Simplicity के साथ गणिपद!
कोई भी क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार के पद दिए जाते हैं. फिर वह School हो, College हो, Military हो, Politics हो, ट्रस्ट मंडल हो या कुछ भी. व्यक्ति की पात्रता के हिसाब से उसे पद दिए जाते हैं.
जिनशासन में भी उसी प्रकार पद प्रदान की व्यवस्था है. दीक्षा लेते वक्त वह दिक्षार्थी मुनि पद को प्राप्त करता है, उसके बाद उसकी पात्रता के अनुसार, योग्यता के अनुसार गणि पद – पंन्यास पद – उपाध्याय पद – आचार्य पद – गच्छाधिपति पद आदि ऐसे पद दिए जाते हैं.
पद प्रदान कोई सामान्य चीज नहीं है. बहुतसी साधना-आराधना-तप आदि के बाद यह पद दिए जाते हैं. जानकारी के लिए बता दें कि पद प्राप्ति के पहले जो साधना करनी होती है उसे जिनशासन में योगोद्वहन कहते हैं और Normal भाषा में उसे जोग कहते हैं.
श्री दशवैकालिक – श्री उत्तराध्ययन – श्री आचारांग – श्री कल्पसूत्र – श्री महानिशिथ – श्रीनंदी सूत्र – श्री सुयगडांग सूत्र – श्री ठाणांग सूत्र – श्री समवायांग सूत्र – श्री दसपयन्ना – श्री औपपात्तिक आदि उपांग, श्री भगवतीजी सूत्र आदि इतने आगमों के जोग की साधना के बाद गणि पद दिया जाता है.
इस साधना में Minimum 230 आयंबिल, Minimum 20,000 से अधिक खमासमणा, Minimum 3,400 वांदणा सूत्र, Minimum 250 निवी और दूसरी कठिन आराधना-साधना करनी होती है.
कोई भी गच्छ में पद का महत्व अधिक है इसलिए जब भी कोई भी साधु को पद दिया जाता है तब उसके लिए श्रावक वर्ग अपनी भावना से Top महोत्सव मनाते ही है और विधि से मनाए जाते महोत्सव शासन प्रभावना के कारण होने से सराहनीय भी है.
आज हम एक विशिष्ट प्रकार के पदवी प्रदान की बात करेंगे. कुछ जानकारियाँ हमने गुरु भगवंतों से प्राप्त की है और कुछ जानकारियाँ परिचित व्यक्तियों से. श्री प्रेम-भुवनभानु सूरिजी समुदाय में सामान्य तौर पर नियम है कि मुनि का 20 साल का दीक्षा पर्याय हो जाए और कम से कम एक शिष्य हो और साथ में अभी बताई गई सब साधना-आराधना की हो तो उन्हें गणि पद देना चाहिए.
Note : दीक्षा पर्याय यानी दीक्षा लेने के बाद का Duration.
गणि पद के कुछ साल बाद पंन्यास पद देना और जब 30 साल का दीक्षा पर्याय हो जाए और Minimum तीन शिष्य हो तो आचार्य पद देना चाहिए. हर एक समुदाय के नियम अलग अलग होते हैं और उसमें अपवाद भी होते हैं.
युगप्रधान आचार्यसम प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चंद्रशेखरविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न प.पू. मुनिराज श्री गुणहंसविजयजी महाराज साहेब का दीक्षा पर्याय 29 साल का हो चुका था और उनके 11 शिष्य भी हो चुके थे लेकिन पद ग्रहण करने से पूर्व की जो साधना थी, वह बाकी थी, जो उन्होंने अभी पूर्ण की.
मुनिराजश्री को पद प्रदान करने का मंगल दिन था तारीख 21 November 2024 गुरु पुष्य नक्षत्र का. प.पू. पंन्यास प्रवर श्री विरागरत्नविजयजी महाराज साहेब मुनिराजश्री को गणि पद देनेवाले थे.
आइए इस अनोखे पद प्रदान की कुछ विशिष्टताएं जानते हैं.
1. मुनिराजश्री ने किसी भी श्रावक-श्राविका को नहीं बताया कि कौन से दिन पदवी होनेवाली है. इतना ही नहीं, मुनि ने अपने संसारी माता-भाई आदि को भी नहीं बताया और किसी भक्त आदि को भी नहीं बुलाया और पदवी कहां पर होगी वह भी किसी को नहीं बताया गया.
2. तारीख 19 November के दिन सभी साधु भगवंत हैदराबाद के पास श्री कुल्पाकजी तीर्थ पहुंचे. वहां पर तारीख 25 November से उपधान की आराधना होनेवाली थी तो सभी को यही लगा कि सभी साधु भगवंत उपधान में निश्रा प्रदान करने के लिए वहां पर पहुंचे हैं.
किसी को अंदाजा भी नहीं हुआ कि उपधान तो है ही लेकिन उपधान से पहले गणि पद देने की महान क्रिया भी है.
3. तारीख 21 November के शुभ दिन प.पू. पंन्यास प्रवर श्री विरागरत्न म.सा. एवं प.पू. मुनिराजश्री गुणहंसविजयजी म.सा. के साथ कुल 13 साधु भगवंत तीर्थ के मंदिर में पहुंचे. वहां मुख्य मंदिर में प्रभु आदिनाथ-प्रभु महावीर स्वामी और प्रभु नेमिनाथ है. मंदिर के बाजू में चौमुखी मंदिर है.
