प्रस्तुत है आगम ज्ञानी बनो Series के अंतर्गत उपदेशमाला ग्रंथ का Episode 02 संवच्छरमुसभजिणो,
छम्मासा वद्धमाणजिणचंदो।
इअ विहरियानिरसणा,
जएज्ज एओवमाणेणं।। (02)UPDESHMALA GRANTH
श्री ऋषभदेव प्रभु ने दीक्षा के बाद 400 दिनों तक लगातार कुछ भी खाया पीया नहीं, चौविहार उपवास किए और श्री महावीर प्रभु ने 6 महीनों तक कुछ भी खाया पीया नहीं, चौविहार उपवास किए।
यह दो दृष्टांत को ध्यान में रखकर हम सभी को तप करना चाहिए।
यहां पर कुछ बातें विशेष समझने जैसी है, आईए जानते हैं।
1. दोनों प्रभु हर रोज गोचरी के लिए जाते थे। उसमें ऋषभदेव प्रभु के वक्त पर किसी को पता ही नहीं था कि प्रभु को क्या देना? तो लोग भोजन पानी की जगह पर सोना-चांदी-कन्या आदि देते थे और प्रभु बोलते नहीं थे कि ‘मुझे भोजन पानी चलता है।’
अगर बोलते तो लोग अवश्य देते लेकिन प्रभु ने कभी भी बोला ही नहीं और 1 साल से भी ज्यादा समय तक उपवास किए। यह पूरी घटना हम बहुत पहले आखा तीज की Story वाले Video में देख चुके हैं एक बार अवश्य देखिएगा।
प्रभु महावीर के वक्त पर लोग भोजन-पानी तो देते थे लेकिन प्रभु महावीर का बहुत बड़ा अभिग्रह था। वह अभिग्रह किसी को पता नहीं था और प्रभु वह अभिग्रह बताते नहीं थे कि ‘मेरा ऐसा ऐसा अभिग्रह है’।
अगर प्रभु बोल देते तो शायद लोग वह अभिग्रह पूरा करने की मेहनत भी करते लेकिन प्रभु ने बोला नहीं तो वह अभिग्रह पूरा नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने 6 महीने तक उपवास किए।
2. दोनों प्रभु उसी भव में अवश्य मोक्ष में जाने ही वाले थे तो यह तप नहीं करते तो भी उनका मोक्ष रुकनेवाला नहीं था फिर भी दोनों प्रभु ने तप किया। तो हमारा तो कब मोक्ष होगा उसका कोई ठिकाना नहीं है।
तो ज्ञानी गुरु भगवंत कहते हैं कि हमको तो हमारी मोक्ष की प्राप्ति के लिए खाने-पीने की आसक्ति को छोड़कर, खाने-पीने के पीछे जो पागलपन है उसे छोड़कर शक्ति अनुसार तप करना ही चाहिए।
3. आजकल कुछ लोगों के मन में ऐसी जिज्ञासा है कि ‘तप तो एक प्रकार का भुखमरा ही है, जो सबको भूखा रखता है, उसमें क्या लाभ? शरीर को कष्ट देने से क्या फायदा?’
उसका जवाब यह है कि कोई भी बात हम दो तरीके से Accept कर सकते हैं :
1. वह बात बतानेवाले पर हमें दृढ़ विश्वास हो कि ‘यह Expert है, ज्ञानी है, सच ही बोलते हैं।’ तो हम उस बात को कुछ भी चर्चा किए बिना भी मान लेते हैं।
2. Logic सुनकर, तर्क सुनकर हमारे मन में वह बात बैठे, तब हम उस बात को मानते हैं।
उसमें प्रथम तरीका इस प्रकार है :
जब हम बीमार होते हैं, Top Doctor के पास जाते हैं तब वह Doctor जो भी Injection-Medicine लेने को कहते हैं, तब हम कोई भी चर्चा किए बिना ले लेते हैं।
हमारे मन में एक ही विश्वास होता है कि ‘मुझे Medical Science का कुछ भी ज्ञान नहीं है। यह Doctor जबरदस्त Knowledge वाला है। तो वह जो कहेंगे वह सच ही होगा।
यहाँ पर Logic लगाकर बात को मेरे मन में बिठाने की भी मुझे जरूरत नहीं है।’ बस यह विश्वास के साथ हम Injection-Medicine ले लेते हैं और हम स्वस्थ भी होते हैं।
ठीक इसी प्रकार अगर हमें सर्वज्ञ वीतराग प्रभु पर विश्वास होगा तो हम यह ही सोचेंगे कि ‘प्रभु सबका भला चाहनेवाले हैं। उनको खुद का बिल्कुल भी स्वार्थ नहीं है और सागर से भी अति विशिष्ट उनका ज्ञान है।
