The Shocking End Of Mahasati Sulsa’s 32 Sons | Episode 02

आखिर कैसे हुई महासती सुलसा के 32 पुत्रों की अकाल मृत्यु?

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By Jain Media 55 Views 22 Min Read

 प्रस्तुत है, महासती सुलसा की अद्भुत कथा का Episode 02.
बने रहिए इस Article के अंत तक।

तापसी का षड़यंत्र

वैशाली नगर में महाराज चेटक का राज था। महाराजा चेटक भगवान महावीर स्वामी के मामा थे और उनके भक्त भी। वे एक आदर्श श्रावक थे। उनकी रानी का नाम प्रथा था और उनकी कुल सात बेटियां थी। 

पहली बेटी प्रभावती का विवाह वीतभयनगर के राजा उदयन से हुआ था, दूसरी बेटी पद्मावती का विवाह चंपानगरी के राजा दधिवाहन से हुआ था, तीसरी बेटी मृगावती का विवाह कोशांबी के राजा शतानीक से हुआ था। 

चौथी बेटी शिवा का विवाह उज्जैनी के राजा चंडप्रद्योत से हुआ था, पांचवीं बेटी ज्येष्ठा का विवाह कुंडपुर के युवराज नंदिवर्धन से हुआ था। सुज्येष्ठा और चेलना का विवाह बाकी था। 

दोनों राजकुमारियों में गहरा प्रेम था और वे सभी कलाओं में Expert थी। एक दिन एक तापसी दोनों राजकुमारियों के पास आई। दोनों राजकुमारियां अपने आसन से उठ गईं और पूछा ‘आप यहां कैसे आई?’ 

तापसी बोली ‘मैं तुम्हें सच्चा धर्म बताने आई हूं।’ राजकुमारियों ने कहा ‘कौनसा धर्म?’ तापसी ने कहा ‘शौच यानी स्वच्छता यानी हर जगह पर हाथ-पैर धोना, और मन को Fresh रखना ही असली धर्म है, उसी से सारे पाप मिटते हैं।’ 

तब सुज्येष्ठा ने कहा 

जिनेश्वर ने कहा है कि अहिंसा और दया ही असली धर्म है। दया ही धर्म के पेड़ की जड़ है। दया के बिना धर्म कैसे होगा? कड़वी तुंबड़ी यानी तुरिया को तीर्थ के पानी से धोने पर भी वह मीठी नहीं होती। उसी तरह केवल शरीर की सफाई से आत्मा का कल्याण नहीं होता। 

सुज्येष्ठा ने इस तरह कई तर्क देकर तापसी की बात का खंडन किया और दासियों को आदेश दिया कि उसे बाहर निकाल दो। तापसी इस अपमान को सहन नहीं कर पाई और बहुत गुस्सा हो गई। उसने बदला लेने की ठानी और सोचते-सोचते उसे एक योजना सूझ गई।

तापसी ने सुज्येष्ठा को फंसाने के लिए लकड़ी के पट्टे पर उसका सुंदर चित्र बनाया और उसे लेकर राजगृही नगरी के श्रेणिक महाराजा के महल गई और महाराजा को सुज्येष्ठा का चित्र दिखाया। 

श्रेणिक की इच्छा 

सुज्येष्ठा का चित्र दिखाकर श्रेणिक राजा मोहित हो गए। श्रेणिक महाराजा ने पूछा ‘यह कौन है? कोई नागकन्या या रति जैसी देवी? सच बताओ, यह किसका चित्र है?’ 

तापसी ने कहा ‘यह कोई देवी नहीं है। यह तो चेटक महाराजा की बेटी सुज्येष्ठा का चित्र है। असली रूप तो इससे भी ज्यादा सुंदर है और वह आपके योग्य है।’ यह कहकर तापसी वहां से चली गई। 

श्रेणिक महाराजा किसी भी तरह से सुज्येष्ठा को पाने की इच्छा करने लगे। उन्होंने एक दूत को वैशाली भेजा। दूत ने वैशाली की राजसभा में जाकर कहा ‘हे राजन्। मैं राजगृही से श्रेणिक महाराजा का संदेश लेकर आया हूं। श्रेणिक महाराजा आपकी बेटी सुज्येष्ठा से विवाह करना चाहते हैं।’ 

