“अगर यह महापुरुष विदेश में होते तो इनकी सोने की प्रतिमा लगाई जाती”
“एक ऐसे जैन आचार्य जिन्होंने Britishers को भी हिलाकर रख दिया था”
ऐसा कहा जाता है विनम्रता में पूज्य गौतमस्वामीजी का नाम, पवित्रता में स्थूलभद्रजी का नाम, तपस्या में धन्ना अणगारजी का नाम, ग्रंथरचनाओं मे पूज्य हरीभद्रसूरीजी, हेमचंद्राचार्यजी का नाम प्रसिद्ध है, इसी तरह जिनागमों की सुरक्षा के लिए पूज्य ज्ञानतीर्थ, आगमोद्धारक आनंदसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब का नाम प्रसिद्ध हुआ.
भगवान महावीर के शासन में 2550 साल के इतिहास में अनेक जिनशासन प्रभावक महान जैनाचार्य हुए है. उसमें देवर्धिगणी क्षमाश्रमणजी की तरह आगम की सुरक्षा और लेखन के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महान जैनाचार्य पूज्य आगमोधारक आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजा भी हुए.
इस वर्ष यानी 2024 उनका 150वां जन्म वर्ष है. आइए जानते है उनके जीवन से जुड़ी कुछ विशेष बातें और घटनाएं, बने रहिए इस Article के अंत तक.
पुण्यात्मा का आगमन
भविष्य में जिनशासन के जो प्रभावक आचार्य भगवंत होने वाले थे, उनकी आत्मा का गर्भ में आने पर शुभ संकेत स्वरूप माता ने वृषभ का स्वप्न देखा और Pregnancy के 9 महीनों में होने वाले शुभ दोहद यानी इच्छाओं को पूर्ण करने में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण का जीवन चारित्र पढना, ज्ञान पंचमी को उपवास एवं पौषध करना, प्राचीन हस्तलिखित प्रतों की अच्छी व्यवस्था करना, श्री नंदीसूत्र का गुरु मुख से श्रवण करना, जिनालय में प्रतिष्ठा का लाभ लेना आदि अनेक सुकृत कार्य किए.
इस तरह अमावस के शुभ दिन गुजरात के कपडवंज में माता जमना ने एक तेजस्वी और ओजस्वी बालक को जन्म दिया जिसका नाम “हेमचंद्र” रखा गया. छोटी उम्र से ही हेमचंद्र भाई बहुत ही सत्वशाली, बुद्धिशाली और धर्मानुरागी थे. पाठशाला एवं School में वे हमेशा 1st Rank लेकर आते थे और उनके Teachers उन्हें चलती फिरती Dictionary कहते थे.
चमत्कार और दीक्षा
समय बीता और यौवन वय में पूज्य झवेरसागरजी महाराजा के सत्संग से युवा हेमचंद्र भाई का जीवन वैराग्य से भर गया और वे उनके चरणों में दीक्षा लेकर अपना जीवन समर्पित करने के लिए तैयार हुए. जब उन्हें दीक्षा देने का समय निकट आया तब पूज्य झवेरसागरजी महाराज साहब ने रात्रि में प्रतिक्रमण के बाद संथारा किया और रात्रि में 12:30 बजे उनकी नींद खुली.
पूज्यश्री को उस समय मणिभद्रजी द्वारा दिव्य संकेत प्राप्त हुए और हेमचंद्र भाई की योग्यता जानकर उनकी दीक्षा का मुहूर्त माघ सुदि पंचमी का तय हुआ. मुहूर्त के अनुसार हेमचंद्र भाई की लिंबड़ी श्री संघ में दीक्षा हुई और उनका नाम रखा गया प.पू. मुनिराज श्री आनंदसागरजी म.सा.
“आगमोद्धारक” की यात्रा
दीक्षा के बाद से ही मुनिश्री स्वाध्याय में जुड़ गए और मात्र 90 दिन में व्याकरण कंठस्थ कर लिया. पूज्य झवेरसागरजी म.सा. को हमेशा श्रुतज्ञान के रक्षण की चिंता रहती थी. एक बार उन्होंने नूतन मुनि श्री आनंदसागरजी म.सा. से कह दिया कि ‘शासन प्रभावक नहीं श्रुतोपासक बनना, श्रुतप्रभावक बनना!’
