Inspirational Story of Mahapurush Shalibhadra

सुपात्रदान का अद्भुत महत्त्व बताती हुई महापुरुष शालिभद्र की अद्भुत कथा.

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By Jain Media 164 Views 29 Min Read
Highlights
  • दुर्लभता से प्राप्त हुए सुपात्रदान की भावपूर्वक अनुमोदना के प्रभाव से संगम मरकर उसी नगर में गोभद्रसेठ की पत्नी भद्रा की कुक्षि में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ.
  • पूर्वभव यानी पिछले जन्म के स्नेह के कारण वे गोभद्र देव हर दिन शालिभद्र को देवलोक से 99 पेटियाँ भेजने लगे और शालिभद्र प्रतिदिन अपनी पत्नियों के साथ दिव्य भोजन, दिव्य वस्त्र एवं दिव्य अलंकार धारण करने लगे. 
  • एक नाथ शब्द के श्रवण मात्र से ही शालिभद्र के अन्तर्मन में वैराग्य भाव का बीजारोपण हो गया.

‘शालिभद्र नी ऋद्धि होजो.’ यह शब्द हमने कई बार सुने होंगे. आखिर कैसी थी शालिभद्र की ऋद्धि और आखिर किस पुण्योदय के कारण उन्हें यह ऋद्धि प्राप्त हुई थी? आइए जानते हैं शालिभद्र की अद्भुत कथा के माध्यम से. 

बने रहिए इस Article के अंत तक.

शालिभद्र का पूर्वभव

राजगृही नगरी के आसपास एक छोटासा शालिग्राम नामक गांव था. उस गाँव में धन्या नाम की एक गरीब स्त्री अपने इकलौते बेटे संगम के साथ रहती थी. गरीबी में भी पेट अपना स्वभाव कहाँ छोड़ने वाला है? वह इधर-उधर पड़ोस में किसी के घर का काम करके जैसे तैसे अपने घर का खर्चा निकालती थी. वह छोटासा बालक संगम भी नगरजनों के बछड़े आदि चराकर उसकी माँ की कुछ सहायता करता था. 

जब वह जंगल में जाता था तब ध्यान में स्थिर खड़े मुनि भगवंत के उसे कई बार दर्शन होते और उनकी तपस्या देखकर उसे आनंद भी आता था. एक दिन किसी Festival के निमित्त गाँव के घरों में खीर बनने लगी. संगम को जब इस बात का पता चला तब वह भी अपने घर आया और अपनी माँ से खीर की माँग करने लगा. माँ ने कहा ‘बेटा! बड़ी मुश्किल से तो रोटी मिल पा रही है तो मैं तेरे लिए खीर कहाँ से लाऊँ?’ 

माँ ने संगम को समझाने की बहुत कोशिश की परन्तु बच्चों की ज़िद्द के सामने कहां किसी की चलती है. संगम कहने लगा ‘आज तो घर-घर में खीर है माँ, तो अपने घर में क्यों नहीं?’ माँ सोचने लगी ‘मैं कितनी दुर्भागी हूँ कि अपने बालक की इस छोटीसी इच्छा को भी पूर्ण करने में असमर्थ हूँ.’ उसे अपनी पूर्वावस्था की समृद्धि की याद आ गई ‘अहो! मेरे जीवन में भी वे कैसे दिन थे जहाँ पानी माँगने पर दूध मिलता था और आज दूध माँगने पर पानी भी सुलभ नहीं है.’ 

इस प्रकार सोचने पर धन्या की आँखों से अश्रुओं की वर्षा होने लगी और वह भी अपने बालक के साथ जोर जोर से रोने लगी. संगम व धन्या के इस करुण रुदन को सुनकर आसपास के लोग इकट्ठे हो गए और उसके दुःख दर्द की बात पूछने लगे. धन्या ने सभी से कहा कि हमें और तो कोई तकलीफ नहीं है किंतु बालक की इच्छा पूरी नहीं कर पा रही हूँ, इसलिए मैं रो रही हूँ.’ धन्या की यह बात सुनकर पड़ोस की स्त्रियों का हृदय दया से भर आया और तुरंत ही उन्होंने धन्या को खीर बनाने के लिए दूध, चावल, शक्कर आदि सामग्री प्रदान की.

