एक प्राचीन प्रतिमा का सफर
गिरनार… नेमिनाथ भगवान…
यह शब्द सुनते ही हमारे मन में ख़ुशी की लहर दौड़ उठती है, मन आनंद से झूम उठता है।
भूतकाल में अनंत तीर्थंकरों की दीक्षा-केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक से पावन बनी हुई एवं वर्त्तमान चौबीसी के 22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान और उनके 3-3 कल्याणकों से पावन बनी हुई प्रायः शाश्वत गिरनार की पावन भूमि हम सभी के दिल में बसी हुई है।
गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ भगवान के स्पर्श के लिए कई भक्त तरसते हैं और आज हम श्री नेमिनाथ भगवान की उसी प्रतिमा की Golden History जानेंगे।
तो, प्रस्तुत है Girnar History का Episode 01
बने रहिए इस Article के अंत तक।
सागर तीर्थंकर और नरवाहन राजा
नेमिनाथ भगवान की इस अद्भुत प्रतिमा का इतिहास जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की पिछली चौबीसी के तीसरे तीर्थंकर यानी श्री सागर तीर्थंकर से शुरू होता है।
सागर तीर्थंकर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद वे अलग अलग क्षेत्रों में विचरण करते हुए एक बार उज्जैनी यानी आज के उज्जैन शहर के बाहर एक उद्यान में आए। वहां पर देवताओं ने समवसरण की रचना की।
उस समय उज्जैनी के नरवाहन राजा ने सागर तीर्थंकर की देशना सुनी। उन्होंने परमात्मा से पूछा ‘हे प्रभु। मुझे मोक्ष कब मिलेगा?’ प्रभु ने बताया ‘अगली चौबीसी में, जब बाईसवें तीर्थंकर, बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान का शासन होगा, तब तुम्हें मोक्ष मिलेगा।’
यह सुनकर नरवाहन राजा को वैराग्य हो गया और उन्होंने भगवान से दीक्षा ली और तप-त्याग-ज्ञान-ध्यान में लीन हो गए। नरवाहन मुनि का आयुष्य पूर्ण होने पर वे पांचवें देवलोक में 10 सागरोपम की आयुष्य वाले इंद्र बने।
मोक्ष का वर्णन
एक बार श्री सागर तीर्थंकर विचरण करते हुए चंपापुरी नगरी के एक बड़े उद्यान में आए। प्रभु ने समवसरण में देशना देनी शुरू की जिसमें उन्होंने सिद्धजीवों और सिद्धशिला के बारे में बताया।
प्रभु ने बताया कि ‘45 लाख योजन में फैली हुई, उल्टे छाते जैसी, सफेद रंग की सिद्धशिला है।
यह 14 राजलोक में सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान से 12 योजन ऊपर है। इस जगह को मोक्ष कहते हैं।
मोक्ष के कई नाम हैं जैसे मुक्ति, सिद्धि, परमपद, भवनिस्तार, अपुनर्भव, शिव, निर्वाण, अमृत, महोदय, ब्रह्म और महानंद। उस मुक्तिपुरी में अनंत सिद्ध जीव अनंत सुख में रहते हैं।’
परमात्मा ने आगे बताया कि ‘सर्वार्थसिद्ध विमान में निर्मल अवधिज्ञान वाले महेंद्रों को एक करवट बदलने में 16 सागरोपम और दूसरी करवट बदलने में 16 सागरोपम का समय लगता है। इस तरह वे 33 सागरोपम की उम्र वे इस तरह के सुख में सोते हुए ही पूरी करते हैं।
इस तरह के सुख से भी अनंत गुना सुख मोक्ष में है।’ ये सब Detail में आप ज्ञानी गुरु भगवंत से जान सकते हैं। इसी देशना में नरवाहन राजा जो पांचवें देवलोक में इंद्र-ब्रह्मेंद्र देव बन गए थे वह भी मौजूद थे।
तो श्री सागर तीर्थंकर की इस देशना सुनकर उन्हें स्वर्ग के सुखों से भी वैराग्य यानी Detachment हो गया। उन्होंने भगवान को वंदन किया और पूछा ‘हे प्रभु। क्या मेरे जन्म-मरण का चक्र कभी रुकेगा या नहीं? क्या मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी?’