मुनिराजश्री की दीक्षा के मात्र 9 महीने बाद पूज्य झवेरसागरजी म.सा. का देवलोकगमन हो गया जिससे मुनिराज श्री निराश-हताश हो गए. अपने गुरु की श्रुतभक्ति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए वे आगमों का अध्ययन करना चाहते थे और उसके लिए योग्य गुरु की तलाश में थे.
एक बार रात को मुनिराजश्री को सपने में पूज्य झवेरसागरजी म.सा. के दर्शन हुए और उन्होंने कहा कि ‘आप तो पूर्व भव के श्रुतधर हो, स्वयं ही पढ़ सकते हो. जो आगम पढना हो, उसे ऊँचे स्थान पर रखकर, वंदन करके और आदेश लेकर पढना शुरू करना लेकिन बिना जोग किए मत पढना!’
अपने गुरु की आज्ञा अनुसार अगले ही दिन मुनिराजश्री ने सबसे पहले श्री दशवैकालिक सूत्र की हरिभद्रिय टीका विधिपूर्वक पढना प्रारंभ की और एकलव्य के जैसे अपने गुरु की छवि को मन में धारण करके पूज्य आनंदसागरजी म.सा. का आगम अभ्यास तेज गति से आगे बढ़ने लगा जो उन्हें आगमोद्धारक बनने तक ले गया.
वर्ष 1904 में शासन सम्राट श्री नेमीसूरीजी म.सा. के आग्रह एवं आदेश से पूज्यश्री ने पंन्यास पद ग्रहण किया.
वर्ष 1908 में सूरत में चातुर्मास के दौरान पूज्यश्री ने शास्त्रों की अवदशा देखकर आगमों का मुद्रण करवाया और आगमों की अनमोल धरोहर को जिनशासन की आनेवाली Generations के लिए Preserve करने का उपकार किया. इस अद्भुत एवं अविश्वसनीय कार्य के लिए सूरत श्री संघ ने पूज्यश्री को “आगमोद्धारक” का पद प्रदान किया.
पूज्यश्री ने – जब Britishers हमारे आगम शास्त्रों को खरीद रहे थे तब शास्त्रों को बचाने और सुरक्षित करने के लिए जैनानंद पुस्तकालय की स्थापना की जिसके बारे में पुणे के श्रुत भवन संस्था के विद्वान मुनिश्री वैराग्यरतिविजयजी म.सा. ने लिखा है कि ‘जैनानंद जैसा संग्रह अन्य कोई ज्ञान भंडार में नहीं है.’
सर्वमान्य पंडित जी सुखलाल जी ने तो यहां तक कह दिया कि ‘अगर यह महापुरुष विदेश में होते तो इनकी स्वर्ण की प्रतिमा वहां लगाई जाती!’
तीर्थ रक्षा में योगदान
A. शिखरजी तीर्थ रक्षा
India पर British Rule के समय में अंग्रेजों ने 20 तीर्थंकर परमात्मा की निर्वाण भूमि श्री शिखरजी तीर्थ के पर्वत पर बंगले बनाने का Plan किया. जैसे ही यह बात पूज्यश्री को पता चली तब उनके तीर्थ रक्षा के वीर रस झरते हुए प्रवचनों के द्वारा मुंबई के सैंकड़ों झवेरी के युवानों में जिनशासन की खुमारी जागी.
वे शिखरजी रक्षा आंदोलन के लिए तैयार हुए जिससे British Empire की नींव हिल गई और उन्होंने अपना बंगले बनाने का Plan रद्द कर दिया. दीर्घदर्शी पूज्यश्री ने भविष्य में तीर्थ रक्षा की दृष्टी से जैन संघों को प्रेरणा देकर और द्रव्य राशि इकठ्ठा करके श्री आणंदजी कल्याणजी पेढी के माध्यम से शिखरजी पर्वत खरीद लिया जो आज भी जैन संघ के अधिकार में है.
आज शिखरजी को लेकर कई विकट परिस्थितियां उत्पन्न हो रही हैं, लेकिन यदि आज पूज्य श्री विद्यमान होते तो इन विकट परिस्थितियों का निर्माण ही नहीं होता ऐसा कहना शायद गलत नहीं होगा.