आज हम बड़ी बड़ी Societies में रहते हैं, बड़े बड़े घरों में रहते हैं, Bungalows में रहते हैं लेकिन दुःख की बात यह है, विडंबना यह है कि आज अगर हम रोएं, चिल्लाएं, जोर जोर से भी चिल्लाएं, तो भी आस पास से कोई आनेवाला नहीं है. घर में कोई अकेला व्यक्ति रहता हो और अगर वो मर जाए तो 2-3 दिन बाद पता चलता है कि उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई है. आज से कुछ वर्षों पहले गाँवों की क्या ज़िन्दगी रही होगी सोचने जैसा है. हम विकास तो कर रहे हैं No Doubt! लेकिन संवेदनशीलता कम होती जा रही है यह वास्तविकता भी माननी पड़ेगी.

धन्या एकदम खुश हो गई और तुरंत ही उसने उस सामग्री से खीर तैयार की. धन्या ने एक थाली में संगम को खीर परोस दी और वह पड़ोस में काम करने के लिए चली गई. इधर संगम के सद्भाग्य से खींचकर मासक्षमण के तपस्वी महात्मा गोचरी वहोरने के लिए उस Area में पधारे. (मासक्षमण यानी एक महीने का उपवास) संगम ने जैसे ही उन तपस्वी संयमी महात्मा को देखा वैसे ही वह एकदम खुश हो गया और महात्मा के पास दौड़कर चला गया एवं अपने घर पधारने के लिए अत्यंत ही भावपूर्वक विनती करने लगा. महात्मा ने उस छोटे से बालक के भाव देखें और वे उसके साथ चलने लगे. संगम उन महात्मा को अपने घर लेकर आया. 

महात्मा ने अपना पात्रा नीचे रखा और उसी समय अत्यंत ही उल्लास में आकर संगम ने थाली में रही वह सारी खीर महात्मा के पात्रे में डाल दी. महात्मा ‘बस करो, बस करो’ कहते ही रहे और इधर उल्लास में आकर संगम ने वह सारी खीर महात्मा के पात्रे में उलट दी. महात्मा ने उसे धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया और वे रवाना हो गए. इधर थोड़ी देर बाद जैसे ही धन्या घर पर आई तो उसने देखा कि संगम ने पूरी खीर खा ली है इसलिए धन्या ने उसे और खीर दी जो संगम ने खा ली. 

खीर के सेवन से रात्रि में संगम को अजीर्ण होने लगा, पीड़ा होने लगी परंतु उस पीड़ा में भी उसे दुर्लभता से प्राप्त सुपात्रदान याद आने लगा और वह बार बार उसकी अनुमोदना करने लगा. सुपात्रदान की भावपूर्वक अनुमोदना के प्रभाव से वह संगम मरकर उसी नगर में गोभद्रसेठ की पत्नी भद्रा की कुक्षि में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ. पुत्र के गर्भ में आने पर माता ने स्वप्न में पके हुए चावल से भरे खेत को देखा और स्वप्न की बात भद्रा ने अपने पति को बताई. पति ने कहा ‘प्रिये! आप बहुत जल्द तेजस्वी पुत्ररत्न की माता बनेंगी.’ 

शालिभद्र की ऋद्धि 

समय व्यतीत होने लगा और एक शुभ दिन भद्रा ने रत्न की तरह चारों दिशाओं को प्रकाशित करनेवाले तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया. समय बीतने पर स्वप्न के अनुसार ही बालक का ‘शालिभद्र’ नाम रखा गया. शालि यानी चावल और भद्र यानी अच्छा.  

धीरे-धीरे शालिभद्र बड़ा होने लगा और बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसका पुण्य भी बढ़ने लगा. यौवन के प्रांगण में प्रवेश करने के साथ ही शालिभद्र समस्त शस्त्र एवं शास्त्र कलाओं में Expert बन गया और एक दिन नगर सेठों की 32 कन्याओं के साथ शालिभद्र का विवाह हो गया. 

