साधु-साध्वी-श्रावक और श्राविका-ये चारों जिनशासन के Main Pillars हैं।
एक Angle से देखें तो इन चारों में से सबसे मुख्य है श्राविका क्योंकि साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका इन सबको जन्म देनेवाली आखिर तो एक श्राविका ही होती हैं।
तो, आज से हम जिनशासन की महान श्राविकाओं की कहानियाँ जानेंगे जिन्हें जिनशासन के इतिहास में महासती के नाम से जाना जाता है।
पू. वीरविजयजी महाराज साहेब ने स्वयं द्वारा रचित एक पूजा में कहा है कि “सुलसादिक नव जण ने जिनपद दीधुं रे…”
यानी भगवान महावीर के शासन काल में 9 पुण्यात्माओं ने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया यानी वो 9 आत्माएं भविष्य में तीर्थंकर बनेंगी। उन 9 आत्माओं में भी सबसे पहले “सुलसा” श्राविका को याद किया गया है।
‘सुलसा जैसी श्रद्धा हो’ – यह पंक्ति हमने सुनी होगी, लेकिन आखिर कैसी थी सुलसा महासती की श्रद्धा? तो आइए जानते हैं भरहेसर सज्झाय की महासती सुलसा की अद्भुत कथा।
बने रहिए इस Article के अंत तक।
सुलसा श्राविका
ये उस समय की बात है जब मगध देश में राजा श्रेणिक का राज्य था। श्रेणिक राजा की कई रानियाँ थी जैसे नंदा और धारिणी। उनमें से नंदा महारानी के बेटे का नाम बुद्धिनिधान अभयकुमार थे और वे महामंत्री थे।
महाराजा श्रेणिक और उनका पुत्र अभयकुमार, दोनों ही भगवान महावीर के परम भक्त थे। बुद्धिनिधान अभयकुमार की कहानियाँ हमने पहले जानी थी। अगर आपने वह Episodes Miss किए हैं तो फिर से देख सकते हैं।
श्रेणिक राजा का रथ चलानेवाले सारथी का नाम नाग था। नाग की पत्नी का नाम सुलसा था। सुलसा की भगवान महावीर पर अटूट श्रद्धा थी।
प्रभु के आने की खबर सुनकर ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे। प्रभु के दर्शन से उसका दिल ख़ुशी से भर जाता था। उसका सम्यक्त्व बहुत शुद्ध था।
Note : सम्यक्त्व यानी सही की पहचान, Reality को स्वीकारना, सही को सही और गलत को गलत मानना, ऐसी Strong श्रद्धा को सम्यक्त्व कहते हैं। इससे उलटी सोच वाले को मिथ्यत्वी कहते हैं।
धर्म का Base है-सम्यक्त्व। सुलसा को प्रभु के वचनों पर पूरा विश्वास और श्रद्धा थी। नाग सारथी के पास धन, इज्जत आदि सब कुछ था, किसी चीज की कमी नहीं थी लेकिन उसे एक ही बात का दुख था कि उसकी कोई संतान नहीं है।
नाग सारथी की इच्छा
एक बार नाग सारथी बहुत Tension में अपने सर पर हाथ रखकर बैठा था। सुलसा ने उससे पूछा ‘आज आप इतने उदास क्यों हैं? क्या महाराजा ने कुछ कहा है? क्या आपकी तबियत ठीक नहीं है?
अगर कोई बात छुपी हुई नहीं हो तो मुझे बताइए। मैं आपके दुख में साथ देना चाहती हूँ।’ एक Life Partner को दुःख में साथ देना चाहिए, दुःख का कारण नहीं बनना चाहिए। लेकिन आज माहौल थोडा अलग है। खैर।
नाग ने कहा ‘ऐसी कोई बात नहीं है जो तुमसे छुपाऊँ। किसी ने भी मेरा अपमान नहीं किया और मेरी तबियत भी ठीक है। मुझे सिर्फ एक ही बात की चिंता है पुत्र प्राप्ति की। बिना संतान के मुझे जीवन सूना लगता है।’
सुलसा ने कहा ‘आप तो जिनवाणी को गहराई से समझते हैं। पुत्र के बिना आपको इतना दुख क्यों है? क्या पुत्र हमारे परलोक को सुधार सकता है? क्या पुत्र हो तभी आत्मा की सद्गति होती है? क्या पुत्र हमें दुर्गति से बचा सकता है?’