B. सिद्धाचल पर सीढियों का निर्माण
आजादी से पहले पालीताना के लालची ठाकुर राजा ने शत्रुंजय की यात्रा पर आनेवाले हर व्यक्ति से 1 सोनामहोर यानी 1 Gold Coin तीर्थ यात्रा के Tax के रूप में लेना शुरू किया, जिससे जैन संघ में हलचल मच गई और Middle Class श्रावकों के लिए संकट खड़ा हो गया कि ‘शत्रुंजय की स्पर्शना कैसे करना?’
उस समय पूज्य नेमी सुरि महाराजा और पूज्य सागर जी महाराजा ने यात्रा बंद की उद्घोषणा करवाई और Court में तीर्थ यात्रा Tax के खिलाफ Case File किया. Court ने जैनों को हर साल राजा को 10 हजार रूपए चुकाने का निर्णय दिया. पहले के समय में 10 हज़ार यानी बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी.
उस समय पूज्यश्री ने सोचा कि हर साल इतना पैसा इकठ्ठा करने में परेशानी होगी और यह सोचकर अद्भुत प्रवचन सिद्धि के स्वामी पूज्यश्री ने अहमदाबाद में तीर्थ रक्षा के संबंध में जागरूक किया जिसके माध्यम से 4 लाख चांदी के सिक्के इकट्ठे हो गए. अन्य जैन संघों को जब इस आश्चर्यकारक प्रसंग का पता चला तो वे भी इस कार्य में जुड़े और अन्य संघों से 8 लाख सिक्के इकट्ठे हो गए. इस तरह कुल 12 लाख चांदी के सिक्के इकट्ठे हुए.
उस समय में Social Media नहीं था लेकिन तीर्थ रक्षा को लेकर श्रावक श्राविकाओं में कितनी जागरूकता थी. अभी वर्तमान में क्या कुछ चल रहा है सबको पता ही है, क्या अपना तन, मन, धन तीर्थ रक्षा को अर्पण करने के लिए तैयार है? खुद से पूछने जैसा है!
यह धन श्री आणंदजी कल्याणजी पेढी को सौंपा गया जिसके ब्याज से हर साल राजा को Tax दिया जाता था. Independence के बाद 1948 में यह नियम ख़त्म हो गया. तब पेढी के अधिकारीयों द्वारा पूज्यश्री से यह पूछा गया ‘इस धन राशी का क्या उपयोग किया जाना चाहिए?’
तब पूज्य सागरजी म.सा. ने कहा कि ‘गिरिराज की संपत्ति का उपयोग गिरिराज पर ही कीजिए. इससे सीढियां बनवाकर यात्रा को आसान बना दीजिए.’ आज जो हम गिरिराज की यात्रा आसानी से कर पाते हैं उसमें पूज्य सागरजी म.सा. का बहुत बड़ा योगदान और प्रेरणा है. अब से जितनी बार शत्रुंजय की यात्रा करने में आए ज़रूर इन महात्मा को याद करके वंदन करने जैसा है.
बाल दीक्षा के संरक्षक
वर्ष 1934 में गुजरात के छाणी गांव की यह घटना है. एक दिन एक श्राविका बहन अपने 6 साल के पुत्र के साथ पूज्यश्री के पास आए और बाल दीक्षा के विषय में पूज्यश्री के विचार जानकर अपने पुत्र को दीक्षा दिलवाने की इच्छा व्यक्त की. उस समय वडोदरा में गायकवाड सरकार का राज था जिसमें बाल दीक्षा पर Ban था.
पूज्यश्री ने श्राविका बहन को आश्वासन दिया और अगले दिन सुबह सभी के आश्चर्य के बीच पूज्यश्री ने एक बालमुनी के साथ उपाश्रय में प्रवेश किया. बाल दीक्षा पर Ban था फिर भी दीक्षा दे दी, तो पूरे गांव में हाहाकार मच गया और Court में Case दर्ज हुआ. पूज्यश्री ने स्वयं के लिए वकील करने से मना कर दिया और जब पूज्यश्री से Court में यह पूछा गया कि बाल दीक्षा यहाँ पर Ban होने पर भी दीक्षा क्यों दी?