शालिभद्र देवविमान जैसे ज़बर्दस्त महल के 7th Floor पर रहने लगे और उन कन्याओं के साथ दिव्य भोग का अनुभव करने लगे. उनके पिता गोभद्र सेठ दीक्षित बने और अत्यंत समाधिपूर्वक कालधर्म यानी मरण को प्राप्तकर देव बने. पूर्वभव यानी पिछले जन्म के स्नेह के कारण वे गोभद्र देव हर दिन शालिभद्र को देवलोक से 99 पेटियाँ भेजने लगे और शालिभद्र प्रतिदिन अपनी पत्नियों के साथ दिव्य भोजन, दिव्य वस्त्र एवं दिव्य अलंकार धारण करने लगे. 

लोक व्यवहार संबंधी सभी कार्य भद्रा माता निपटा लेती और शालिभद्र दिव्य सुख में अपना समय बिताने लगा. आज तो थोड़े बहुत Interiors करके, एक दो अच्छी Cars, Branded कपड़े और महँगे फ़ोन रखकर सोचते हैं कि हमारी Lifestyle सबसे Top Level की है. आइये शालिभद्र की Lifestyle कैसी थी उसकी एक घटना देखते हैं. 

रत्नकंबल या पोछा?

एक बार नेपाल देश से रत्नकंबल का एक व्यापारी आया. उसके पास 16 रत्नकंबल थे और एक-एक रत्नकंबल की कीमत सवा लाख (1.25 Lakh) सोना मोहर थी. रत्नकंबल की अपनी अलग ही विशेषताएँ थीं जैसे सर्दी में पहनें तो सर्दी न लगे और गर्मी में पहनें तो गर्मी न लगे. रत्नकंबल बेचने के लिए वह व्यापारी राजदरबार में पहुँचा परन्तु उसका मूल्य सुनते ही श्रेणिक महाराजा ने कहा ‘अरे! प्रजा के पैसे कोई मौज मजा करने के लिए थोड़े ही हैं?’ 

श्रेणिक महाराजा ने एक भी रत्नकंबल खरीदने से इन्कार कर दिया. व्यापारी निराश हो गया और उसने सोचा कि ‘नगर का राजा भी जिस रत्नकंबल को नहीं खरीद सका तो उसकी प्रजा तो क्या ही खरीदेगी? राजगृही में मेरा धंधा बेकार गया.’ इस प्रकार निराश होकर वह व्यापारी शालिभद्र की हवेली के पास से गुजर रहा था तभी भद्रा माता ने उसे आवाज देकर बुलाया और कहा ‘भाई! तुम्हारे पास क्या चीज है? और तुम इतने निराश क्यों दिखाई देते हो?’ 

व्यापारी ने सोचा ‘इस माँ जी से बात करने से क्या फायदा, जिस रत्नकंबल को राजा नहीं खरीद सका, उस रत्नकंबल को यह माँजी क्या ही खरीदेगी?’ व्यापारी इस प्रकार विचार कर ही रहा था कि तभी भद्रा माता ने पुनः व्यापारी को कहा ‘भाई! तुम्हारा दुखी चेहरा मुझसे देखा नहीं जा रहा है, जो हो सो कहो.’ 

आखिर व्यापारी ने कहा कि मैं नेपाल देश से आया हूँ, मेरे पास 16 रत्नकंबल हैं परंतु यहाँ का राजा एक भी रत्नकंबल नहीं खरीद सका तो प्रजा से तो क्या आशा रखूँ? बस, यही मेरी निराशा का कारण है. भद्रा माता ने कहा कि ‘भाई! 16 रत्नकंबलों से क्या होगा? मेरी तो 32 बहुएँ हैं अत: 32 चाहिए. खैर, अब 16 ही हैं तो इन सबके 2-2 टुकड़े कर दो.’