नाग ने कहा ‘यह सब तत्त्वज्ञान मैं भी जानता हूँ लेकिन फिर भी पुत्र की इच्छा से मेरा मन बार-बार बेचैन हो जाता है। मैं इस इच्छा को रोक नहीं पाता और इसलिए दुखी हो जाता हूँ।’
सुलसा ने कहा ‘शायद मैं आपकी इच्छा पूरी करने में समर्थ (Capable) नहीं हूँ। आप चाहें तो किसी और योग्य कन्या से विवाह कर सकते हैं।’ नाग ने कहा ‘नहीं सुलसा। मुझे किसी और से विवाह नहीं करना है। मैं तो तुम्हें ही हमारी संतान के साथ देखना चाहता हूँ।’
सुलसा ने कहा ‘आप निराश मत होइए। आपकी इच्छा जरूर पूरी होगी। मुझे प्रभु पर पूरा भरोसा है। उनकी भक्ति और आराधना से मेरी सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं।’ इस तरह अपने पति को भरोसा दिलाकर सुलसा धर्म-कार्य में और भी लगन से जुट गई।
सुलसा की धर्माराधना
सुलसा सोचने लगी ‘भक्ति और विधि से की गई धर्म आराधना से इस दुनिया में जो चाहे वह फल मिलता है। फिर भी लोग धर्म पर अटूट श्रद्धा क्यों नहीं रखते?
श्रेष्ठ कुल, आपसी प्रेम, लंबी उम्र, अच्छा स्वास्थ्य, मनचाहा संयोग, सुपुत्र की प्राप्ति, घर में लक्ष्मी का वास, मुख में सरस्वती, बल-ताकत, हाथ में दान देने की शक्ति, शरीर में सौभाग्य, अच्छी बुद्धि और दूर तक फैली कीर्ति, यह सब धर्म के प्रभाव से ही मिलता है।
दुनिया में कोई भी श्रेष्ठ चीज ऐसी नहीं है जो धर्म के बिना मिले। जो काम बहुत कोशिश के बाद भी पूरा नहीं होता, वह भी तप और धर्म से जल्दी हो जाता है। कभी होशियार वैद्य (Doctor) भी जिस रोग को ठीक नहीं कर पाते, वह भी भाव-धर्म से मिट जाता है।
अनाथी मुनि इसका जीवित उदाहरण हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि धर्म के प्रभाव से मुझे जरूर पुत्र मिलेगा और इससे मेरे श्रावक को, मेरे पति को शांति, संतोष और खुशी मिलेगी।’ इस तरह सोचकर सुलसा ने धर्म-कार्य के लिए मजबूत निश्चय किया।
उसने उत्कृष्ट द्रव्यों से जिनेश्वर भगवान की त्रिकाल यानी तीनों Time पूजा करना शुरू की, सुपात्रदान द्वारा गुरु भगवंतों की भक्ति भी की, चतुर्विध संघ की आदरपूर्वक सेवा की, जमीन पर सोना और आयंबिल तप करना भी शुरू किया।
उसके मन में महावीर प्रभु के प्रति पहले से ही गहरी श्रद्धा तो थी ही, लेकिन अब वह श्रद्धा और भी ज्यादा बढ़ गई। अब कोई भी देवता प्रभु पर से सुलसा की आस्था और श्रद्धा को डिगा नहीं सकता था।
सुलसा की परीक्षा
एक बार देवलोक में सौधर्म इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे। उन्होंने अपने ज्ञान के उपयोग से सुलसा की Unbreakable श्रद्धा और धर्म आराधना को देखा और अपनी सभा में सुलसा की प्रशंसा करते हुए कहा
‘अहो। सुलसा का शील कितना पवित्र है। प्रभु महावीर के प्रति उसका कितना मजबूत समर्पण है। देव, गुरु और धर्म के प्रति उसकी कितनी अद्भुत श्रद्धा है। कोई साधारण मानव तो क्या, बहुत शक्तिशाली देव भी सुलसा को डिगा नहीं सकता।’
इन्द्र के मुंह से सुलसा के गुणों की तारीफ सुनकर सभी सम्यग्दृष्टि देव बहुत प्रसन्न हुए लेकिन हरिणगमैषी देव के मन में सुलसा की परीक्षा लेने का विचार आया।