तब पूज्यश्री ने उनको बताया कि उन्होंने वडोदरा Railway Station पर 2 Railway Tracks के बीच में 3 श्रावकों की साक्षी में दीक्षा दी है, उस क्षेत्र की मालिकी आपके पास नहीं बल्कि केंद्र सरकार के पास है. यानी उन्होंने किसी भी प्रकार का नियम नहीं तोड़ा है.
जज साहब भी इनके तर्क सुनकर हैरान रह गए, Case Dismiss हो गया और गायकवाड ने पूज्यश्री की बुद्धिमता से प्रभावित होकर अनेक जैन शास्त्रों का प्रकाशन करवाया.
वे बाल मुनि और कोई नहीं, बल्कि पूज्य सागरजी म.सा. के अंतेवासी शिष्य परम पूज्य मुनिराज श्री अरुणोदय सागरजी महाराज साहेब थे.
आगम भक्ति
आगमोद्धारक सागरजी म.सा. द्वारा आगमों से Related कई प्रकार के अद्भुत कार्य किए गए जैसे
A. आगम मंदिर निर्माण
‘ग्रंथ सलामत तो पंथ सलामत’ इस कहावत के अनुसार पूज्यश्री ने तीर्थंकर परमात्मा की वाणी और जिनशासन का सार ऐसे आगमों को लंबे समय तक Preserve करने के लिए पालीताना में आगम मंदिरों का निर्माण करवाया जिसमें आरस यानी पाषाण के पत्थरों पर 45 आगमों को अंकीत करवाया.
दूसरा आगम मंदिर सूरत शहर में बनवाया जहाँ ताड़पत्र पर आगम अंकित करवाए. ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि इस चौबीसी की अप्रतिम और अद्वितीय कलाकृति है आगम मंदिर. हम श्रावकवर्ग के दिमाग में भी ना बैठे वैसे जिनागमों के रक्षण के कार्य पूज्यश्री द्वारा किए गए हैं.
B. आगम वाचना प्रवाह
आज से लगभग 1500 साल पहले श्री देवर्धिगणि क्षमाश्रमणजी म.सा. के समय में शास्त्रों को यानी आगमों को पुस्तकारूढ़ यानी लिखवाने का कार्य किया गया था जिसकी संपूर्ण कथा हमने Jain Media पर पहले देखी थी.
इसी इतिहास को दोहराते हुए पूज्य सागरजी म.सा. ने आगमों को प्रकाशित करवाकर हमें ज्ञान भंडारों से समृद्ध बनाया था और ज्ञान समृद्ध बनाने हेतु पूज्यश्री ने आगम वाचनाओं का आयोजन भी किया था. पूज्यश्री की यह आगम वाचनाएं 6 – 6 महीनों तक चलती थी जिसका लाभ जिनशासन के सभी समुदाय के साधु साध्वीजी भगवंत लेते थे.
इस प्रकार 7 आगम वाचनाएं हुईं जिनमें कुल 2 लाख 32 हजार श्लोक प्रमाण की वाचना पूज्यश्री द्वारा दी गई. जो लोग ऐसा कहते हैं कि दीक्षा के बाद साधु भगवंत क्या ही तो करते हैं, उन्हें ऐसा बोलने से पहले जिनशासन के महात्माओं के बारे में जान लेना चाहिए.
ज्ञानोपासक
पूज्यश्री की ज्ञान की उपासना के बारे में आइए कुछ Details जानते हैं.
- पूज्यश्री ने 8,21,457 श्लोक प्रमाण और 175 की संख्या में आगम, प्रकरण, सैद्धांतिक ग्रंथों का संपादन किया.
- 70 से 80 हजार श्लोक प्रमाण 223 ग्रंथों का नया सर्जन.
- 20 हजार श्लोक प्रमाण गुजरती एवं हिंदी ग्रंथों का सर्जन.
- पूज्यश्री ने प्राचीन 80 ग्रंथों पर कठिन संस्कृत भाषा में 15 हजार श्लोक प्रमाण प्रस्तावना लिखी, जो विद्वान ही पढ़ सकते हैं तथा ग्रंथों में जो छपी हुई है. आज भी कई विद्वान जब ये ग्रन्थ पढ़ते हैं तो प्रस्तावना का अर्थ करना भी उनके लिए बहुत कठिन होता है.
- 2 लाख श्लोक प्रमाण आगम आदि ग्रंथों का 24 x 30 Size के Paper पर सर्वांग शुद्ध मुद्रण यानी आगम मंजुषा का मुद्रण पूज्यश्री ने करवाया था.
