Story Of Ratnasar Shravak : The Man Who Brought Neminath Bhagwan to Girnar Tirth | Episode 02

रत्नसार श्रावक नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा को गिरनार किस तरह लाए?

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रत्नसार श्रावक की तीर्थ भक्ति

गिरनार महातीर्थ पर बिराजमान श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा आखिर गिरनार के कर्णविहार प्रासाद में आई कैसे? 

यह प्रतिमा को यहाँ लाने में रत्नसार नामक श्रावक का क्या Role था और इससे पहले जो प्रतिमा थी उसका क्या हुआ? 

आइए यह रहस्यमय इतिहास जानते हैं।

प्रस्तुत है, Girnar History का Episode 02. बने रहिए इस Article के अंत तक। 

रत्नसार श्रावक का संघ 

22वें तीर्थंकर, बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान को मोक्ष में गए 2000 साल पूर्ण हो गए थे। उसी समय में सोरठ देश में एक बहुत ही खूबसूरत शहर था, जिसका नाम था कांपिल्य नगर। 

यहाँ एक बहुत अमीर श्रेष्ठी रहते थे, जिनका नाम था रत्नसार। वे जैन धर्म के अद्भुत भक्त थे और एक सुश्रावक थे। कांपिल्य नगर में अचानक एक बार 12 साल तक भयंकर सूखा पड़ा यानी दुष्काल पड़ा। 

पानी की कमी के कारण जानवर तो क्या, इंसान भी वहां मरने लगे। अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए रत्नसार श्रावक को अपना शहर छोड़कर कश्मीर जाना पड़ा। जैसे ही रत्नसार श्रावक ने अपना शहर बदला, उनकी किस्मत भी बदल गई। 

पुण्य के उदय के कारण वे दिन-प्रतिदिन बहुत अमीर होते गए। रत्नसार श्रावक के मन में हमेशा से ही अपनी कमाई हुई संपत्ति को अच्छे कामों में लगाने की इच्छा थी। वे धन इकट्ठा करने की बजाय, उसका सदुपयोग करना चाहते थे ताकि उन्हें सद्गति प्राप्त हो सके।

रत्नसार श्रावक ने उस समय के महान जैन आचार्य भगवंत श्री आनंदसूरीश्वरजी महाराज साहेब की प्रेरणा और मार्गदर्शन में श्री शत्रुंजय गिरिराज से गिरनार महातीर्थ तक का पैदल संघ यात्रा करने का फैसला किया। रत्नसार श्रावक का यह पैदल संघ एक मिसाल बना था। 

वे जिस भी गाँव से गुजरते, वहाँ देव-गुरु की भक्ति और साधर्मिकों की खूब सेवा करते। संघ के दौरान ही उन्होंने कई नए जिनालयों का यानी जैन मंदिरों का भी निर्माण करवाया। श्री आनंदसूरीजी महाराजा की पावन निश्रा में संघ आगे बढ़ रहा था। 

रास्ते में कुछ व्यंतर, वैताल, राक्षस और यक्षों द्वारा संघ में बाधाएँ डाली गई, लेकिन रत्नसार श्रावक ने श्री नेमिनाथ भगवान के शासन की अधिष्ठायिका देवी अंबिका का ध्यान करके, उनकी सहाय से संघ को आगे बढ़ाया।

अपने गृह नगर यानी Home Town कांपिल्य पहुँचकर रत्नसार श्रावक ने संघ पूजन और स्वामीवात्सल्य भी किया। संघ पूजन अर्थात् प्रभावना। स्वामीवात्सल्य यानी भोजन कराना। 

इसके बाद श्री आनंदसूरीजी महाराजा के सानिध्य में रत्नसार श्रावक का संघ श्री शत्रुंजय गिरिराज पहुंचा। सभी ने खुशी-खुशी शाश्वत शत्रुंजय तीर्थ की भक्ति की और वहां से आगे बढ़ते हुए वह संघ रैवतगिरि यानी श्री गिरनारजी महातीर्थ पहुँचा, जहाँ अनंत तीर्थंकरों ने मोक्ष प्राप्त किया था। 

जिस तरह शत्रुंजय को सिद्धों की भूमि कहा जाता है, वैसे ही गिरनार को अरिहंतों की भूमि कहा जाता है। 