वह देवलोक छोड़कर सीधे पृथ्वीलोक में आ गया और साधु का रूप लेकर वह सुलसा के महल के दरवाजे पर पहुंचा और जोर से “धर्मलाभ” कहा। जैसे ही सुलसा ने “धर्मलाभ” की आवाज सुनी, वह दरवाजे पर आ गई।
साधु को देखकर उसने बहुत ही आदर और श्रद्धा से हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बोली ‘पधारिए। पधारिए। आज मैं धन्य हो गई हूं, आज मेरा आंगन पवित्र हो गया है।’
आज जब महात्मा दरवाजे पर धर्मलाभ कहते हैं तो क्या हाल होता है अपने अपने घर की स्थिति सब जानते ही है।
सुलसा ने उन साधु रुपी देव को गोचरी के लिए विनती की। साधु ने कहा ‘हे श्राविका। मुझे खाने पीने की कोई चीज नहीं चाहिए। मेरे साथी मुनि बीमार हैं। वैद्य (Doctor) ने कहा है कि उन्हें लक्षपाक नामक तेल से मालिश करनी चाहिए। अगर तुम्हारे पास वह तेल हो तो वही चाहिए।’
Note : लक्षपाक तेल एक Medicinal Oil होता था, जो कि बहुत ही Costly और कीमती होता था जो एक लाख बार पकाया जाता था इसलिए उसका नाम लक्ष यानी लाख और पाक यानी पकाना, लक्षपाक था।
इस तेल की कीमत उस जमाने में 1 लाख सोने के सिक्के की थी।
लक्षपाक तेल
यह सुनकर सुलसा सोचने लगी ‘अहो। मेरा कितना सौभाग्य है। इस अनमोल चीज का इससे बढ़कर और क्या उपयोग हो सकता है।’ यह सोचकर वह तुरंत अपने कमरे में गई और लक्षपाक तेल का घड़ा लेकर आ गई।
लेकिन साधु के रूप में रहे देव ने सुलसा की श्रद्धा को Test करने के लिए वह घड़ा अपनी शक्ति से गिरा दिया। महंगा तेल जमीन पर फैल गया। उसी समय साधु रुपी देव बोले ‘अहो। बहुत नुकसान हो गया। मैं अब कहीं और से तेल ले लूंगा।’
सुलसा ने कहा ‘नहीं भगवंत। आप चिंता मत कीजिए। अगर साधु भगवंत के रोग को ठीक करने में मेरे तेल का उपयोग होता हो तो इससे बढ़कर कोई अच्छा उपयोग नहीं हो सकता। मेरे पास और भी घड़े हैं। कृपा करके रुकें, मैं और तेल ले आती हूं।’
इतना कहकर वह फिर अपने कमरे में गई और दूसरा घड़ा उठाकर लाई लेकिन देव ने अपनी शक्ति से वह भी गिरा दिया। दूसरा घड़ा टूटने पर साधु बोले ‘बहुत बड़ा नुकसान हो गया। यह लक्षपाक तेल बहुत कीमती होता है।
आपका दूसरा घड़ा भी टूट गया है, अब रहने दो, मैं कहीं और से ले लूंगा।’ सुलसा बोली ‘नहीं मुनिवर। मेरे पास एक और घड़ा है।’ इतना कहकर वह फिर अपने महल के अंदर गई और तीसरा घड़ा लेकर आई।
देव ने वह घड़ा भी गिरा दिया लेकिन आश्चर्य यह था कि सुलसा के मन में तेल नीचे गिरा उसका जरा भी दुख नहीं हुआ। उसे सिर्फ इस बात का दुख था कि मुनि भगवंत की सेवा में वह तेल काम नहीं आ सका।
वह बोली ‘हे मुनिराज। मैं कितनी अभागिन हूं कि मेरी चीज आपके काम नहीं आ सकी।’ उसी समय वहां का दृश्य बदल गया। साधु की जगह सुलसा ने अपनी आंखों के सामने एक बहुत ही तेजस्वी और सुंदर देव को देखा।
देव का वरदान
देव के अद्भुत रूप और चमक को देखकर सुलसा बहुत हैरान हो गई। तब हरिणगमैषी देव ने कहा ‘हे श्राविका। मैं सौधर्म देवलोक का देव हूं। आज ही इन्द्रसभा में सौधर्म इन्द्र ने तुम्हारी धर्मनिष्ठा की खूब तारीफ़ की थी।