इन सभी के आलावा भी पूज्य सागरजी म.सा. द्वारा अनेक ग्रन्थ, प्रकरण, अष्टक आदि की रचना की गई जो आज भी हस्तलिखित प्रतों में मौजूद हैं. ज्ञान के क्षेत्र में इतना विशाल कार्य पूज्यश्री ने किया लेकिन कभी भी संध्या या रात्रि के समय में दीपक या Light का उपयोग नहीं किया.
राज प्रतिबोधक
जिस प्रकार कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचंद्राचार्यजी ने 18 देश के महाराजा कुमारपाल को प्रतिबोध देकर 6 महीने का अमारी प्रवर्तन यानी उनके समस्त राज्य में किसी भी प्रकार की हिंसा पर रोक लगवाई थी, उसी प्रकार पूज्यश्री ने भी मालव प्रदेश जिसे आज हम Madhya Pradesh के नाम से जानते हैं वहां के सैलाना, पंचेड और सेमलिया नरेश को प्रतिबोध कर उनके राज्य में 6 महीने तक अमारी प्रवर्तन का शंखनाद करवाया था.
श्रुतज्ञान, तीर्थ रक्षा, ज्ञानोपासना के इतने महान और बड़े कार्य करने के बाद भी पूज्यश्री का स्वाभाव इतना सरल था कि वे कभी स्वयं के नाम के साथ ‘आचार्य अथवा सूरीजी’ शब्द का प्रयोग नहीं करते थे. मात्र आगम पाठ प्रमाणिक बने, इस लक्ष्य से आरस और ताम्र पत्र के आगम पाठों पर, आगमप्रतों पर आचार्य शब्द का प्रयोग करते थे.
इसके अलावा श्री केसरियाजी के देरासर पर ध्वजा चढाने के अवसर पर आचार्य अथवा सूरीजी शब्द का प्रयोग किया था ताकि जैनाचार्य के संस्थापक होने का इतिहास सुरक्षित रहे. कितनी अद्भुत और उत्कृष्ट निस्पृहता!
अलौकिक समाधिमरण
सैंकड़ों वर्षों में Rarely ऐसा होता है, वैसी घटना पूज्यश्री के समाधीमरण के समय घटित हुई. पूज्य सागरजी म.सा. ने अपनी आत्म साधना के बल से उनका अंतिम समय निकट है, यह जानकर आहार-औषधि-उपधि का सम्पूर्ण त्याग कर अर्धपद्मासन मुद्रा में बैठकर ध्यान में लीन हो गए. 15 दिनों तक यही क्रम चला.
इतना ही नहीं, रात्रि में भी पूज्य सागरजी म.सा. इसी प्रकार रहते थे. 15 दिन पूज्यश्री ने संथारा नहीं किया यानी निद्रा नहीं ली.
ज्येष्ठ महीने की वदि पंचमी के दिन शाम को 4 बजकर 32 Minute पर इसी अर्धपद्मासन मुद्रा में ही आगमोद्धारक परम पूज्य आनंदसागरजी म.सा. ने देवलोक की ओर महाप्रयाण किया. पूज्यश्री की साधना इतनी उत्कृष्ट यानी Topmost Level की थी कि उन्होंने देवलोकगमन से 15 दिन पहले ही यह कह दिया था कि उनका देवलोकगमन का दिन पंचमी से छठ का नहीं होगा.
कैसा अकल्पनीय ज्ञान और आत्म जागृति रही होगी पूज्यश्री की!
सिद्धांत महोदधि प.पू. आचार्य श्री प्रेमसूरिश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न शास्त्रज्ञ, विद्वान प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय कुलचंद्रसूरिश्वरजी म.सा. के पूज्य आनंदसागरजी म.सा. के लिए यह शब्द है
पूज्य पुण्यविजयजी महाराज साहेब जो आगम संशोधक के रूप में प्रसिद्द थे, उन्होंने एक बार कहा था
ऐसे ऐसे रत्न जिनशासन को प्राप्त हुए हैं. ऐसे महान जैन आचार्य को हम अंतर्मन से वंदन करते हैं, जिन्होंने खुद से पहले जिनशासन को, जैन आगमों को रखा.