कैसे हुआ था तीर्थ का नाश 

वर्तमान चौबीसी के बाइसवें तीर्थंकर, बालब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ प्रभु की दीक्षा और केवलज्ञान भूमि पर रत्नसार श्रावक ने संघ के साथ श्री नेमिनाथ भगवान की पूजा की और मुख्य शिखर की ओर आगे बढे। रास्ते में सबने देखा कि छत्रशिला यानी एक बड़ी चट्टान नीचे से हिल रही थी। 

पू. आनंदसूरीजी म.सा. को अवधिज्ञान था। अवधिज्ञान यानी कि एक जगह पर ही रहकर नक्की किए गए Fix Distance वाले क्षेत्र की हर एक Visible चीज़ को देखने की आत्मा की शक्ति। तो रत्नसार श्रावक ने पू. आनंदसूरीजी म.सा. से चट्टान के हिलने का कारण पूछा। 

ज्ञान के उपयोग से कारण जानने के बाद पूज्यश्री बोले ‘हे रत्नसार। तुम्हारे द्वारा इस गिरनार महातीर्थ का नाश होगा और तुम्हारे द्वारा ही इस तीर्थ का उद्धार भी होगा!’ उद्धार यानी Development।

जिनशासन जिसके रग-रग में बसा था, ऐसे रत्नसार श्रावक इस महातीर्थ के नाश का कारण बनने के लिए कैसे तैयार होते? दुखी होकर वे नेमिनाथ प्रभु को दूर से ही प्रणाम करके वापस जाने लगे।

यहाँ पर समझने वाली बात यह है कि रत्नसार श्रावक में कितना विवेक होगा कि जब उन्हें पता चला कि उनके द्वारा तीर्थ का नाश होगा तो तीर्थ की रक्षा के लिए दूर से ही प्रणाम करके वापस जाने लगे। 

खुद की परमात्मा भक्ति को 2nd Priority पर रखकर तीर्थ सुरक्षा को 1st Priority दी। आज हम क्या कर रहे हैं? खैर।

तब पूज्यश्री ने कहा ‘रत्नसार। इस तीर्थ का नाश तुम्हारे द्वारा होगा, इसका मतलब तुम्हारे साथ आए श्रावकों के द्वारा होगा। तुम्हारे द्वारा तो इस महान तीर्थ का और भी अधिक उद्धार होगा। इसलिए दुखी मत हो।’ 

पूज्यश्री के उत्साह भरे वचनों को सुनकर रत्नसार संघ के साथ गिरनार के मुख्य शिखर पर पहुँचे। सभी यात्री बहुत ख़ुशी के साथ गजपद कुंड से शुद्ध जल निकालकर नहाने लगे।

रत्नसार ने भी गजपद कुंड के जल से स्नान किया, अच्छे कपडे पहने और गजपदकुंड का जल एक कलश में लिया और फिर संघ ने विमलराजा द्वारा गिरनार पर स्थापित किए गए लकड़ी से बने हुए मंदिर में प्रवेश किया, जहाँ लेपमयी प्रतिमा यानी मिट्टी से बनी हुई श्री नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा थी।

सभी यात्री गजपदकुंड के शुद्ध जल से श्री नेमिनाथ प्रभु का प्रक्षालन कर रहे थे यानी अभिषेक कर रहे थे। 

प्रतिमा मिट्टी की होने से ज्यादा प्रक्षाल करने के लिए देवताओं और पुजारियों ने मना किया लेकिन यात्रियों ने उनकी बात नहीं मानी और खुशी के भावों में ज्यादा पानी से प्रक्षालन करने से लेपमयी प्रतिमा का लेप गलने लगा और थोड़ी ही देर में वह प्रतिमा गीली मिट्टी के गोले जैसी बन गई।

यह देखकर रत्नसार श्रावक को गहरा सदमा लगा और वे दुख के मारे बेहोश हो गए। संघपति रत्नसार श्रावक को होश में लाने के लिए उन पर ठंडा पानी डाला गया और थोड़ी ही देर में वे होश में आए।

प्रभु की प्रतिमा गलने से दुखी हुए रत्नसार श्रावक रोने लगे ‘हे प्रभु। इस महातीर्थ का नाश करनेवाला मैं महापापी। मुझे धिक्कार है। मेरे साथ आए अज्ञानी यात्रियों को भी धिक्कार है। अरे। यह क्या हो गया? मैं इस महातीर्थ के दर्शन करने आया था और तीर्थ का अच्छा करने की बजाय तीर्थ नाश का कारण बन गया। 