चेटक राजा ने कहा ‘यह नहीं हो सकता। तुम्हारे महाराजा वाहीक कुल के हैं। मेरे हैस्त्यवंश की बेटी का विवाह उनसे नहीं हो सकता। तुम यहां से चले जाओ।’ अपमानित होकर वह दूत लौट आया और सारी बात श्रेणिक महाराजा को बता दी। 

यह सुनकर श्रेणिक बहुत दुखी हो गए। यह देखकर अभयकुमार ने कहा ‘पिताजी। कुछ काम ताकत से होते हैं और कुछ बुद्धि से। चेटक राजा बलवान है और अपने कुल का अभिमानी भी है। 

वह सीधे से तो बेटी नहीं देगा। इसके लिए कोई और तरीका निकालना होगा। आप चिंता न करें, मैं कोई उपाय सोचता हूँ।’ अभयकुमार ने गहराई से सोचकर एक योजना बनाई। 

अभयकुमार की योजना 

उसने राजगृही के चित्रकार से श्रेणिक महाराजा का बहुत सुंदर चित्र बनवाया और फिर गुटिका यानी चमत्कारिक गोली के असर से अभयकुमार ने अपना रूप और आवाज बदल ली और व्यापारी का वेश धारण कर लिया। 

वह वैशाली आकर राजमहल के पास ही अपनी दुकान खोलकर बैठा। वहां वह शरीर की सजावट के लिए सुगंधित और सुंदर चीजें बेचने लगा। उसके मधुर और विनम्र व्यवहार से महल की कई दासियां उससे सामान लेने आने लगी। 

एक दिन सुज्येष्ठा की दासी भी सामान लेने आई। तभी अभयकुमार श्रेणिक के चित्र की पूजा करने लगे। दासी ने वह चित्र देखा और बहुत प्रभावित हुई। उसने पूछा ‘यह किसका चित्र है?’ 

अभयकुमार ने कहा ‘यह राजगृही के सम्राट श्रेणिक महाराजा का चित्र है। मैं उन्हें अपना आराध्य (Idol) मानता हूं।’ दासी ने जाकर सुज्येष्ठा को यह बात बताई और सुज्येष्ठा के मन में चित्र देखने की इच्छा हुई । 

दासी ने यह बात अभयकुमार से कही। अभयकुमार ने अपना Plan Successful होते हुए देखकर कहा ‘मैं यह चित्र देने के लिए तैयार हूं, लेकिन यह बात राजा को पता नहीं लगनी चाहिए।’ 

अभयकुमार ने वह चित्र कपड़े में लपेटकर दासी को दे दिया। दासी ने जाकर वह चित्र सुज्येष्ठा को दिया। चित्र देखकर सुज्येष्ठा बहुत प्रभावित हुई और उसने मन ही मन ठान लिया ‘अगर मैं विवाह करूंगी तो श्रेणिक महाराजा से ही करूंगी, किसी और से नहीं।’

सुज्येष्ठा की दासी ने यह बात अभयकुमार को बताई और कहा ‘राजकुमारी ने अपने मन में श्रेणिक महाराजा को पति मान लिया है। आप कुछ भी उपाय कर यह विवाह करवाइए।’ 

Kidnapping

अभयकुमार ने कहा ‘राजकुमारी अपने फैसले में अडिग तो रहेगी न? महाराजा चेटक अपनी बेटी को सीधे तो देंगे नहीं। एक ही उपाय है राजकुमारी का अपहरण यानी Kidnap करना। इसके लिए पूरी तैयारी करनी होगी और यह बात छुपाकर रखनी जरूरी होगी। 

मैं राजमहल के पास एक सुरंग (Tunnel) खुदवाऊंगा और उसी सुरंग के रास्ते से श्रेणिक महाराजा आएंगे और राजकुमारी को लेकर जाएंगे।’ दासी ने जाकर सुज्येष्ठा को पूरी योजना समझाई और सुज्येष्ठा भी मान गई। वह किसी भी हाल में श्रेणिक को पाना चाहती थी। 