उनकी शंका दूर करते हुए प्रभु ने कहा कि
हे ब्रह्मदेव। तुम आनेवाली अवसर्पिणी में श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ भगवान) नामक बाईसवें तीर्थंकर के वरदत्त नामक पहले गणधर बनोगे यानी प्रथम शिष्य बनोगे, भव्य जीवों को ज्ञान दोगे, सभी कर्मों का नाश करोगे और रैवतगिरि यानी गिरनार पर्वत से मोक्ष को प्राप्त करोगे। यह बात बिल्कुल निश्चित है।
प्रभु के इन अमृत वचनों को सुनकर ब्रह्मेंद्र बहुत खुश हुआ और वह सागर प्रभु को आदरपूर्वक वंदन करके अपने देवलोक में चला गया।
आइए अब जानते हैं आखिर किस तरह हुआ था हमारे प्यारे नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा का निर्माण।
नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा का निर्माण
देवलोक में जाकर ब्रह्मेंद्र देव ने सोचा कि ‘अहो। मेरे अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाले, मेरे संसार के तारणहार श्री नेमिनाथ भगवान की उत्कृष्ट रत्नों की मूर्ति बनाकर, उनकी भक्ति से मैं अपने कर्मों का नाश करूँ।’
इस भावना के साथ, देव ने नेमिनाथ भगवान की वज्रमय यानी हीरे जैसी कठोर प्रतिमा बनवाई, जिसकी चमक बारह-बारह योजन तक फैलती थी। 10 सागरोपम Time तक वह देव हर दिन, जो कभी नष्ट नहीं हो सकती ऐसी प्रतिमा की संगीत, नृत्य और नाटकों द्वारा उपासना करते रहे।
इस तरह श्री नेमिनाथ प्रभु की भक्ति में लीन होकर, अपने आयुष्य को पूर्ण करके, ब्रह्मेंद्र देव वहां से च्यवन होकर यानी अवतरित होकर, कई बड़े-बड़े भव प्राप्त करके वह नेमिनाथ भगवान के समय में पुण्यसार नामक राजा बने।
पुण्यसार राजा और गणधर पद
केवलज्ञान प्राप्ति के बाद श्री नेमिनाथ प्रभु समवसरण में पहली देशना दे रहे थे। प्रभु ने अपनी देशना में कहा ‘यह पुण्यसार राजा पूर्वभवों में स्वयं द्वारा बनवाई गई मूर्ति की 10 सागरोपम तक की गई भक्ति के प्रभाव से मेरे, वरदत्त नामक पहले गणधर बनेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे।’
तब श्री नेमिनाथ प्रभु के समय के पांचवें देवलोक के ब्रह्मेंद्र देव, जो उस देशना में थे, वे भगवान को नमस्कार करके कहते है ‘हे भगवंत। आपकी उस प्रतिमा को मैं आज भी पूजता हूं, और मेरे पूर्व के इंद्रों ने भी भक्ति से उसकी उपासना की है।
पांचवें देवलोक में उत्पन्न होने वाले सभी ब्रह्मेंद्र आपकी उस प्रतिमा की पूरी भक्ति करते थे। आज आपके बताने पर ही इस प्रतिमा की अशाश्वतता का पता चला है। हम तो इसे शाश्वत ही मानते थे।’
शाश्वत यानी Immortal यानी जो कभी नष्ट नहीं होगा, जो अनंत काल से है और अनंत काल तक रहेगा। अशाश्वत यानी Mortal यानी उसका निर्माण हुआ है और जो एक ना एक दिन नष्ट हो जाएगा, ख़त्म हो जाएगा।
जैसे हमारी आत्मा शाश्वत यानी Immortal है लेकिन शरीर अशाश्वत यानी Mortal है।
ब्रह्मेंद्र की बात सुनकर श्री नेमिनाथ प्रभु कहते हैं कि ‘हे इंद्र। देवलोक में अशाश्वती प्रतिमा नहीं होती है इसलिए आप उस प्रतिमा को पृथ्वीलोक पर ले आओ।’
प्रभु की आज्ञा से इंद्र तुरंत उस मूर्ति को लेकर आते हैं और श्री नेमिनाथ भगवान के चचेरे भाई श्री कृष्ण महाराजा अति आनंद के साथ वह मूर्ति को पूजा करने के लिए लेते हैं।
गिरनार पर्वत की महिमा
श्री नेमिनाथ प्रभु अपनी देशना में आगे बताते हैं कि ‘रैवताचलगिरि यानी गिरनार पर्वत, पुंडरिक गिरिराज यानी शत्रुंजय गिरिराज का सोने जैसा पांचवां मुख्य शिखर है, जो मंदार और कल्पवृक्ष जैसे उत्तम पेड़ों से घिरा हुआ है।
यह महान तीर्थ हमेशा भव्य जीवों के पापों को धोता है। इसके स्पर्श मात्र से हिंसा के पाप दूर हो जाते हैं। सभी तीर्थों की यात्रा का फल देने वाले इस गिरनार के दर्शन और स्पर्श मात्र से सभी पाप नष्ट होते हैं।
इस गिरनार तीर्थ पर आकर जो सही कमाई वाले धन का सदुपयोग करते हैं, उन्हें जन्मों-जन्मों तक संपत्ति मिलती है। जो यहां आकर भाव से जिनप्रतिमा की पूजा करते हैं, वे मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं, तो मानव सुख की तो बात ही क्या करनी?
