Mahasati Sulsa’s Test of Faith That Shocked Everyone – Episode 03

क्यों लिया था प्रभु महावीर ने समवसरण में सुलसा का नाम?

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By Jain Media 15 Min Read

कैसे हुई महासती सुलसा के सम्यक्त्व की-श्रद्धा की परीक्षा? 

प्रस्तुत है, महासती सुलसा की अद्भुत कथा का Episode 03
बने रहिए इस Article के अंत तक।

धर्मलाभ

एक बार प्रभु महावीर स्वामी विहार करते हुए चंपानगरी पहुंचे। देवताओं ने आकर वहां दिव्य समवसरण की रचना की। प्रभु ने सिंहासन पर विराजमान होकर देशना दी। उनकी देशना सुनकर कई पुण्यात्माओं को सही समझ और जागरूकता मिली। 

देशना में जटाधारी अंबड़ परिव्राजक भी शामिल था। अंबड़ ब्रह्मचारी था और उसके 700 शिष्य थे। परिव्राजक यानी अजैन संन्यासी का वेश होते हुए भी वो महावीर प्रभु का परम भक्त था। 

अंबड श्रावकों के 12 अणुव्रतों का पालन भी करता था। अंबड के पास कई तरह की सिद्धियां थी। वो कांपिल्यपुर में एक साथ 100 घरों से भोजन लेता था और छट्ठ के पारणे छट्ठ करता था। 

Note : छट्ठ यानी 2 उपवास एक साथ करना। 

अंबड सूर्य के सामने खड़े होकर तप करता था, उसके पास वैक्रिय-लब्धि यानी किसी भी प्रकार का रूप बनाने की लब्धि थी। वह अवधिज्ञानी भी था और अपनी शक्ति से आकाश में उड़ भी सकता था। 

उसी अंबड़ परिव्राजक ने प्रभु वीर की तीन बार प्रदक्षिणा की और हाथ जोड़कर प्रभु की स्तुति की। उसने प्रभु की देशना सुनी और देशना ख़त्म होने के बाद राजगृही नगरी जाने का सोचकर वो खड़ा हुआ। 

उस समय सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने अंबड से कहा ‘हे अंबड़। जब तुम राजगृही नगरी जाओ तो वहाँ सुलसा श्राविका के घर जाकर उसे मेरा धर्मलाभ कहना।’ अंबड़ ने ‘तहत्ति’ कहकर प्रभु के आदेश को स्वीकार किया और राजगृही नगरी पहुंचा। 

अंबड़ ने सोचा ‘वह सौभाग्यशाली सुलसा कौन होगी जिसे प्रभु ने खुद ‘धर्मलाभ’ कहलाया है? उसमें जरूर कोई खास गुण होगा। 

प्रभु ने इतने लोगों में से सिर्फ उसे याद किया, तो उसमें कोई विशिष्ट योग्यता होगी। मुझे उसके गुण जानने के लिए उसकी परीक्षा करनी चाहिए।’

श्रद्धा की परीक्षा 

सुलसा की परीक्षा करने के लिए अंबड़ ने अपना रूप बदला। उसने हाथ में तीन नोकवाली लकड़ी लिया और संत के रूप में सुलसा के घर के दरवाजे पर पहुंचा। संत के वेष में अंबड़ ने कहा ‘माँ। मुझे भिक्षा दो।’ 

सुलसा ने अपनी दासी से कहा ‘इस भिक्षुक को भोजन दो।’ योगी ने कहा ‘मैं ऐसे सीधे भोजन नहीं लेता हूं। पहले तुम मेरे पैर धोओ, फिर मैं भोजन लूंगा।’

सुलसा ने कहा ‘मैं तो केवल महावीर प्रभु के उपासकों के पैर धोती हूं, किसी और के नहीं।’ 

यहाँ पर एक चीज़ देखने जैसी है कोई भी व्यक्ति किसी भी वेश में क्यों ना आए लेकिन अगर अपनी श्रद्धा दृढ़ है तो उससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। 

यह सुनकर संत वहां से चला गया यानी अंबड़ वहां से चला गया। अगले दिन सुलसा के सम्यक्त्व की परीक्षा लेने के लिए अंबड़ ने एक अन्य मत के देवता का रूप धारण किया। उसने वैसी चीज़ें भी हाथ में ली जिससे एक दम Real लगे। 