पूज्य पंन्यास श्री ने कहा कि ‘हम चौमुखी मंदिर में ही पदवी प्रदान की क्रिया करते हैं. वहां चौमुखी रूप में चार बड़ी प्रतिमाएं है ही तो हमको समवसरण करवाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. पंचधातु की चार प्रतिमा स्थापित करवाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’
सभी साधु भगवंत चौमुखी मंदिर में पहुंचे और वहां पर सुबह 6:30 बजे पद प्रदान की क्रिया शुरू की गई. उस वक्त शुरुवात में सिर्फ 3-4 भाई और 4-5 बहने उपस्थित थे. वे किसी कारणवश आए हुए थे. जब 7:45 बजे गणि पदवी की सभी क्रिया पूर्ण हुई तब कुल मिलाकर मंदिर में 20 के आसपास लोग होंगे जो पूजा-दर्शन के लिए आए थे और मंदिर में कुछ क्रिया होती हुई देखकर रुक गए थे.
आश्चर्य यह हुआ कि किसी ने भी Mobile से एक Photo भी Click नहीं किया. Jain Media में हम यह Article डाल तो रहे हैं लेकिन पदवी की क्रिया का कोई भी Photo हमारे पास नहीं है. आप बाहर से उस मंदिर का Photo जरुर देख सकते हैं.
नूतन गणिवर्य प.पू. गुणहंसविजयजी महाराज साहेब ने अपने 11 शिष्यों को यह समझाया कि
पदवी Simple ही होनी चाहिए, ऐसा एकांत मत पकड़ना.
पदवी के महोत्सव खराब ही हैं, ऐसा एकांत मत पकड़ना.
पदवी के महोत्सव के बहाने सैंकड़ों-हजारों लोग गुरु भक्ति के भाव से जुड़ते हैं.
उतने दिन संसार के पापों से बचते हैं. अपनी संपत्ति का सुंदर व्यय करते हैं.
पदवी में प्रवचन आदि सुनकर सम्यक्त्व को भी पाते हैं.
‘कामली आदि के चढ़ावे से जो हजारों-लाखों और कभी-कभी तो करोड़ों रुपए की Income होती है, वह साधु साध्वीजी के Hospitals आदि की वैयावच्च में काम आते हैं. ऐसे अनेकों Profit है ही. हाँ, महोत्सव में जो फिजूल खर्च होते हैं, ऐसा दिखावा जिससे शासन को नुकसान हो, वह होता है वह गलत है.
लेकिन हमको अच्छी चीज देखनी, गलत चीजों को सुधारने की मेहनत करनी और अगर ना सुधरे तो कम से कम अपनी Life में उन गलत चीजों का प्रवेश न हो जाए वह ध्यान रखना. मुझे Simple पदवी पसंद थी तो मैंने ऐसा किया लेकिन महोत्सव वाली पदवियां भी अगर शासन प्रभावना आदि का कारण बनती हो, तो वह अनुमोदनिय है ही.’
मुनिराजश्री के एक शिष्य ने उन्हें पूछा कि ‘गुरूदेव! आपको तो पंन्यास पद की अनुमति मिल गई है, तो आपने वह पद क्यों नहीं लिया? गणि पद ही क्यों लिया?’
तब नूतन गणिवर्य श्री ने कहा कि
मेरे गुरुदेव युगप्रधान आचार्यसम प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चंद्रशेखरविजयजी महाराज साहेब ने सिर्फ पंन्यास पद लिया था. मैंने सोचा कि मैं उनसे नीचेवाली पदवी ही लूं, उनके समान पदवी ना लूं. बस इसी कारण से मैंने पंन्यास पद नहीं लिया.
साथ ही पू. गणिवर्य श्री गुणहंसविजयजी म.सा. ने यह भी कहा कि ‘देखो! अपने गुरु के समान या उससे बड़ी पदवी नहीं ले सकते, ऐसा बिल्कुल भी मत मानना. शास्त्रों में गुरु के समान, गुरु से हीन, गुरु से अधिक और अपात्र ऐसे चारों प्रकार के शिष्य बताए ही है.
प.पू. नयविजयजी म.सा. गुरु थे और उनके पास उपाध्याय पद ही था जबकि उनके शिष्य प.पू. यशोविजयजी म.सा. को महोपाध्याय-न्याय विशारद आदि अनेक पद दिए गए थे.’
इससे हम सभी को अनेकांतवाद की एक अमूल्य सीख भी मिलती है कि हम जो करें वही सही हो और बाकी सब गलत हो, ऐसा नहीं होता है. दूसरी चीज भी दूसरे Angles से सही हो सकती है.
Everyone can have a Right POV – Point of View.
जैसे आयंबिल करनेवाला कोई बड़ा तपस्वी है लेकिन उसके सामने एकाशना करनेवाला पापी नहीं बन जाता है. कुरगुडू मुनि तो रोज नवकारसी करते थे और बाकी के साधु घोर तपस्वी थे. फिर भी कुरगुडू मुनि को पहले केवलज्ञान हुआ था.
महापुरुष कुरगुडू मुनि की कथा हम बहुत जल्द प्रस्तुत करेंगे.
पूज्य गुरु भगवंत ने अंत में कहा कि अनेकांतवाद हमें यह भी सीखाता है कि गणि – आचार्य आदि पदवी Simplicity के साथ करो या महोत्सव के साथ करो, दोनों सही हो सकते हैं. बस इतना ध्यान रखना है कि लोग सच्चा धर्म पाए और पदवी लेनेवाले मुनि राग-द्वेष से बचकर रह पाए.
अगर यह होता हो तो दोनों में से कोई भी तरीका सही है. लेकिन अगर ऐसा ना होता हो यानी अगर लोग अधर्म पाए या मुनि को राग-द्वेष हो तो दोनों में से कोई भी तरीका गलत ही है.
यह ही हमारे जिनशासन की ख़ूबसूरती है – अनेकांतवाद.