Mr. World To Monk – The Truly Inspirational Story Of Sanat Chakravarti

सनत चक्रवर्ती - इतना रूप, इतनी शक्ति लेकिन फिर भी सबकुछ छोड़ दिया 🙏

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By Jain Media 51 Views 9 Min Read

आज हम सनत चक्रवर्ती की कथा देखेंगे. 
बने रहिए इस Article के अंत तक.

कुरू देश के गजपुर नगर में सनतकुमार राज्य करते थे. उन्होंने सर्व राजा-रजवाड़ों को वश करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था. वे बहुत रूपवान थे यानी Handsome थे. ऐसा कह सकते हैं कि उस वक्त उनके जैसा सुन्दर रूप लगभग पृथ्वी पर किसी का भी नहीं था. 

वे उस समय के Miss World नहीं Mr. World थे. 

एक बार देवलोक में इंद्र महाराजा ने देवों की सभा में सनतकुमार के रूप की बहुत प्रशंसा की. इंद्र महाराज की वाणी सुनकर 2 देवों को शंका हुई. खेद पाकर दोनों देव सनत चक्रवर्ती के रूप की परीक्षा करने मनुष्य का वेश धारण कर सनतकुमार के पास उनके महल में पधारे. 

उस समय सनतकुमार नहाने बैठे थे. उनका रूप देखकर दोनों देव हर्षित हुए. ‘सचमुच, जगत में किसी का भी नहीं हो ऐसा रूप है इनका’ यह सोचकर देवों ने सनतकुमार से कहा कि ‘हम आपका रूप देखने के लिए बड़ी दूर से आए हैं. वाकई परमात्मा ने आपको अद्भुत रूप दिया है.’

ऐसा कहकर दोनों देवों ने सनत चक्रवर्ती के रूप की खूब प्रशंसा की. सनतकुमार ने अपनी तारीफ़ सुनकर देवों के रूप में रहे ब्राह्मणों से कहा ‘इस समय मेरी यह काया स्नान के हेतु उबटन से यानी Facepack अथवा Bodypack से भरी हुई है और इस कारण से आप मेरे रूप को बराबर से नहीं देख पाएंगे. 

मैं नहाने के बाद पोषाक यानी कपडे और अलंकार यानी Jewellery पहनकर जब राज्यसभा में बैठूँगा तब आप मेरा रूप देखिएगा और आनंद लीजिएगा. अगर आपको सही मायने में मेरा सुंदर रूप देखना हो तो राज्यसभा में अवश्य पधारना.’

राज्यसभा की तैयारी हुई. सनतकुमार आभूषण वगेरह से सज-धजकर आए और दोनों देव भी मनुष्य के वेश में सनतकुमार का रूप निहारने पधारे. लेकिन एक बहुत ही आश्चर्यचकित कर देनेवाली घटना वहां घटी. 

देवों को जब सनतकुमार स्नान करने बैठे थे उस समय का सुंदर रूप तो अब यहाँ नहीं दिखा लेकिन उनकी काया रोगों से भरी हुई दिखाई दी. देवों ने सनतकुमार को कहा कि ‘महाराज, आपकी काया यानी शरीर सुंदर और रूपवान नहीं लग रही है बल्कि आपकी काया तो रोगों से भरी हुई दिख रही है.’

सनत चक्रवर्ती को मानसिक ठेस पहुँची, बहुत बुरा लगा लेकिन उसने देव के रूप में रहे मनुष्यों से पूछा कि ‘मेरे रूप में क्या कमी है? मैं कहाँ रोगी हूँ?’ देवों ने सनत चक्रवर्ती को असलियत बताते हुए कहा ‘हे चक्रवर्ती! एक नहीं बल्कि 16-16 रोगों से आपकी काया भरी हुई है.’ 

यहां एक चीज समझने जैसी है कि जिसे अपने रूप पर गर्व होता है वह कभी भी यह मानने को तैयार नहीं होता है कि वह बदरूप या कुरूप है क्योंकि उसे विश्वास ही नहीं होता. सनत चक्रवर्ती ने यह सुनकर क्रोधित होते हुए अभिमानपूर्वक कहा ‘आप पिछड़ी बुद्धि के व्यक्ति हैं इसलिए आपको सब गलत ही नजर आ रहा है.’ 

उन्होंने कहा ‘महाराज, आप एक बार थूंककर देखिए तो सही.’ सनत चक्रवर्ती का मुख तांबूल से यानी पान अथवा मुखवास से भरा हुआ था. उन्होंने थूंककर देखा तो उसमें असंख्य कीड़े बिलबिलाते हुए दिखे. 

वे यह देखकर सोचने लगे ‘हे प्रभु! अरे.. अरे! यह कैसी दशा मेरी काया की? बाहर से रूपवान, मनमोहक और अंदर से सड़ी हुई? इस काया का क्या भरोसा?’ 