व्यापारी को एक ज़ोरदार झटका लगा उसने कहा ‘माँ जी! यह कोई मजाक की बात तो नहीं हो रही है ना, आप इस रत्नकंबल की कीमत जानती हो?’ भद्रा माता ने पूछा ‘अरे भाई! बताओ तो सही, कितनी कीमत है इस रत्नकंबल की?’ व्यापारी ने कहा ‘एक रत्नकंबल की कीमत सवा लाख सोना मोहर है.’ भद्रा माता ने कहा ‘बस, इतनी ही न! क्यों घबराते हो?’ 

इतना कहकर एक ओर भद्रा माता ने नौकर को बीस लाख सोना मोहर लाने की आज्ञा दी और दूसरी ओर व्यापारी को उन रत्नकंबलों के दो टुकड़े करने की आज्ञा की. थोड़ी ही देर में भद्रा माता का नौकर 20 लाख सोना मोहर लेकर हाजिर हो गया और भद्रा माता ने वह सारा धन व्यापारी को सौंप दिया. व्यापारी तो यह देखकर हक्का-बक्का हो गया और सोचने लगा कि ‘अरे! जिस नगर का राजा एक रत्नकंबल भी नहीं खरीद सका, उस नगर में इन माँ जी ने सभी के सभी खरीद लिए.’ 

व्यापारी ने 20 लाख सोना मोहरे ले लीं और 16 रत्नकंबलों के दो टुकड़े कर माँ जी को सौंप दिए और भद्रा माता ने वह 32 रत्नकंबल अपनी 32 बहुओं को दे दिए. उन बहुओं ने स्नान करने के बाद उन रत्नकंबलों से अपना शरीर पोंछ लिया और उसके बाद उन्हें पैर साफ करने के स्थान पर रख दिया. 

इधर श्रेणिक महाराजा की पट्टरानी चेलना को जब रत्नकंबल की विशेषताओं की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने खुद के लिए एक रत्नकंबल खरीदने के लिए श्रेणिक महाराजा से अत्यंत ही आग्रह किया और रानी के अति आग्रह को देख राजा ने उस व्यापारी के पास एक रत्नकंबल की माँग की. व्यापारी ने कहा कि ‘मेरे पास तो अब एक भी नहीं बचा है, सभी रत्नकंबल भद्रा माता ने खरीद लिए हैं.’

राजा ने एक होशियार पुरुष भद्रा माता के घर भिजवाया और कहलवाया कि ‘जो भी मूल्य है वो लेकर एक रत्नकंबल राजा के लिए दे दीजिए.’ वह व्यक्ति भद्रा माता के घर गया तो भद्रामाता ने उसे कहा कि ‘वे रत्नकंबल तो शालिभद्र की पत्नियों ने शरीर को पोंछने के उपयोग में ले लिए हैं, अतः यदि उस फटे हुए रत्नकंबल की जरूरत हो तो ऐसे ही ले जाओ.’ 

इतने कीमती रत्नकंबल से शरीर को पोंछकर उन्हें अब पैर पोंछने के लिए रख दिया गया है, इस बात को जानकर चेलना रानी को बहुत आश्चर्य हुआ. वह सोचने लगी ‘अहो! उसकी और हमारी समृद्धि के बीच कितना बड़ा अंतर है.’ राजा श्रेणिक ने ऐसे पुण्यशाली समृद्ध व्यक्ति को मिलने के लिए आमंत्रण भेजा तब भद्रा माता ने कहा कि ‘मेरा बेटा कहीं पर भी बाहर नहीं जाता है राजन, अतः आप ही यहाँ पधार जाएं.’ 

शालिभद्र को वैराग्य प्राप्ति 

श्रेणिक राजा ने भद्रा माता के आमंत्रण को स्वीकार किया और श्रेणिक राजा अपनी विशाल समृद्धि के साथ शालिभद्र के महल में आए. आज के परिपेक्ष्य में देखें तो एक व्यक्ति को मान लीजिए पीएम मोदी ने Invite किया लेकिन उस व्यक्ति की माँ ने मना कर दिया कि मेरा बेटा कहीं बाहर नहीं जाता है इसलिए आप ही पधारो और पीएम मोदी उस व्यक्ति से मिलने के लिए खुद जाते हैं. 