अब मैं कौन से दान, शील, तप, भाव धर्म के कार्य करूँ, जिससे मेरा यह पापकर्म ख़त्म हो जाए? नहीं। अब तो ऐसा लगता है कई अनेक अच्छे कार्य करने पर भी मेरे यह पापकर्म का नाश नहीं होगा। अब चिंता करने से क्या फायदा? अब तो मुझे नेमिनाथ परमात्मा की ही शरण हैं।’ 

ऐसा दृढ़ संकल्प करके रत्नसार श्रावक ने भोजन, पानी आदि का त्याग किया और वहीं प्रभु के चरणों में आसन लगाकर बैठ गए।

रत्नसार श्रावक की इच्छा 

समय बीतता गया। रत्नसार श्रावक के सत्त्व की परीक्षा शुरू हो गई। अनेक Hurdles आने पर भी वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। रत्नसार श्रावक की दृढ़ता से खुश होकर गिरनार की अधिष्ठायिका श्री अंबिका देवी एक महीने के बाद प्रकट हुई। 

उनके दर्शन होते ही रत्नसार श्रावक खुश हो गए। 

अंबिका देवी बोलीं ‘रत्नसार। तुम धन्य हो, तुम दुखी क्यों होते हो? स्वयं तीर्थयात्रा करने के साथ अनेक भव्य जीवों को इस महातीर्थ की यात्रा करवाकर तुमने अपने मनुष्य जन्म को सफल किया है। 

इस प्रतिमा का पुराना लेप नाश होने पर नया लेप होता ही रहता है। जिस तरह पुराने कपड़े निकालकर नए कपड़े पहने जाते हैं, उसी तरह तुम भी इस प्रतिमा का नया लेप करवाकर फिर से प्रतिष्ठा करवाओ।’

अंबिका देवी के बात सुनकर रत्नसार श्रावक बोले ‘हे माँ। आप ऐसे वचन मत कहो। मैंने पहले की मूर्ति का नाश करके भारी कर्म बांधे हैं और आपकी आज्ञा से मूर्ति का लेप करवाकर फिर से स्थापना करूँ तो भविष्य में फिर से मेरी तरह कोई अज्ञानी इस मूर्ति का नाश करनेवाला बनेगा। 

इसलिए हे माँ। यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हों, तो मुझे कोई ऐसी अभंग मूर्ति दीजिए यानी कभी न टूटने वाली मूर्ति दीजिए, जिससे भविष्य में किसी के द्वारा इसका नाश न हो सके और श्री नेमिनाथ प्रभु के भक्त, पूर्ण भावना से उनका जलाभिषेक करके अपनी इच्छाओं को पूरा कर सकें।’

अंबिका देवी ने रत्नसार के इन वचनों को अनसुना कर दिया और अदृश्य यानी Invisible हो गई। अंबिका देवी के अदृश्य होते ही रत्नसार श्रावक कुछ पल के लिए दुखी हो गए। लेकिन कुछ ही समय में रत्नसार श्रावक वापस से उतने ही दृढ़ता के साथ अंबिका देवी के ध्यान में बैठ गए। 

एक बार फिर रत्नसार श्रावक के Patience को Test करने के लिए श्री अंबिका देवी ने कई Hurdles Create करने उन्हें ध्यान से चलित करने की बहुत कोशिश की लेकिन रत्नसार श्रावक मेरु पर्वत के समान ध्यान में अडिग रहे।

तब अंबिका देवी फिर से प्रकट होकर बोली ‘हे वत्स। मैं तुम्हारे दृढ़ धैर्य से प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे वरदान माँगो।’ 

देवी के इन वचनों को सुनकर रत्नसार श्रावक बोले 

हे माँ। इस गिरनार महातीर्थ के उद्धार के सिवाय मेरी कोई इच्छा नहीं है। आप मुझे श्री नेमिनाथ प्रभु की ऐसी वज्रमय यानी हीरे जैसी मजबूत प्रतिमा दीजिए जो कभी नष्ट ना हो, Immortal रहे और जिसकी पूजा से मेरा जीवन सफल हो।

रत्नसार श्रावक को मिली श्री नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा 

अंबिका देवी ने कहा ‘सर्वज्ञ भगवंत ने कहा है कि तुम्हारे द्वारा गिरनार महातीर्थ का उद्धार होगा, इसलिए तुम मेरे साथ चलो। मेरे पीछे-पीछे ही रहना, इधर-उधर देखे बिना चलना।’ 

रत्नसार श्रावक देवी के पीछे-पीछे चलने लगे और अंबिका देवी पूर्व की तरफ यानी East Direction की तरफ ‘हिमाद्रिपर्वत’ के कंचन शिखर पर गई, जहाँ सुवर्ण नामक गुफा थी। गुफा के अंदर दिव्य प्रकाश फैला हुआ था। 