अभयकुमार ने भी अपनी दुकान बंद कर दी और राजगृही लौट गए। वहां पहुंचकर अभयकुमार ने भी अपने पिता श्रेणिक महाराजा को भी पूरी योजना अच्छे से समझा दी। इधर वैशाली से लेकर राजमहल तक गुप्त सुरंग यानी Tunnel खोदने का काम शुरू हुआ। 

कुछ ही दिनों में वह सुरंग बनकर तैयार हो गई। 

अभयकुमार ने महासती सुलसा के 32 पुत्रों को श्रेणिक महाराजा के अंगरक्षक यानी Bodyguard बनाया क्योंकि वे सभी 32 युवान बहुत बहादुर और War Situation में Expertise रखनेवाले थे। 

एक शुभ दिन श्रेणिक महाराजा ने राजगृही से वैशाली की तरफ जाना शुरू किया। सबसे आगे सुलसा के 32 पुत्रों के रथ थे और सबसे पीछे श्रेणिक महाराजा का रथ था। सुरंग से निकलकर सभी रथ बाहर आ गए। 

इधर, सुज्येष्ठा ने अपनी बहन चेलना को सब बातें बता दीं तो चेलना भी श्रेणिक से विवाह करने के लिए तैयार हो गई। दोनों बहनें भी रथ में बैठने के लिए तैयार थी। सबसे पहले चेलना रथ में बैठ गई। 

सुज्येष्ठा भी रथ में बैठने जा रही थी लेकिन अचानक उसे अपने रत्नों की पेटी याद आ गई। उसने श्रेणिक से कहा ‘मैं अपनी पेटी लेकर आती हूं, तब तक आप रुको।’ थोड़ी देर बीतने पर अंगरक्षक चिंतित होने लगे। 

32 पुत्रों की मृत्यु

उन्होंने कहा ‘राजन्। शत्रु के घर में ज्यादा देर तक रुकना अच्छा नहीं है, जल्दी चलना चाहिए।’ यह सुनकर श्रेणिक ने सोचा ‘सुज्येष्ठा तो रथ में बैठ गई है, चेलना राजकुमारी पीछे रह गई है लेकिन अब ज्यादा रुकना ठीक नहीं होगा।’ 

उन्होंने सारथी को आज्ञा दी ‘रथ चलाओ।’ श्रेणिक महाराजा को यह गलत फेहमी हो गई कि चेलना-सुज्येष्ठा है। इधर कुछ देर बाद सुज्येष्ठा अपनी पेटी लेकर वहां आई, लेकिन वहां पर न तो श्रेणिक का रथ था और न ही अंगरक्षकों के रथ। 

यह देखकर वह घबरा गई और सोचने लगी ‘हाय। मैं रह गई और चेलना चली गई?’ वह जोर-जोर से रोने लगी और फिर भागकर राजमहल में अपने पिताजी के पास गई और बोली ‘पिताजी। पिताजी। चेलना का अपहरण हो गया है।’ 

चेलना के अपहरण की बात सुनकर चेटक महाराजा बहुत गुस्से में आ गए। उन्होंने तुरंत हथियार उठाए और रथ में सवार होकर सुरंग की तरफ जाने लगे। तभी उनके सेनापति ने कहा ‘राजन्। आपको खुद जाने की जरूरत नहीं है। मैं शत्रु को हराकर चेलना को वापस ले आऊंगा।’

चेटक महाराजा को सेनापति के साहस और ताकत पर पूरा भरोसा था, इसलिए वे वहीं रुक गए और सेनापति को जाने दिया। सेनापति ने सुरंग में प्रवेश किया लेकिन श्रेणिक का रथ सबसे आगे था, इसलिए वह उस पर हमला नहीं कर सका। 

उसने श्रेणिक के एक अंगरक्षक पर बाण चलाया और उसे मार डाला। पर यह क्या। जैसे ही सुलसा का एक बेटा मरा, बाकी 31 बेटे भी एक साथ वहीं गिरकर मर गए। देव ने सुलसा को जो कहा था वही हुआ। महासती सुलसा के सभी 32 पुत्रों की मृत्यु एक साथ हो गई। 