राजा खुद मिलने आए तो सोचने जैसा है कि कैसी समृद्धि होगी. श्रेणिक राजा को 4th Floor पर सिंहासन पर विराजमान कर भद्रामाता शालिभद्र को बुलाने के लिए 7th Floor पर गई और शालिभद्र से कहा कि ‘बेटा! श्रेणिक आए हैं, अत: तू मिलने के लिए नीचे चल.’ देवलोक समान दिव्य सुखों में मस्त बने शालिभद्र ने कहा कि ‘माँ! तुम्हें जो ठीक लगे वह कर लो, मुझे वहाँ आने से क्या फायदा है?’ 

तब भद्रा माता ने कहा कि ‘बेटा! श्रेणिक कोई खाने-पीने की वस्तु नहीं है, वे तो हमारे नाथ हैं, स्वामी हैं! इस नगर के महाराजा हैं.’ शालिभद्र ने अपने जीवन में पहली बार नाथ शब्द सुना और उसके आश्चर्य का कोई पार न रहा. शालिभद्र को तगड़ा झटका लगा. ‘अरे! इन भोगों से अब मुझे कोई मतलब नहीं है. इस संसार के ऐश्वर्य को भी धिक्कार हो. क्‍या मेरे ऊपर भी कोई प्रभु हैं, मालिक हैं?’ 

इस प्रकार एक नाथ शब्द के श्रवण मात्र से ही शालिभद्र के अन्तर्मन में वैराग्य भाव का बीजारोपण हो गया. उन्हें संसार के ये सभी सुख अत्यंत ही तुच्छ प्रतीत होने लगे और माता के अति आग्रह से वह 7th Floor से नीचे उतरे और 4th Floor पर आए. शालिभद्र ने श्रेणिक महाराजा को प्रणाम किया और श्रेणिक राजा ने शालिभद्र को अपनी गोद में बिठाया. 

शालिभद्र को पसीना होने लगा और थोड़ी देर बाद भद्रा माता ने कहा कि ‘राजन्‌! आप इसे मुक्त कर दें. यह मनुष्य होते हुए भी इसे मनुष्य संबंधी गंध आदि से बहुत पीड़ा होती है. यह तो प्रतिदिन देव-संबंधी आहार, वस्र व अलंकार आदि को धारण करता है.’ राजा श्रेणिक ने शालिभद्र को Free कर दिया और शालिभद्र 7th Floor पर जा पहुँचा. 

भद्रा माता का आग्रह

उसी समय नगर के बाह्य उद्यान में मति-श्रुत-अवधि एवं मनःपर्यव ऐसे चार ज्ञान के धारक पूज्य धर्मघोषसूरिजी महाराज साहेब अपने विशाल परिवार के साथ पधारे. शालिभद्र को जैसे ही आचार्य भगवंत के आगमन के समाचार मिले वैसे ही वह एकदम प्रसन्‍न हो उठे और तुरंत ही रथ में बैठकर उद्यान में आ पहुँचे. उन्होंने आचार्य भगवंत के चरणों में भावपूर्वक वंदना की. 

आचार्य भगवंत ने भी वैराग्य से भरे प्रवचन दिए और शालिमद्र ने Full Focus से उस धर्मदेशना को सुना. देशना के अंत में शालिभद्र ने आचार्य भगवंत से प्रश्न किया कि ‘हे गुरुवर! ऐसा कौन सा कर्म किया जाए कि जिससे हमारा कोई स्वामी न हो?’ आचार्य भगवंत ने कहा कि ‘हे भाग्यशाली! जो पुण्यवंत आत्मा भागवती दीक्षा स्वीकार कर उसका निरतिचार रूप से पालन करती है, वह समस्त जगत्‌ के स्वामित्व को प्राप्त करती है. उसे कभी दूसरों की गुलामी नहीं करनी पड़ती है.’ 