जो यहां सद्गुरु भगवंतों को शुद्ध अन्न, वस्त्र और पात्र दान करते हैं, वे मोक्ष यात्रा में आगे बढ़ते हैं।
इस रैवतगिरि पर स्थित पेड़ और पक्षी भी धन्य और पुण्यशाली हैं, तो मनुष्यों की तो बात ही क्या करनी?
देवता, ऋषि, सिद्धपुरुष, गंधर्व और किन्नर आदि हमेशा इस तीर्थ की सेवा करने आते हैं। गिरनार पर रहे हुए गजपद कुंड आदि अन्य कुंडों का अलग-अलग प्रभाव है, जिसमें केवल 6 महीने स्नान करने से प्राणियों के कुष्ठ आदि रोग नष्ट होते हैं।
गजपद कुंड का इतिहास हम आनेवाले Episodes में अवश्य जानेंगे।
प्रतिमा का भविष्य और वर्तमान स्थिति
इस प्रकार बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान के मुख से सभी गिरनार तीर्थ की महिमा सुनते हैं। उस अवसर पर श्री कृष्ण महाराजा प्रभु से पूछते हैं कि ‘हे प्रभु। यह प्रतिमा जो मेरे महल में स्थापित करवानी है, वह वहां कितने समय तक रहेगी? इसके बाद इसकी कहां-कहां पूजा होगी?’
श्री नेमिनाथ प्रभु बताते हैं कि ‘जब तक द्वारिकापुरी रहेगी तब तक यह प्रतिमा महल में पूजी जाएगी। उसके बाद कांचनगिरि पर देवताओं द्वारा इसकी पूजा होगी।
मेरे निर्वाण के 2000 वर्ष बाद अंबिका देवी की आज्ञा से एक उत्तम भावना वाला रत्नसार नामक व्यापारी एक गुफा में से प्रतिमा को रैवतगिरि यानी गिरनार पर्वत के जिनालय में स्थापित कर, पूजा करेगा।
बाद में 1,03,250 वर्ष तक यह प्रतिमा वहां रहकर फिर वहां से अदृश्य हो जाएगी।
उस समय दुषम-दुषम काल शुरू होते ही यानी छठ्ठा आरा यानी इस अवसर्पिणी काल का सबसे बुरा समय शुरू होते ही, अधिष्ठायिका अंबिका देवी उस प्रतिमा को पाताल लोक में ले जाकर वहां उसकी पूजा करेंगी।’
अभी के समय की अगर बात करें तो गिरनार पर्वत पर विराजमान श्री नेमिनाथ भगवान की अद्भुत प्रतिमा का इतिहास यह बताता है कि यह प्रतिमा पिछली चौबीसी के तीसरे सागर नामक तीर्थंकर परमात्मा के समय में पांचवें ब्रह्मलोक देवलोक के ब्रह्मेंद्र द्वारा बनवाई गई है।
इसी कारण से भारत में यह वर्तमान में सबसे प्राचीन प्रतिमा मानी जाती है।
श्री नेमिनाथ भगवान के निर्वाण यानी मोक्ष के बाद यह प्रतिमा सुश्रावक रत्नसार सेठ को कैसे प्राप्त हुई?
वर्त्तमान में गिरनार के कर्णविहार प्रासाद में श्री नेमिनाथ भगवान की जो प्रतिमा है, वो वहां तक कैसे पहुंची?
इसका इतिहास हम जानेंगे अगले Episode में।