वह सुनकर मैं तुम्हारी परीक्षा लेने यहां आया था। मैंने ही साधु का रूप धारण किया था और तुम्हारे लक्षपाक तेल के घड़े मैंने ही फोड़े थे। तुम मेरी परीक्षा में पूरी तरह सफल हुई हो। तुम्हें लाख-लाख धन्यवाद। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। जो चाहे वो मांग लो।’
सुलसा के दिल में इस संसारिक सुख की कोई चाह नहीं थी लेकिन अपने पति नाग की शांति और खुशी के लिए उसने कहा ‘हे देव! आप तो सब जाननेवाले हैं। आप मेरे दिल की बात भी जानते हैं।’
देव ने कहा ‘हाँ। मुझे तुम्हारी इच्छा का पता है। तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी होगी। मैं तुम्हें 32 गोलियां देता हूं। इन्हें एक-एक करके खाना। इनके प्रभाव से तुम्हें 32 पुत्र प्राप्त होंगे। कभी भी जरूरत हो तो मुझे याद करना।’
इतना कहकर वह देव वहां से चला गया।
नाग सारथी के मन में पुत्र प्राप्ति की बहुत गहरी इच्छा थी लेकिन सुलसा के दिल में संतान पाने की कोई खास इच्छा नहीं थी। सुलसा का यह मानना था कि ‘मरते समय बेटा किसी को बुरी गति से नहीं बचा सकता।
जिनके कई बेटे थे, ऐसे चक्रवर्ती आदि भी मरकर नरक में चले गए। धर्म आचरण के बिना चाहे कितने भी बेटे हों, आत्मा को स्वर्ग या मोक्ष नहीं मिलता।’
हरिणगमैषी देव द्वारा दिए गए पुत्र प्राप्ति के वरदान की बात सुलसा ने अपने पति नाग को बताई। पुत्र के वरदान की बात सुनकर नाग सारथी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
सुलसा की सोच
एक दिन सुलसा ने सोचा ‘देव ने मुझे 32 पुत्रों का वरदान दिया है। लेकिन इतने पुत्रों का मैं क्या करूंगी? ज्यादा बेटे होंगे तो वे मेरी धर्म आराधना और प्रभु भक्ति में रुकावट डालेंगे।
मुझे 32 बेटे नहीं चाहिए, मुझे तो 32 लक्षणों से युक्त एक ही बेटा हो तो भी काफी है। आकाश में बहुत तारे होते हैं, लेकिन एक चंद्रमा ही सारा अंधेरा दूर करता है। हजारों गायों के बीच एक कामधेनु गाय ही मनोकामना पूरी करने के लिए काफी है।
काँच के हजारों टुकड़ों के बजाय एक चिंतामणि रत्न ही बहुत होता है। उसी तरह मुझे तो बस एक ही श्रेष्ठ बेटा चाहिए।’ ऐसा सोचकर सुलसा ने देव द्वारा दी हुई वो 32 गोलियां एक साथ खा ली।
देव द्वारा दी गई उन गोलियों के असर से सुलसा के पेट में 32 गर्भ बन गए। धीरे-धीरे गर्भ में बच्चे बड़े होने लगे और उसके साथ ही सुलसा की पीड़ा भी बढ़ने लगी। एक साथ 32 बच्चों के गर्भ में होने से सुलसा को बहुत दर्द होने लगा।
उसने उसी समय देव को याद किया और देव तुरंत आ गया। देव ने पूछा ‘हे सुलसा श्राविका, मुझे क्यों याद किया?’ सुलसा ने अपनी तकलीफ बताई। देव ने कहा ‘हे देवी। यह क्या कर दिया? मैंने तो एक-एक करके गोलियां खाने को कहा था, पर आपने सारी एक साथ खा ली।
अब जो बच्चे पैदा होंगे वे सब एक जैसे आयुष्य वाले होंगे। एक की मौत में सबकी मौत हो जाएगी। अगर आपने एक-एक करके गोलियां ली होती तो सबके पास अलग-अलग जीवनकाल, ताकत और विद्या होती।’
सुलसा ने कहा ‘आपकी बात सही है लेकिन अब जो होना था वह हो गया। इस दुनिया में सभी जीव अपने कर्मों के हिसाब से सुख-दुख भोगते हैं। जिसकी जैसी किस्मत होती है, वैसा ही होता है। उसमें कोई भी कुछ बदल नहीं सकता।