यह सुनकर शालिभद्र ने कहा कि ‘आपकी बात बिल्कुल ठीक है. मैं शीघ्र ही घर जाकर माता की Permission प्राप्तकर चारित्र धर्म को स्वीकार करूंगा.’ उस समय आचार्य भगवंत ने शालिभद्र को कहा कि ‘शुभ कार्य में प्रमाद करना उचित नहीं है.’ शालिभद्र अपने घर आ पहुँचे और भद्रा माता से प्रार्थना की कि ‘हे माता! आप मुझे दीक्षा के लिए अनुमति प्रदान करें.’

यह सुनकर भद्रा माता आश्चर्यचकित हो गईं और उन्होंने कहा कि ‘दीक्षा के सिवाय आत्मकल्याण संभव नहीं है, परन्तु तू अत्यंत ही सुकोमल है पुत्र. दीक्षा का पालन करना तेरे लिए लोहे के चने चबाने जैसा है. तू चारित्र के कष्टों को कैसे सहन कर पाएगा?’ शालिभद्र ने कहा ‘कायर के लिए कष्ट सहन करना कठिन है, शूरवीर के लिए नहीं माता.’ 

तब भद्रा माता ने कहा ‘बेटा! तू प्रतिदिन एक-एक स्त्री का त्याग करता जा और धीरे-धीरे त्याग को आत्मसात करता जा. इस प्रकार के अभ्यास के बाद तू आराम से व्रत स्वीकार कर सकेगा.’ माँ के वचन को स्वीकार कर शालिभद्र प्रतिदिन एक-एक स्त्री का त्याग करने लगा.

धन्ना सेठ द्वारा हीतवचन

इधर शालिभद्र के द्वारा एक-एक स्त्री के प्रतिदिन त्याग की बात सुनकर शालिभद्र की बहन सुभद्रा के पति यानी शालिभद्र के जीजाजी धन्ना सेठ ने कहा ‘तेरा भाई तो कायर है कायर.’ यह सुनकर सुभद्रा ने कहा कि ‘बोलना सरल है लेकिन करना कठिन है.’ सुभद्रा के इस व्यंगात्मक बाण के साथ ही धन्ना सेठ एक साथ 8 स्त्रियों का त्यागकर चारित्र धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए. 

धन्ना सेठ के साथ उनकी पत्नियाँ भी दीक्षा के लिए तैयार हो गई और दूसरे ही दिन धन्ना सेठ अपनी आठों स्त्रियों के साथ भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करने के लिए जाने लगे. जाते समय बीच में शालिभद्र का महल आया. धन्ना सेठ ने शालिभद्र को नीचे बुलाकर कहा ‘अरे मित्र! जब सब छोड़ना ही है तो कायरों की तरह धीरे-धीरे क्यों छोड़ रहे हो? छोड़ना है तो सब एकसाथ छोड़ो. मैं अपनी आठों स्त्रियों का एक साथ त्यागकर दीक्षा ग्रहण करने जा रहा हूं. अगर दीक्षा लेना हो तो चलो मेरे साथ.’ 

वैसे तो शालिभद्र दीक्षा लेने के लिए Ready था ही और धन्ना सेठ की यह बात सुनकर शालिभद्र ने तुरंत ही एकसाथ सबकुछ त्याग कर दिया और धन्ना सेठ के साथ शालिभद्र ने प्रभु वीर के चरणों में आकर भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली. 

माता द्वारा पारणा

दीक्षा अंगीकार करने के बाद धन्ना और शालिभद्र मुनि ज्ञान, ध्यान व तप की साधना में डूब गए. 15 उपवास, मासक्षमण, दो मासी, तीन मासी और चार मासी आदि उत्कृष्ट तप साधना के द्वारा उन्होंने अपनी काया की माया दूर कर दी. उत्कृष्ट तप के कारण उनके शरीर में सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी ही बच पाई थी. एक बार वे दोनों मुनिवर प्रभु के साथ विहार करते हुए राजगृही नगरी में पधारे. मासक्षमण के पारणे के लिए वे दोनों मुनिवर राजगृही नगरी में गोचरी के लिए निकल पड़े. 