आगे-आगे अंबिका देवी और पीछे-पीछे रत्नसार श्रावक.. दोनों उस दिव्य गुफा में Enter हुए। सुवर्ण मंदिर में विराजमान कई मणि, रत्न आदि की मूर्तियों को दिखाते हुए अंबिका देवी बोली ‘हे रत्नसार श्रावक। यह मूर्ति सौधर्मेन्द्र ने बनाई है, यह मूर्ति धरणेन्द्र ने पद्मरागमणि से बनाई है, यह मूर्तियाँ भरत महाराजा, आदित्ययशा, बाहुबली आदि के द्वारा रत्न, माणिक आदि से बनवाई गई हैं और दीर्घकाल तक उन्होंने इन मूर्तियों की पूजा-भक्ति की है। 

यह ब्रह्मेंद्र द्वारा रत्न-मणि का सार ग्रहण करके बनवाई गई है जो शाश्वत मूर्ति की तरह असंख्य काल तक उनके ब्रह्मलोक में पूजी गई है। यह श्री राम और श्री कृष्ण के द्वारा बनाई गई है। इन मूर्तियों में से जो पसंद हो वह आप ले सकते हो।’

मनमोहक ऐसी दिव्य मूर्तियों को देखकर रत्नसार श्रावक बहुत खुश हुए। सभी प्रतिमाएँ बहुत सुंदर थीं। कौनसी प्रतिमा Choose करनी है, इसका Decision करना बहुत मुश्किल हो गया था।

अंत में उन्होंने मणिरत्न से जडित मूर्ति को पसंद किया लेकिन तब अंबिका देवी ने कहा ‘हे वत्स। भविष्य में दूषमकाल यानी ख़राब समय में लोग बिना लाज शर्म वाले, कठोर दिल के, लोभ से ग्रस्त यानी Greedy और मर्यादा रहित होंगे। 

वे इस मणिरत्न जडित मूर्ति का अपमान करेंगे। तुम्हें इस तीर्थ का उद्धार करने के बाद बहुत पछतावा होगा। इसलिए इस मणिरत्नमय मूर्ति का आग्रह छोड़कर ब्रह्मेंद्र द्वारा रत्न माणिक्य के सार से बनवाई गई सुदृढ़ प्रतिमा यानी बिजली, आँधी, आग, पानी, लोहा, पाषाण अथवा वज्र से भी अभेद्य यानी जिसे तोडा या बिगाड़ा ना जा सके, ऐसी यह प्रतिमा को ग्रहण करो।’

अंबिका देवी ने रत्नसार श्रावक को वही प्रतिमा दी, जिसकी History हमने पिछले Episode में जानी थी। अगर आपने वह Episode Miss किया है तो एक बार पढ़ सकते हैं।

अंबिका देवी ने रत्नसार श्रावक से कहा ‘अब इस मूर्ति को कच्चे सूत यानी Cotton के धागे से बाँधकर आगे-पीछे या बाजू में देखे बिना जितनी जल्दी हो सके, ले जाओ। यदि रास्ते में कहीं पर भी रुकोगे तो यह मूर्ति उसी स्थान पर हमेशा के लिए रुक जाएगी।’ 

रत्नसार श्रावक को इस तरह सूचना देकर अंबिका देवी अपने स्थान पर वापस लौट गई।

अंबिका देवी की असीम कृपा से प्राप्त प्रतिमा को लेकर रत्नसार श्रावक देवी के बताए गए Instructions को Follow करते हुए आगे-पीछे या बाजू में देखे बिना, बिना रुके, कच्चे Cotton के धागे से बंधी हुई इस मूर्ति को जैसे रुई का हल्का सा गोला ले जा रहे हों, उस तरह इस प्रतिमा को मंदिर के Main Gate तक लाए। 

यहाँ पर उन्होंने सोचा कि ‘मंदिर में स्थित पहले की लेपमय प्रतिमा जो गल चुकी थी उसका उत्थापन कर यानी हटाकर अंदर की साफ़-सफाई करके इस प्रतिमा को अंदर लेकर जाऊँगा।’ 

पश्चिमाभिमुख मंदिर का रहस्य 

मंदिर के अंदर सफाई करके बाहर आकर रत्नसार ने जब नई मूर्ति को अंदर ले जाने का Try किया, तब वह प्रतिमा उसी स्थान पर मेरु पर्वत की तरह करोड़ों मनुष्यों से भी न हिल सके, उस तरह अटल बन गई। 