चेटक राजा का सेनापति सुरंग से वापस लौट आया और राजा को बताया ‘राजन्। श्रेणिक का रथ राजगृही की सीमा में पहुंच गया था और वहां उसकी विशाल सेना तैयार खड़ी थी। इसलिए मैं चेलना को वापस नहीं ला सका।’ 

संयम स्वीकार 

जब सुज्येष्ठा को यह खबर मिली कि सेनापति बिना चेलना को लिए लौट आया है तो उसे बहुत गहरा आघात लगा। वह सोचने लगी ‘हाय। मेरे दुर्भाग्य की कोई सीमा नहीं है। जिस श्रेणिक को पाने के लिए मैंने इतना बड़ा जोखिम उठाया, उसी को मैं नहीं पा सकी। 

अभयकुमार ने इतनी बड़ी गुप्त सुरंग बनवाई और मैं इतनी अभागिन हूं कि श्रेणिक का हाथ पकड़ न सकी। अब इस जीवन में मैं किसी और को नहीं चुनूंगी। मैं महावीर प्रभु के चरणों में जाकर दीक्षा लेकर अपना जीवन धन्य बनाउंगी।’

एक अच्छे अवसर पर सुज्येष्ठा ने अपने दिल की बात अपने पिताजी से कह दी। उसकी दृढ़ भावना देखकर चेटक महाराजा और महारानी को आश्चर्य हुआ लेकिन उसकी इच्छा देखकर उन्होंने खुशी से उसे अनुमति दे दी। 

एक शुभ दिन सुज्येष्ठा ने प्रभु महावीर के हाथों से रजोहरण लेकर दीक्षा जीवन स्वीकार किया और जैन साध्वीजी बनी। उसने संयम और धर्म का पालन करके अपनी आत्मा का कल्याण किया। 

राजा श्रेणिक का दुःख

सुरंग के रास्ते से जब महाराजा श्रेणिक का रथ राजगृही नगरी में पहुंच गया, तब श्रेणिक राजा ने कहा ‘सुज्येष्ठा। राजगृही आ गया है, रथ से नीचे उतरो।’ यह सुनकर चेलना ने कहा ‘हे स्वामी। मैं सुज्येष्ठा नहीं हूं, मेरा नाम चेलना है। मैं सुज्येष्ठा की छोटी बहन हूं।’ 

श्रेणिक ने चौंककर पूछा ‘तो सुज्येष्ठा कहां है?’ चेलना ने कहा ‘नाथ। हम दोनों ने दिल से आपको ही वर चुना था। हम दोनों रथ में बैठने के लिए तैयार थीं लेकिन सुज्येष्ठा अपनी रत्नों की पेटी भूल गई थी। वह उसे लेने के लिए गई और तभी यह स्थिति बन गई। वह पीछे रह गई।’ 

यह सुनकर श्रेणिक ने गहरी सांस ली और कहा ‘सुज्येष्ठा पीछे रह गई। आखिर जो किस्मत में लिखा होता है, वही होता है।’ फिर उन्होंने चेलना को अपने महल में भेज दिया। 

इसके बाद श्रेणिक ने अभयकुमार को बुलाकर पूछा ‘अब तक सुरंग से सुलसा के पुत्र अंगरक्षक क्यों नहीं आए?’ अभयकुमार ने कहा ‘पिताजी। मैं अभी जाकर देखता हूं।’ 

अभयकुमार तुरंत सुरंग तक पहुंछे और वहां जाकर उन्होंने देखा कि सारे अंगरक्षक मर गए हैं। यह देखकर उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा। वह वापस लौटकर श्रेणिक महाराजा के पास गए और उन्हें यह दुखद समाचार दे दिया। 

यह सुनकर श्रेणिक को बहुत गहरा दुख हुआ। श्रेणिक राजा सोचने लगे ‘मेरी अंधी मोह-ममता को धिक्कार है। मेरे कारण ही सुलसा के 32 बेटों की एक साथ मौत हुई है। अगर मैं अपने गुस्से में वैशाली पर हमला भी कर दूं, तो भी इससे क्या फायदा होगा? सुलसा के 32 बेटों को तो मैं वापस नहीं ला सकता हूँ।’ 