उस देव को पूजने वाले अन्य लोग बहुत थे तो उस देव के दर्शन करने के लिए लोग भीड़ लगाकर आने लगे। महासती सुलसा की कुछ सहेलियां सुलसा के पास आई और कहने लगी ‘नगर के बाहर खुद वह देव आए हैं, चलो उनके दर्शन के लिए चलते हैं।’ 

सुलसा ने साफ कह दिया ‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी। इस सृष्टि के असली सर्जक कोई देव वगैरह नहीं हैं। यह सृष्टि तो अनादि है और अनंत तक रहेगी। परमात्मा सृष्टि के रचयिता नहीं, बल्कि इसके दर्शक हैं। परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया नहीं है बल्कि बताया है।’ 

Simple भाषा में समझें तो परमात्मा सृष्टि के Creator नहीं बल्कि इस संसार से कैसे मुक्त होना और संसार की वस्तुओं का सच्चा स्वरुप क्या है? उसका मार्गदर्शन देनेवाले हैं। 

आखिर सुलसा वहां नहीं गई। इस तरह से सुलसा की परीक्षा करने के लिए अंबड़ ने काफी कुछ Try किया, लोगों की भीड़ लगती लेकिन सुलसा उस भीड़ में कभी नहीं दिखी क्योंकि सुलसा को सिर्फ प्रभु महावीर पर श्रद्धा थी। 

क्या हमारी ऐसी श्रद्धा है?
खुद से पूछ सकते हैं।
खैर।

25वें तीर्थंकर 

पाँचवे दिन अंबड़ ने अपनी वैक्रिय लब्धि से तीर्थंकर परमात्मा जैसी बाहरी समृद्धि बनाई। लोगों में बातें होने लगीं ‘तीर्थंकर परमात्मा पधारे हैं।’ सभी लोग उनके दर्शन के लिए दौड़ पड़े और किसी ने सुलसा से भी कहा ‘तीर्थंकर परमात्मा पधारे हैं, उनके दर्शन के लिए चलो।’ 

सुलसा ने पूछा ‘कौन से तीर्थंकर पधारे हैं?’ 

किसी ने कहा ‘पच्चीसवें।’

तीर्थंकर परमात्मा पधारे और सुलसा को उनके आगमन की अनुभूति ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता था, ऐसी सुलसा की श्रद्धा थी। 

जैन धर्म को गहराई से समझी हुई महासती सुलसा बोलीं ‘तीर्थंकर तो 24 ही होते हैं, 25 नहीं। 24वें तीर्थंकर महावीर प्रभु ही हैं। यह सब मुझे ढोंग और मायावी इंद्रजाल लगता है।’ आखिर सुलसा वहां भी नहीं गई। 

समवसरण में बैठा अंबड़ सुलसा को देखना चाहता था, लेकिन उसे कहीं भी वह नहीं दिखी। 

अंबड़ ने सोचा ‘धन्य है सुलसा। धन्य है महासती। तेरा धर्म सच्चा है, नकली नहीं। सारी दुनिया तो इंद्रजाल और दिखावे में फंस जाती है, लेकिन तू इतनी दृढ़ और अडिग है। तुझे कोई देव, दानव या इंसान भी अपने जाल में नहीं फंसा सकता।’

पाँचवे दिन अंबड़ ने अपनी सारी विद्याओं को छोड़कर श्रावक का वेश धारण किया। उसने पूजा के कपड़े पहने और हाथ में पूजा की सामग्री लेकर सुलसा के घर के जिन मंदिर में भगवान की पूजा करने पहुंचा। 

अंबड़ को श्रावक के वेश में देखकर सुलसा ने तुरंत उसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बोली ‘हे धर्मबंधु। आपका स्वागत है। आपके आने से मेरा घर पवित्र हो गया। आज तो मेरे लिए जैसे सोने का सूरज उगा है। मुझे आज साधर्मिक भक्ति का लाभ मिलेगा।’

सुलसा ने श्रावक के वेश में रहे अंबड़ को आसन पर बैठने के लिए कहा और सुलसा ने अंबड़ के पैरों को धोया और अपनी दासियों से प्रभु की पूजा की तैयारी करवाई। 