हे देव। मुझे न खुशी है न दुख। क्योंकि बुद्धि भी कर्म के अनुसार चलती है। अगर आपको सही लगे तो मेरी यह असहनीय पीड़ा दूर कर दीजिए।’ सुलसा का Attitude देखिए। जो होना था वह हो गया। अब आगे क्या करना है उस पर Focus है।
हम एक बात को लेकर इतना बैठ जाते हैं कि दूसरा कुछ सूझता ही नहीं और उस एक बात को दिमाग में इतना खीचेंगे इतना खीचेंगे कि वही बात Depression तक ले आती है। कर्म सिद्धांत सब Problems का Ultimate Solution है।
सुलसा की इस प्रार्थना को सुनकर देव ने दैवीय शक्ति से उसकी पीड़ा तुरंत दूर कर दी। धीरे-धीरे समय बीतने लगा और धर्म आराधना करते हुए सुलसा ने गर्भ का अच्छे से पालन-पोषण किया और एक शुभ दिन सुलसा ने एक साथ 32 पुत्रों को जन्म दिया।
नाग सारथी ने बड़े धूमधाम से बेटों के जन्म का उत्सव मनाया। नाग सारथी ने अपने बेटों के नाम देवदत्त आदि रखे।
धीरे-धीरे वे बच्चे बड़े हुए और बहुत कम समय में वे सभी कलाओं में यानी Skills में Expert बन गए और एक दिन नाग सारथी ने अपने 32 बेटों का विवाह 32 सुंदर, गुणवती श्रेष्ठी कन्याओं से कर दिया।
यहाँ Episode 01 पूरा होता है लेकिन इस कथा से हमें कई चीजें सीखने को मिलती हैं।
Moral Of The Story
1. श्रावक श्राविकाओं में भी ऐसा Power हो सकता है कि वो देव-देविओं को भी अपनी आराधना के बल से धरती पर उतार सकते हैं।
श्रावक श्राविकाओं की श्रद्धा के समक्ष देव-देवियाँ भी अपना सर झुका देते हैं। आज हर चीज़ पर बिना Logic के प्रश्न उठानेवाले हमारी श्रद्धा कितनी?
2. 3 बार घड़े फुट जाने के बाद भी सुलसा श्राविका की वहोराने की भावना थोड़ी सी भी कम नहीं हुई।
अगर हमारी महँगी चीज़ गुरु भगवंत को वहोराते वक्त टूट जाए-बिगड़ जाए-गिर जाए, तो हमारे भाव क्या वैसे के वैसे रहेंगे? क्या अन्दर पड़ी वो ही चीज़ दूसरी बार उसी भाव से हम बाहर लाएंगे? या फिर हमारे भाव.. भाव देखेंगे?
3. धर्म के प्रभाव से हर चीज की प्राप्ति होती है। धर्म उन चीजों की प्राप्ति के लिए भले किया जाए या नहीं किया जाए वह अलग विषय है पर फल तो धर्म का मिलता ही है और वह है पुण्य कि जो संसार में टिकने के लिए Heart जैसा है।
4. सब कुछ होने के बाद भी अगर एक चीज ना हो तो कितना दुख होता है?
वह हमने नाग श्रावक के जीवन से देखा और इसलिए जिसे सब मिला है उसे उस चीज की Value समझनी चाहिए और अगर सब कुछ हो पर धर्म ना हो तो सबका होना भी Zero ही है।
5. कुछ पवित्र श्रद्धा से भरी हुई आत्मा ऐसी होती है कि जिसकी प्रशंसा इंद्र महाराजा से भी हो जाती है यानी कि हमें खुद की गुण समृद्धि इतनी बढ़ानी चाहिए कि जिससे प्रशंसा की इच्छा के बिना भी लोगों को प्रशंसा करने का मन हो।
देव ने कहा था कि एक की भी मृत्यु हो जाए तो सबकी मृत्यु हो जाएगी.. क्या अगले Episode में ऐसा कुछ होगा? और अगर होता है तो क्या सुलसा श्राविका अपनी श्रद्धा टिका पाएगी?
क्योंकि सामान्य तौर पर एक झटका लगते ही व्यक्ति धर्म पर ठीकरा फोड़ देता है कि इतना धर्म किया फिर भी दुःख आया आज से धर्म बंद। तो यहाँ पर तो 32 पुत्रों की बात थी।
क्या सुलसा ऐसा कुछ करेगी? जानेंगे अगले Episode में।