प्रभु वीर ने उनसे कहा कि ‘आज तुम्हारी माता के हाथ से तुम्हारा पारणा होगा.’ शालिभद्र और धन्ना मुनि भद्रा माता के घर पहुँचे परन्तु तप के द्वारा उनकी काया इतनी अधिक कृश बन चुकी थी कि उन्हें घर पर कोई पहचान नहीं पाया. प्रभु वीर व शालिभद्र आदि को वंदन करने की जल्दी में भद्रा माता घर आए शालिभद्र मुनि को पहचान नहीं पाई और कुछ क्षण तक स्थिरता कर वे दोनों मुनि पुन: नगर के द्वार की ओर चल पड़े. 

उसी समय एक वृद्धा दही व घी बेचने के लिए नगर में जा रही थी. शालिभद्र मुनि को देखते ही पूर्वभव के स्नेह के कारण उनके स्तनों में से दूध बह निकला. उस माँजी ने दोनों मुनियों को वंदन किया और पारणे में दही वहोराया. दोनों मुनि दही वहोरकर प्रभु वीर के पास आए और शालिभद्र मुनि ने प्रभु को पूछा कि ‘हे प्रभु! आपने तो माता के हाथों से पारणे की बात कही थी फिर ऐसा कैसे हुआ?’ 

प्रभु ने हकीकत बताते हुए कहा कि ‘जिनके हाथों से दही वहोरा है, वह तुम्हारी पूर्व भव की यानी पिछले जन्म की माता थी.’ सिर्फ दही से मासक्षमण के दीर्घ तप का पारणा करके शालिभद्र और धन्ना मुनि प्रभु महावीर के पास आए और कहने लगे कि ‘हे प्रभु! आत्म कल्याण के लिए, इस शरीर की ममता दूर करने के लिए हम वैभारगिरि पर्वत पर पादपोपगमन यानी वृक्ष की तरह एकदम स्थिर ऐसा अनशन करना चाहते हैं.’

प्रभु ने उनकी योग्यता जानकर सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी और वे दोनों मुनिवर वैभारगिरि पर चढ़ गए और दोनों ने पादपोपगमन अनशनव्रत स्वीकार लिया. इधर थोड़ी देर बाद भद्रा माता प्रभु के पास आई और प्रभु से बोली कि ‘हे प्रभु! शालिभद्र और धन्ना मुनि कहाँ हैं? वे गोचरी के लिए हमारे घर नहीं पधारे.’ प्रभु ने भद्रा माता से कहा कि ‘वे दोनों मुनि तुम्हारे घर गोचरी के लिए आए थे परन्तु यहाँ आने की जल्दी में तुम उन्हें पहचान नहीं पाई. शालिभद्र की पूर्वभव की माता ने उन्हें दही से पारणा करा दिया और अब उन दोनों महासत्त्वशाली मुनियों ने जन्म-मरण के इस चक्कर को ख़त्म करने के लिए वैभारगिरि पर जाकर अनशन व्रत स्वीकार किया है.’

भद्रा माता का विलाप

यह सुनकर श्रेणिक महाराजा के साथ भद्रा माता भी वैभारगिरि पर्वत पर पहुँची. अपने पुत्र के भयंकर कष्ट को देख वह जोर से रोने लगी और रोते हुए बोली कि ‘हे मुनिवर! आप मेरे घर पर आए और दुर्भाग्य से मैं आपको पहचान नहीं पाई. मेरे प्रमाद को घिक्कार हो! आपने संसार का त्याग कर दिया था, फिर भी मुझे आशा थी कि आप अपने दर्शन से मुझे फिर से आनंद प्रदान करोगे परन्तु देहत्याग के लिए प्रारंभ किए अनशन व्रत के द्वारा तो मेरी वह आशा भी निष्फल हो गई. आपके द्वारा प्रारंभ किए व्रत में मैं विघ्न डालना नहीं चाहती हूँ, परन्तु उस कठोर शय्या के कष्ट को आप कैसे सहन कर पाएंगे?’