यह सोचकर श्रेणिक महाराजा अत्यंत दुखी हो गए। अभयकुमार ने कहा ‘पिताजी। अब हमें दो जरूरी काम करने हैं। पहला-सुलसा के बेटों के मृत शरीर उसके महल तक पहुंचाना और दूसरा नाग सारथी और सुलसा को उनके बेटों की मौत की खबर देना।’

महाराजा श्रेणिक ने कहा ‘सुलसा तो धर्मात्मा है, शायद वह यह दुख सह लेगी लेकिन नाग सारथी और उसकी बहुओं की क्या हालत होगी? वे यह आघात कैसे सह पाएंगे?’ इसके बाद श्रेणिक और अभयकुमार दोनों रथ में सवार होकर सुलसा के महल की ओर चल पड़े। 

सुलसा का विलाप 

महाराजा और महामंत्री को अचानक अपने महल के दरवाजे पर आते देखकर नाग सारथी को बहुत आश्चर्य हुआ। वह हाथ जोड़कर बोला ‘राजन्। आपका स्वागत है। आपके आने से मेरा आंगन पवित्र हो गया।’

कुछ बातें करने के बाद अभयकुमार ने धीरे से कहा ‘वैशाली से लौटते समय शत्रु ने तुम्हारे एक बेटे पर हमला करके उसे मार डाला। लेकिन दुर्भाग्य से उसके साथ ही तुम्हारे बाकी सभी बेटे भी मर गए।’ 

यह सुनते ही नाग जैसे पत्थर का हो गया और जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर बाद होश आने पर वह जोर-जोर से विलाप करने लगा-रोने लगा। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी। 

इधर जैसे ही सुलसा को अपने 32 बेटों की एक साथ मौत की खबर मिली, वह भी बेहोश होकर गिर पड़ी। थोड़ी देर बाद उसे होश आया तो वह भी रोने लगी। 

वह कहने लगी ‘हाय। मैं कितनी अभागिन हूं। मेरे पुत्रों। तुम मुझे छोड़कर कहां चले गए? अब कौन मुझे मां कहकर पुकारेगा? हे दुर्भाग्य। तूने मेरी 32 बहुओं को एक साथ विधवा कर दिया। सच तो यह है कि इस मौत का कारण मैं ही बनी हूं। 

देव ने मुझे एक-एक करके खाने के लिए 32 गोलियां दी थीं, लेकिन मैंने उन्हें एक साथ खा लिया। इसलिए एक की मौत के साथ ही सब मर गए।’ जब उनकी बहुओं को भी अपने पतियों की मौत की खबर मिली तो वे भी बेहोश होकर गिर पड़ी। 

अभयकुमार के हीतवचन 

होश में आने पर वे भी खूब रोने लगी और विलाप करने लगी। अभयकुमार ने सभी को शांत करने की कोशिश की और कहा ‘आप सब तो समझदार और धर्म को जाननेवाले हो। जैन धर्म में बताया गया है कि यह संसार की सभी चीजें एक दिन नष्ट होनेवाली ही हैं। 

इसलिए ऐसे शोक करना उचित नहीं है। ज्ञानी महापुरुषों ने इस संसार के पदार्थों की तुलना इन्द्रजाल, इंद्रधनुष, हाथी के कान, और संध्या के रंग से की है। यह सब दिखने में सुंदर लगते हैं लेकिन टिकते नहीं हैं। 

मनुष्य का जीवन भी समुद्र की लहरों जैसा चंचल और अस्थिर होता है। संसार में मृत्यु तो स्वाभाविक है। जीवन का अंत मृत्यु ही है। जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है। 

बहन सुलसा। आप तो तत्व को जानती हो। आप भगवान महावीर की भक्त हो। संसार में जन्म लेनेवाले को एक दिन मरना ही पड़ता है। माता-पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी और बहू, ये सभी रिश्ते असली नहीं हैं। ये सब कर्म के कारण बने होते हैं। 

