की उस आकाशवाणी को यादकर आर्द्रमुनि ने उस श्रीमती कन्या के साथ विवाह किया और उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई.
एक बार आर्द्रकुमार ने पत्नी को कहा ‘तेरा पुत्र अब बड़ा हो रहा है, अब मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ.’ पति की यह बात सुनकर श्रीमती मौन हो गई और वह चर्खे से रूई कातने लगी. उसके पुत्र ने पूछा ‘माँ! तू चर्खा क्यों कात रही है?’
श्रीमती ने कहा ‘बेटा. तेरे पिता दीक्षा लेने की बात कर रहे हैं, उनकी दीक्षा के बाद तो चरखा कातकर ही तेरा पालन पोषण करना पड़ेगा न.’ पुत्र ने पलंग पर सोए हुए अपने पिता यानी आर्द्रकुमार के पैर को 12 कच्चे सूत यानी Cotton के धागे से बाँधा और बोला ‘पिताजी! मैंने आपको बाँध दिया है, अब आप कैसे जाओगे?’
आर्द्रकुमार ने उन 12 धागों का बंधन देखकर सोचा ‘मुझे 12 साल और रहना पड़ेगा.’ आर्द्रकुमार 12 वर्ष तक घर में रहे.
एक बार रात के समय आर्द्रकुमार सोचने लगे ‘अहो! इस संसार रूपी कुएँ से बचने के लिए मैंने संयम रूपी डोरी को थामा था लेकिन उस आलंबन को भी मैंने छोड़ दिया. पिछले भव में की गई विराधना के फल से मुझे अनार्यदेश में जन्म मिला था.
इस बार तो मैंने महाव्रत लेकर, उन्हें तोडा है, अब मेरी क्या दशा होगी? जिस प्रकार मलिन यानी गंदगी में सना हुआ सोना आग में तपकर शुद्ध बनता है, उसी प्रकार मैं भी तप द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध बनाऊंगा.’
इस प्रकार विचारकर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा ‘अब मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ.’ पत्नी ने कहा ‘आपके बिना हमारा क्या होगा?’ आर्द्रकुमार ने उसे समझाते हुए कहा ‘इस संसार में कौन किसका है? सभी अकेले पैदा हुए हैं, अकेले ही जन्म लेते हैं और अकेले ही मरते हैं.
मरने पर कोई किसी के साथ आता नहीं है. जो मुर्ख व्यक्ति शरीर, धन, पुत्र, पत्नी आदि को ‘मेरा-मेरा’ कहता है, वह अंत में दुःखी ही होता है. जीव तो धन-पुत्र परिवार आदि से अलग ही है, इसलिए उसके ऊपर ममता रखने की जरुरत नहीं है.’
तापसों को प्रतिबोध
आर्द्रकुमार के समझाने पर आखिर उनकी पत्नी ने उन्हें दीक्षा के लिए Permission दी. दीक्षा लेकर आर्द्रकुमार मुनि राजगृही नगरी की ओर जाने लगे और बीच मार्ग में उन्हें चोरी से अपना जीवन चलानेवाले 500 लोग मिले.
आर्द्रकुमार ने उनको पहचान लिया. यह 500 चोर और कोई नहीं बल्कि वे ही 500 सैनिक हैं जिन्हें आर्द्रकुमार की Security के लिए तैनात किया गया था. आर्द्रकुमार उनको समझाते हुए बोले ‘अहो! यह पाप कार्य कब से शुरू किया? चोरी का फल तो इस लोक में मौत आदि तथा परलोक में नरक आदि दुर्गति है.’
उन सैनिकों ने कहा ‘हे स्वामी! आप तो हमें छोड़कर चले गए. आपको ढूंढने की हमने बहुत कोशिश लेकिन आपका पता नहीं लगा, इसलिए हमने सोचा कि आर्द्रकुमार तो चले गए, अब स्वामी को अपना मुँह कैसे बताएंगे?
इस प्रकार सोचकर वाहन में बैठकर हम भी इस देश में आ गए. यहां आकर अन्य कोई धंधा नहीं मिलने से चोरी कर अपना गुजारा करते थे.’ आर्द्रमुनि ने कहा ‘जीवन में संकट आ जाए तो भी चोरी नहीं करनी चाहिए. मानव जीवन प्राप्तकर धर्माराधना करनी चाहिए, जिससे अपना आनेवाला भव सुधरे.
धर्म से ही स्वर्ग और मोक्ष मिलते हैं. जिनेश्वर भगवंत ने अहिंसा, सत्य वचन, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप धर्म कहा है, तुम भी मेरे भक्त हो तो इसी मार्ग का अनुसरण यानी इसी मार्ग को Follow करो.’
आर्द्रकुमार की बात मानकर 500 सैनिकों ने उसी समय दीक्षा स्वीकार करली. आर्द्रमुनि उन सब मुनियों को साथ में लेकर राजगृही नगरी की ओर जा रहे थे. बीच मार्ग में उन्हें कुछ तापस मिले. वे तापस एक हाथी को मारकर उसका मांस खा रहे थे.
आर्द्रकुमार ने उन्हें कहा ‘अरे. तुम जीव हिंसा मत करो. इससे नरक गति प्राप्त होती है.’ तापसों ने कहा ‘हम तो एक जीव को मार रहे हैं, जबकि तुम तो अनेक जीवों को मारते हो, इसलिए ज्यादा पाप तुम्हें लगना चाहिए.