सनत चक्रवर्ती ने ऐसा सोचकर उनके चक्रवर्ती पद का, 6 खण्ड का, राजपाट का, परिवार और समाज का त्याग कर दिया और एक मात्र मोक्ष के सुख को दिलाने में सक्षम ऐसे चारित्र धर्म को ग्रहण कर लिया यानी दीक्षा लेकर सनत चक्रवर्ती जैन साधु बन गए. 

सनत चक्रवर्ती के राज्य के सेनापति, उनकी पत्नियाँ, उनके स्वजन वगेरह सभी उनके सामने हाथ जोड़कर उन्हें राज्य में रहकर राज्य चलाने की विनती करने लगे लेकिन कुछ भी सुने बिना सनत चक्रवर्ती चारित्र में अडिग रहे. 

जिन्हें तीव्र वैराग्य आ जाता है उन्हें फिर कोई रोक नहीं सकता. उन्होंने एक क्षण में सब त्याग कर दिया और विहार करके चले गए. सनत चक्रवर्ती जो अब पंच महाव्रतधारी जैन साधु बन चुके थे वे सम्यग् दर्शन-ज्ञान और चारित्र रुपी रत्नत्रयी की आराधना करके मोक्ष रुपी लक्ष्मी को साधने लगे. 

सनत मुनि ने अपनी आराधना-साधना-तपस्या के बल पर कई लाब्धियों को प्राप्त किया. सनत मुनि उग्र तपस्या करते थे. इतनी उग्र तपस्या करने के कारण उनका शरीर बहुत कृष यानी Lean हो गया था और साथ ही उन्हें कुष्ट रोग यानी Leprosy का रोग हो गया था जिसके कारण उनके शरीर में से निरंतर विष्टा निकल रही थी.

एक बार देवलोक में इंद्र महाराजा ने पुनः सनत मुनि के संयम और निःस्पृहता व उनकी लब्धि की प्रशंसा की. तब वापस एक देव को सनत मुनि की परीक्षा लेने का मन हुआ. उस देव ने वैद्य यानी उस समय के Doctor का रूप धारण किया और वे सनत मुनि के पास पहुँचे. 

सनत मुनि एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में लीन थे. वैद्य के रूप में देव वहां उपस्थित हुआ. उसने सनत मुनि की यह हालत देख उन्हें कहा ‘मैं एक वैद्य हूँ और मैं आपका इलाज कर सकता हूँ. कृपया मुझे आपका इलाज करने दें.’ 

तब सनत मुनि ने वैद्य से कहा ‘मुझे कोई इलाज नहीं कराना है. मुझे मेरे कर्मों का क्षय करना है और इसलिए भले ही रोग का हमला हो लेकिन मुझे इलाज कराना ही नहीं है. मुझे तपस्या के बल से कई विद्याएँ प्राप्त हुई हैं. औषधियां भी मेरे पास उपलब्ध हैं.’ 

इतना कहकर सनत मुनि ने रोग से पीड़ित अपनी एक ऊँगली पर थुंका और चमत्कार हुआ. वह ऊँगली एकदम रोग मुक्त हो गई. इतना ही नहीं सोने की तरह चमकने भी लगी. सनत मुनि ने वैद्य से कहा ‘यह देखिए, मेरा यह थूंक मैं जहाँ भी लगाऊँ वहाँ सब ठीक हो जाता है और काया कंचनवर्णी हो जाती है.’

स्वयं के पास लाब्धियाँ होने के बावजूद खुद का इलाज सनत मुनि ने नहीं किया. सनत मुनि के पास ऐसी लब्धि देखकर देव प्रसन्‍न होकर अपने स्थान पर वापस लौट गए. सनत मुनि से रोगों का परिषह 700 वर्षों तक समता पूर्वक सहन किया और इतने वर्षों में कभी एक बार भी रोग का उपचार ना खुद किया और ना ही किसी से करवाया. 

रत्नत्रयी की आराधना करते हुए सनत मुनि आयुष्य समाप्त होने पर तीसरे देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए और वहां से दूसरा भव करके वे सिद्धशीला पर आरूढ़ हो जाएंगे यानी मोक्ष में जाएंगे. 

महात्माओं के पास अद्भुत लब्धियां होती है पर उसका इस्तेमाल वे कभी भी खुद के लिए नहीं करते क्योंकि उन्हें शरीर पर तनिक भी यानी थोड़ी भी ममता नहीं होती. शरीर और आत्मा को वह अलग अलग ही मानते हैं और अनुभव करते हैं. 

शरीर को वह भाड़े का घर मानते है और इसलिए उस पर ममता या मोह उन्हें नहीं होता. हम अपने शरीर को खुद का घर मानते हैं या भाड़े का? हमें खुद से ये प्रश्न पूछना होगा.

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