जैसे धर्मशाला में यात्री कुछ समय के लिए इकट्ठा होते हैं और फिर अलग-अलग दिशाओं में चले जाते हैं, वैसे ही मौत के साथ सब अपने-अपने कर्मों के अनुसार अलग हो जाते हैं।’

सुलसा ने आंसू पोंछते हुए कहा ‘मंत्रीश्वर। आपकी बातें सही हैं। मैं भी संसार के असली स्वरूप को जानती हूं लेकिन बेटों की अकाल मृत्यु का जो दुख है, वह मेरे लिए बहुत भारी हो गया है।’ इतना कहकर सुलसा और उसकी बहुएं फिर से रोने लगी।

अभयकुमार ने वापस सुलसा आदि सभी को समझाते हुए कहा ‘बहन सुलसा। आप तो भगवान महावीर की परम भक्त हो। आपको उपदेश देना मेरे लिए भी शर्म की बात है। यह पूरा संसार सपने जैसा ही है। इन रिश्तों के लिए इतना रोना कहां तक ठीक है?’ 

अभयकुमार की दिल से कही बातें सुनकर सुलसा को थोड़ी सांत्वना मिली और उसका शोक थोड़ा कम हुआ। फिर श्रेणिक और अभयकुमार अपने महल लौट गए। उन 32 बेटों की विधिपूर्वक अंतिम क्रिया की गई। 

समय के साथ नाग सारथी और उनकी बहुओं का शोक भी थोड़ा कम हुआ। पुत्रों की अकाल मृत्यु के बाद सुलसा धर्म आराधना में और भी जुड़ गई। उसे यह संसार बिल्कुल बेकार और अस्थिर लगने लगा। 

यहाँ पर Ep 2 पूरा होता है लेकिन महासती सुलसा के जीवन से जुडी इस घटना से हमें बहुत कुछ सीखने जैसा है। 

Moral Of The Story

1. भाग्य में लिखा हुआ लेख कोई भी मिटा नहीं सकता। सुज्येष्ठा को लेकर जाने के लिए आया हुआ राजा चेलणा को ले गया और सुज्येष्ठा के जीवन में वैसे देखें तो इस कारण से वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा ली। 

कब? क्या? घटना होती है और वैराग्य जगता है, वह निश्चित नहीं है। 

2. क्षायिक सम्यक्त्व जिनको प्राप्त होने वाला है, वैसे भी जीव उसी भव में Kidnapping करने जैसा कार्य कर्म के वश होकर कर लेते हैं। 

पर कर्म के कारण होने वाली चीजों को “यह जीव ने किया है” ऐसा मानकर उस जीव का धिक्कार करना, उसका तिरस्कार करना, कितना उचित है? वह सोचने जैसा है। 

3. बहुत सारी जगह पर काम बल से नहीं पर कल यानी बुद्धि से करना पड़ता है। कल की जगह बल से काम करने पर व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त तो नहीं ही होता पर उसे मुंह की खानी पड़ती है यानी उसकी इज्जत का कचरा होता है। 

4. सुलसा जैसी दृढ़ श्रद्धावाली श्राविका भी पुत्र मरण का शोक करती है, यही चीज बताती है कि दीक्षा जीवन कितना मुश्किल है क्योंकि दीक्षा लेने के लिए सभी संबंधों से दूर होना पड़ता है। 

यह छोटी बात नहीं है बहुत सारी दीक्षाएं आज भी हो रही है, तो दीक्षा Actual में कितनी Hard है, Tough है वह समझने की जरूरत है। 

5. उन 32 पुत्रों ने भी पूर्वभव में कैसा कर्म बांधा होगा? एक साथ जन्म लेना, एक साथ बढ़ना और एक साथ मरना। 

Air India जैसे हादसे कि जहां पर सामूहिक मृत्यु होती है, वहां पर पूर्वभव कुछ अलग ही प्रकार का कर्म काम करता है। इसलिए सामूहिक पाप करने से पहले 1 या 2 नहीं बल्कि 100 या 1000 बार सोचना चाहिए।

Ep 1 में हमने जाना था कि महासती सुलसा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करेंगी, यानी भविष्य में तीर्थंकर बनेंगी.. लेकिन कैसे? जानेंगे अगले Episode में। 

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