इस अवसर पर रत्नसार चिंता में पड़ गए और भोजन, पानी का त्याग करके फिर से अंबिका देवी की आराधना में लीन हो गए।

लगातार सात दिन के उपवास के अंत में अंबिका देवी फिर से प्रकट होकर बोली ‘हे वत्स। मैंने तो तुम्हें पहले ही कहा था कि रास्ते में कहीं पर भी रुके बिना इस मूर्ति को ले जाकर स्थापित करना। 

अब तो किसी भी हालत में यह प्रतिमा नहीं हटेगी। अब इस प्रतिमा को जहाँ है वहीं स्थापित करके पश्चिमाभिमुख यानी West Direction की ओर द्वार हो, वैसा मंदिर बनवाओ। इस कार्य में देरी मत करना।’

इस तरह सूचना देकर अंबिका देवी चली गई। रत्नसार श्रावक ने भी सूचनानुसार पश्चिमाभिमुख मंदिर बनवाया। पूरे संघ के साथ अत्यंत आनंद के साथ प्रतिष्ठा महोत्सव करवाया। 

रत्नसार श्रावक ने श्री नेमिनाथ प्रभु की अष्टप्रकारी पूजा की, लोक में श्रेष्ठ ऐसे जिनशासन की आसमान छूती गरिमा को दर्शाने वाली महाध्वजा को फहराया, उदारतापूर्वक दान आदि कार्य पूरे किए। 

अत्यंत भक्तिभाव से नेमिनाथ प्रभु के सामने खड़े होकर स्तुति की।

हे अनंत। जगन्नाथ। अव्यक्त। निरंजन। चिदानंदमय। और तीनों लोकों को तारनेवाले स्वामी। आपकी जय हो। हे प्रभु। देवताओं से भी अटल हैं, देव, दानव और मानव से पूजित हैं, अचिन्त्य महिमा वाले हैं, उदार हैं, द्रव्य और भाव शत्रुओं के समूह को जीतने वाले हैं, मस्तक पर तीन छत्र से शोभायमान, दोनों तरफ चामर से हवा किए जाते, और अष्टप्रातिहार्य यानी आठ शुभ चिह्न की शोभा से उदार ऐसे, हे विश्व के आधार। प्रभु। आपको नमस्कार हो।

इस तरह पूर्ण भावों के साथ स्तुति करने के बाद रत्नसार श्रावक ने पंचांग प्रणिपात यानी शरीर के पाँच अंग यानी मस्तक, 2 हाथ और 2 घुटने जमीन पर Touch हो उस तरह बहुत ही आनंद के साथ जैसे साक्षात् श्री नेमिनाथ प्रभु को ही न देख रहे हों, उस तरह उस मूर्ति को प्रणाम किया, वंदन किया। 

उस समय उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री अंबिका देवी, क्षेत्रपाल आदि देवताओं के साथ वहाँ आई और रत्नसार श्रावक के गले में पारिजात के फूलों की माला पहनाई। 

बाद में रत्नसार श्रावक अपने जीवन को सफल मानकर सौराष्ट्र यानी गुजरात की भूमि पर जैन मंदिरों की स्थापना करते हुए, धर्म के सात क्षेत्रों में संपत्ति का सद्व्यय करते हुए पुनः अपने निवास स्थान लौट गए। आगे आनेवाले कुछ भव करके वे मोक्ष में जाएंगे। 

इस प्रतिमा का वर्तमान स्थान पर प्रतिष्ठित होने का काल

श्री नेमिनाथ प्रभु के निर्वाण के 2000 वर्ष के बाद प्रतिष्ठित होने से उनके शासन के शेष 82000 वर्ष + श्री पार्श्वनाथ को प्रभु के शासन 250 वर्ष श्री महावीर स्वामी के शासन के लगभग 2500+ वर्ष से यह प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

अर्थात् प्रायः लगभग 84785 से भी ज्यादा वर्षों से यह प्रतिमा इस स्थान पर बिराजमान है।

तो यह था श्री नेमिनाथ प्रभु की इस अद्भुत प्रतिमा का गिरनार में विराजमान होने का अद्भुत इतिहास। 

अगले Episode में हम जानेंगे सौराष्ट्र के Famous King & Minister Duo, राजा सिद्धराज जयसिंह और सज्जनमंत्री द्वारा किस तरह गिरनार महातीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया गया? और गिरनार की 14 टुंकों में से एक मेरकवसही जिनालय का निर्माण आखिर कैसे हुआ? 

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