अटूट श्रद्धा 

अंबड़ ने जिनेश्वर भगवान की भावपूर्वक पूजा की। उसके बाद अंबड़ ने सुलसा से कहा ‘हे महासती। आपको लाख-लाख धन्यवाद। आपने जैन धर्म का सम्मान बढ़ाया है। आपने जैन धर्म के गहरे रहस्यों को अच्छी तरह समझा है। 

हे महासती। आपका विवेक बहुत बड़ा है। आपने कर्तव्य और अकर्तव्य को अच्छी तरह जाना है। आपका मनुष्य जन्म सचमुच सफल हुआ है। जिन वजहों से परमात्मा ने मनुष्य जन्म को महान और अनमोल कहा है, आपने उन्हें सार्थक कर दिखाया है। 

आपका जीवन तप, त्याग और भगवान की भक्ति से भरा हुआ है। हे श्राविका बहन। आप बहुत गहरी समझ रखने वाली हो। आपने भगवान के असली स्वरूप को पहचान लिया है। आप सतियों में श्रेष्ठ हो। 

वीतराग महापुरुषों में प्रभु महावीर सबसे महान हैं और उन्होंने देवों और मनुष्यों की सभा में आपकी प्रशंसा की है। मैं अंबड़ परिव्राजक हूं, प्रभु महावीर का भक्त हूं। 

मैं अभी चंपानगरी से आ रहा हूं। वहां भगवान महावीर ने खुद अपने मुंह से आपको ‘धर्मलाभ’ कहकर संदेश भेजा है।’ 

अंबड़ के मुंह से प्रभु का ‘धर्मलाभ’ संदेश सुनकर सुलसा बहुत खुश हो गई। उसका मन खुशी से झूम उठा। उसकी आंखों में खुशी के आंसू आ गए। उसका चेहरा खिल उठा और वह अपने आसन से उठ गई और प्रभु की भावपूर्ण स्तुति करने लगी।

उसके बाद अंबड़ ने कहा ‘हे भाग्यशाली सुलसा। आपकी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने ही अलग अलग देवों के रूप बनाए थे लेकिन आप कहीं भी नहीं आई। मैंने तीर्थंकर का रूप भी किया, फिर भी आप जरा भी आकर्षित नहीं हुई।’

सुलसा बोली ‘हे धर्मबंधु। आप तो ज्ञानी हो, फिर भी मुझसे यह प्रश्न पूछते हो? जब मैंने महावीर प्रभु को पा लिया है तो मेरा मन अन्य देवों में क्यों जाएगा? जिस भंवरे ने मधुर फूलों के रस का स्वाद चखा हो, क्या वह कभी नीम के कड़वे रस को चखेगा? 

समवसरण में बैठकर मैंने प्रभु वीर की अमृतवाणी का स्वाद लिया है, तो अब मुझे किसी और देव का आकर्षण कैसे होगा? मेरे लिए तो प्रभु वीर के चरण ही मेरी असली शरण हैं। मेरा मन तो प्रभु वीर में ही लगा रहता है। जब भी वे आते हैं, मेरा शरीर रोमांचित हो जाता है।’

हमने भी प्रभु महावीर को तो पाया ही है लेकिन प्रभु महावीर को पाने के बाद भी क्या अन्य देव देवियों में हमारा मन जाता है या नहीं? खुद खुद से पूछना होगा।

अंबड़ ने मन में सोचा ‘अहो। प्रभु महावीर ने मुझे इसी श्रद्धा के गहरे अर्थ को समझाने के लिए सुलसा को ‘धर्मलाभ’ कहलवाया है। सचमुच सुलसा की धर्म में श्रद्धा अडिग और सच्ची है।’ 

इसके बाद सुलसा ने बड़े प्रेम और भक्ति से अंबड़ को भोजन कराया। भोजन के बाद अंबड़ ने वहां से विदा ली। 

तीर्थंकर नामकर्म

त्याग और तपस्या में आगे बढ़ती हुई सुलसा धीरे-धीरे वृद्धावस्था में पहुंच गई। उसका शरीर कमजोर हो गया। समाधि-मरण की भावना से सुलसा ने अनशन व्रत लेने का निश्चय किया। अपनी अंतिम साधना के लिए उसने गुरु भगवंत से विनती की। 