एक इन्द्रियवाले यानी 1 Sense वाले धान्य जैसे गेहूं, मूंग आदि के पाँच दाने से पंचेन्द्रियपना होता है और पाँच दानों से तो पेट भरता नहीं है, इसलिए पंचेन्द्रिय को मारना ही अच्छा है.’
कई लोग आज भी जो मांस का भक्षण करते हैं वे यह दलील देते हैं कि मांसाहार में तो एक ही जीव की हत्या होती है, जैसे एक मुर्गे को मारा अथवा एक भैंस को मारा अथवा एक बकरी को मारा और कई लोगों का पेट भरता है, जबकि धान्य में तो एक एक दाना-एक एक बीज है यानी एक एक जीव है, तो एक व्यक्ति का पेट भरने के लिए कितने जीव मारने होंगे.
इस Confusion का सटीक Solution Already एक अलग प्रस्तुति में हम दे चुके हैं, आप यहाँ देख सकते हैं : https://youtu.be/ie06JchJ5QU
जब तापसों ने यही दलील की तब उसी समय नजदीक में बड़े पेड़ के साथ हाथी बँधा हुआ था. आर्द्रमुनि को देखते ही उसने पेड़ से बंधन को तोडा और आर्द्रमुनि की ओर चल पडा. तापस हाहाकार करने लगे ‘यह हाथी इन मुनियों को मार देगा.’ सोचकर सभी इधर-उधर भागने लगे.
तभी वह हाथी नजदीक आकर आर्द्रमुनि के चरणों में गिर पडा. आर्द्रकुमार ने उस हाथी से कहा ‘हे गजेन्द्र! तुझे धर्म की रुचि हो यानी धर्म में Interest हो तो इस धर्म को स्वीकार कर और अनशन की इच्छा हो तो अनशनव्रत स्वीकार कर.’
पूर्व भव के संस्कार उजागर होने से उसी समय हाथी ने अनशनव्रत स्वीकार किया. यह घटना देखकर सभी तापस भी प्रतिबोध को प्राप्त हुए और उन सभी ने जैनधर्म का स्वीकार किया.
आर्द्रमुनि प्रभु वीर के चरणों में पहुँच गए और निरतिचार चारित्रधर्म का पालनकर सभी कर्मों का क्षयकर उन्होंने अजरामर मोक्षपद प्राप्त किया.
King Nebuchadnezzar
जानकारी के लिए बता दें कि आर्द्रकुमार के पिता जिन्हें हम आर्द्रक राजा के नाम से जानते हैं, उन्हें History में Nebuchadnezzar नाम से भी जाना जाता है जो कि Euphrates और Tigris के बीच में बसे हुए Mesopotamia विस्तार में प्रसिद्द Babylon Civilization को अपनी राजधानी बनाकर राज्य करते थे.
इसी Babylon Civilization को आज की कई संस्कृतियों का उद्भव स्थान माना जाता है. आर्द्रक राजा की गिरनार से जुड़ी एक अद्भुत घटना हमनें पूर्व में Jain Media के एक Video के माध्यम से जानी थी, वह प्रस्तुति आप यहाँ देख सकते हैं : https://youtu.be/2MgCAQqAA38
जब आर्द्रकुमार आर्द्र देश से भागकर राजगृही आए थे, तब उन्हें ढूंढने के लिए राजा Nebuchadnezzar भी भारत आए थे और तब उनकी नजर गिरनार तीर्थ पर पड़ी और गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ प्रभु की कृपा इस अजैन राजा नेबू पर बरसी और उसके मन में गिरनार का जीर्णोद्धार करने का भाव हुआ.
पूरे ठाट बाट से राजा नेबू ने गिरनारजी का जीर्णोद्धार करवाया और Babylon के Dockyard यानी बंदरगाह से मिलनेवाली सारी Income को राजा नेबू ने गिरनार तीर्थ की सार संभाल के लिए समर्पित भी की. तो ये थी इतिहास से जुडी कुछ बातें.
Moral Of The Story
1. कभी कर्म का उदय हो जाए तो मुनि भगवंतों का भी पतन हो सकता है, हो जाता है और अगर आत्मा अच्छी हो तो वापस उसका उत्थान भी हो जाता है. ऐसी घटनाओं में खुद के भले के लिए हमें उनकी निंदा-टीका करके कर्म बंधन नहीं करने चाहिए वरना एक दिन हमारे साथ भी ऐसी घटना घटे वैसा कर्म हम बांध लेते हैं.
2. जिन प्रतिमा का कितना महत्व है? वह हमें इस कथा से पता लगता है. प्रभु की प्रतिमा का संपर्क भी व्यक्ति को दीक्षा तक और मोक्ष तक पहुंचा सकता है इसलिए ‘What is in an Idol, It is just a Stone.’ ऐसा बोलकर उसकी अशातना बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए.
3. मित्र कैसा होना चाहिए? वह भी हमें इस कथा से पता चलता है. Pub, Club में लेकर जानेवाले मित्र-मित्र नहीं शत्रु है. क्योंकि वे हमारे अंदर Bad Habits डालकर हमारा जीवन तबाह कर देते हैं. मित्र कल्याण करनेवाले होने चाहिए, Good Qualities हम में आए, वैसे मित्र रखने चाहिए.
4. मोह एक ऐसी चीज है जो डूबाती भी है और अगर उसे सही तरह से उपयोग किया जाए तो तारती भी है. 500 चोरों को – सैनिकों को आर्द्रकुमार पर मोह था और उस मोह ने ही उन्हें दीक्षा तक पहुंचाया.