उसी समय श्रेणिक महाराजा ने भद्रा माता से कहा कि ‘माताजी! हर्ष के स्थान पर यह शोक क्यों? ऐसे पुत्ररत्न को जन्म देनेवाली तू महा भाग्यशाली एक ही है! यह मुनिवर तो महान तत्त्वज्ञानी हैं. इन्होंने तृण की भाँति सारी लक्ष्मी का त्याग कर दिया और साक्षात मुक्ति की प्राप्ति के समान प्रमु के चरण कमलों को स्वीकार कर लिया है. ये तो जगत के स्वामी वीर प्रभु के शिष्य के अनुरूप ही तप कर रहे हैं, अत: तुम व्यर्थ ही अपने स्वभाव के कारण इस प्रकार का दुर्ध्यान क्यों कर रही हो?’

श्रेणिक महाराजा के वचनों को सुनकर भद्रा माता ने प्रतिबोध प्राप्त किया और फिर दोनों मुनिवरों को भावपूर्वक नमस्कार कर वह अपने घर चली आई. शालिभद्र व धन्ना मुनि भी अनशन व्रत को पूर्णकर अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्तकर सर्वार्थसिद्ध विमान में 33 सागरोपम की स्थिति वाले देव बने और वहाँ से च्यवकर मानवभव प्राप्तकर मोक्ष में जाएंगे. 

Moral Of The Story

शालिभद्र की कथा से हमें बहुत कुछ सीखने एवं जानने को मिलता है. आइए इस कथा की Learnings जानते हैं.

1. हम कहते हैं कि ‘शालिभद्रजी की ऋद्धि हो जो’ Reality में हमें सूत्र शायद Change करना चाहिए. ‘शालिभद्र की अनासक्ति होजो’ यह सूत्र होना चाहिए. ज्ञानी गुरु भगवंत बताते हैं कि ऋद्धि मिलने के पश्चात वह ऋद्धि वृद्धि में घुस ना जाए उसका बहुत ही ज्यादा ध्यान रखना चाहिए. 

अनासक्ति यानी कि कितनी भी अच्छी चीज पर लगाव का अभाव, ये बहुत ही Important है. शालिभद्रजी के पास सब कुछ होने के बाद भी वे सब कुछ को छोड़कर कुछ नहीं के पथ पर चले और इसलिए उन्होंने सही मायने में सब कुछ पा लिया. 

कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ना पड़ता है, सब कुछ पाने के लिए सब कुछ छोड़ना पड़ता है.

2. धन्नाजी का Character भी समझने जैसा है. हमारी आदत होती है कि हमें कोई बुरी आदत लगती है तो धीरे-धीरे छोड़ते हैं, जैसे पहले 10 की 9 सिगरेट, फिर 9 की 8 पर धन्नाजी की तरह एक साथ सभी को छोड़ना शूरवीरता है. यहां Encourage करने पर शालिभद्रजी से सब कुछ छूट गया, एक साथ छूटा पर हमसे वह आदतें छूटेगी या नहीं यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है, शायद भ्रम है. 

चाय का नशा करनेवाले, सिगरेट, दारु, बीडी, गुटका, हुक्का आदि व्यसन करनेवाले भी सावधान हो जाए!

3. संयम जीवन की साधना कितनी ऊंची होती है वह हमें यहां पता चलता है. एक सग्गी मां अपने बेटे को पहचान ना पाए ऐसी हालत उनके शरीर की उन्होंने की और इसलिए जैन धर्म आत्मा का मार्ग है, शरीर का नहीं. 

4. सबसे महत्वपूर्ण बात! पूर्वभव के भाव अथवा संस्कार कितने काम आते हैं, वह हमें संगम के भव से पता चलता है और इस तरह अजैनों में भी गुरु भगवंतों द्वारा गोचरी जाने से उनकी भावधारा कितनी बढ़ती है, वह हमें पता लगता है. साधु भगवंत को जात-पात या उच-नीच से कोई संबंध नहीं होता, किंतु उनके भावों से – आत्मा से संबंध होता है. 

5. सुपात्रदान का लाभ कितना गहरा है, उसके लिए तो यह Story कई साधु भगवंत अपने प्रवचनों में लेते हैं. वहां से सविस्तार इस Story को जरूर सुनिएगा, ज़रूर आनंद आएगा. 

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