गुरु भगवंत ने उसकी विनती स्वीकार की और उसके महल में पधारे। गुरु भगवंत ने सुलसा को समाधि-मरण के लिए सुंदर उपदेश दिए। सुलसा ने अपने जीवन में किए पापों के लिए दिल से पश्चाताप किया, उनकी आलोचना और निंदा की। 

जीवन में किए पुण्य कर्मों की अनुमोदना की। उसने अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म-चारों का भावपूर्वक शरण लिया। अपने शरीर के प्रति वह पूरी तरह निर्भय हो गई। उसने शुभ भावनाओं से अपने मन को अच्छी तरह तैयार किया।

महासती सुलसा का मन “सवि जीव करूँ शासन रसी” यानी सभी जीवों के कल्याण करने की तीव्र इच्छा से भर गया। ऐसी शुभ और शुद्ध भावना से भरकर सम्यक्त्वधारी महासती सुलसा ने “तीर्थंकर नाम कर्म” का उपार्जन किया। 

सुलसा ने गुरु के सामने अपने पापों की सच्चे दिल से आलोचना की। फिर उसने अत्यंत शांत भाव से देह का त्याग किया और समाधि-मरण को प्राप्त किया और वे देवलोक में चली गई।

देवलोक में दिव्य सुखों का अनुभव कर और वहां अपना दीर्घ जीवन पूरा करके, महासती सुलसा की आत्मा आने वाली चौबीसी में उत्सर्पिणी काल में पंद्रहवें तीर्थंकर “अमम” नाम से जन्म लेगी। 

अमम तीर्थंकर अनेक जीवों का उद्धार करेंगे और अंत में श्री अमम तीर्थंकर के रूप में वे मोक्ष में जाएगी। 

महासती सुलसा के जीवन से यूँ तो बहुत कुछ सीखने जैसा है लेकिन आइए जानते हैं इस घटना में हमें समझने जैसी चीज़ें क्या-क्या है। 

Moral Of The Story

1. परीक्षा होती है तब ही पता चलता है कि हमारी कोई भी Quality कितनी Strong है। 

Normal Circumstances में हमें ऐसा ही Feel होता है कि हम Strong है पर परीक्षा आने पर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। 

सुलसा जैसे जीव Pass हो जाते हैं और हमारे जैसे जीव थोड़ा कुछ होते ही Black Magic, तंत्र-मंत्र के नाम से इधर-उधर भटकने लगते हैं, कहीं पर भी माथा पटकने लगते हैं।

2. सुलसा श्राविका की कैसी श्रद्धा होगी कि प्रभु महावीर उनको सामने से धर्मलाभ दे। 

ऐसा कहते हैं प्रभु हमारे दिल में रहे, वह अच्छी बात है पर हम प्रभु के दिल में रहे, वह बहुत ही महान बात है, उत्कृष्ट बात है और वह धर्मलाभ अंबड जैसे संन्यासी को भी कैसे फलित हुआ वह हमें यहां पता चलता है। 

3. प्रभु को माननेवाले सिर्फ जैन कुल में जन्मे हुए ही लोग थे, वैसा बिलकुल नहीं था। 

Let this be very clear पहले जैन कोई कुल यानी Caste नहीं थी पर Religion था। आज भी Jainism में सभी व्यक्तियों का स्वागत है। 

सिर्फ जन्म से जैन ही जैन नहीं है पर जो कोई Jainism पालता है, वह भी “जैन” है। 

4. इस कथा में Normal Public का भी Attraction किस तरफ होता है, वह हमें पता चलता है। जहां चमत्कार वहां नमस्कार पर हम Normal है या Special, वह हमें Decide करना है। 

तो हमने महासती सुलसा के जीवन की अद्भुत कथा 3 Episodes में जानी। धर्म की श्रद्धा कैसी होनी चाहिए वह हम महासती सुलसा से सीख सकते हैं। 

जब भी धर्म के प्रति श्रद्धा कम हो रही हो ऐसा लगे तब ये 3 Episodes एक बार फिर से पढ़ सकते हैं।

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