तो वे जो कहेंगे वह सच ही है। वह Logic से मेरे मन में बिठाने की मुझे जरूरत नहीं है।’
प्रभु ने श्री दशवैकालिक आगम में कहा है ‘देहदुक्खं महाफलं’ यानी कि शरीर को दुख पड़े वो महान फलदाई है।
श्री आचारांग आगम में कहा कि ‘जुद्धारिहं खलु दुल्लहं’ यानी कि शरीर के साथ लड़ो, उस दुश्मन को हराओ।
तो हमें यह तो प्रभु के वचनों पर श्रद्धा रखकर पक्का मानना ही है कि तप के द्वारा शरीर को दुख देने में महान फल है ही।
लेकिन आज के जमाने में बहुत सारे लोग बुद्धि से चलने वाले हैं। Logic पर विश्वास रखते हैं। हालांकि वे सब लोग Doctor पर, CA पर, Advocates पर विश्वास करके ही चलते हैं।
वहां बुद्धि से-Logic से नहीं चलते हैं। अरे, आज तक सभी ने अपने माता-पिता को विश्वास से ही माना है ना कि ‘यह मेरे मां-बाप है।’ मां-बाप ने, समाज ने, सब ने कहा और मान लिया।
आज तो Medical Checkup से पता चल ही जाता है कि यह मां-बाप सच्चे मां-बाप है या नहीं। फिर भी किसी ने वहां पर अपनी बुद्धि लगाई नहीं है। विश्वास से ही मां-बाप को मान लिया है।
तो प्रभु के वचनों पर भी 100% विश्वास रखकर हर एक पदार्थ को स्वीकारना ही चाहिए।
फिर भी ‘शरीर को कष्ट पहुंचाने में क्या लाभ?’ उसका Logic भी देख ही लेते हैं।
A. भुखमरा में और तप में अंतर है। मन को मारकर जहां भूखा रहना पड़ता है, उसे भुखमरा कहते हैं।
गरीबों के पास खाना ही ना हो तो वे बेचारे मन में खाने की इच्छा होने के बावजूद भी मन को दबाकर-मारकर भूखे रहते हैं, उसे भुखमरा कहते हैं यानी पास में नहीं है इसलिए भूखे रह रहे हैं, इच्छा से नहीं।
Jail में कोई कैदी कुछ गड़बड़ करें, कानून तोड़े और अगर उसका खाना बंद किया जाए तो उस कैदी को भी मन मारकर भूखा रहना पड़ता है, उसे भुखमरा कहते हैं।
लेकिन तप में ऐसी बात नहीं है। तपस्वी के पास खाना-पीना नहीं है, ऐसी बात नहीं है। कोई उसको जबरदस्ती हाथ-पैर बांधकर, रूम में लॉक करके खाना-पीना छुड़वा रहे ऐसी बात भी नहीं है।
जैनों में हर साल हजारों-लाखों लोग अपनी इच्छा से छोटे-मोटे तप करते हैं, मज़बूरी से तप नहीं करते हैं। अगर वे चाहे तो तप नहीं भी करें, कौन जबरदस्ती तप करवाता है?
लेकिन यह हजारों लाखों जैन अपनी इच्छा से, मन से, खुशी से खाना-पीना छोड़ते हैं तो उसे भुखमरा कैसे कह सकते हैं? उसमें तो उनको उल्टा खुशी महसूस होती है।
B. तप में भूख के कारण दुख महसूस होता है, यह बात सोच लेते हैं। जब दिवाली आदि में दुकान पर Customers जोरदार हो तो दुकानदार व्यापार में एकदम Busy हो जाता है।
उस वक्त वह 5-7-10 घंटे तक कुछ खाता-पीता नहीं तो भी उसे खाना-पीना याद भी नहीं आता, उसका दुख महसूस नहीं होता। पैसा कमाने का इतना जबरदस्त आनंद होता है।
वैसे उत्तमोत्तम आत्माओं को तप करने में आत्मा के सुख का इतना जबरदस्त अनुभव होता है कि उनको भूख-प्यास का दुख याद ही नहीं आता।
मान लो अगर Season हो, दुकान पर ज़ोरदार Customenrs हो, उस वक्त पर कोई जबरदस्ती खाना खिलाने बिठा दे तो उल्टा उसको ज्यादा दुख होता है।
खाना खाते-खाते भी वह दुखी ही होगा। वैसे ही उत्तमोत्तम जीवों को तो खाने-पीने में दुख लगता है। उसको छोड़ने में नहीं, तप में नहीं।
C. कोई व्यापारी ऐसे भी होंगे कि व्यापार के वक्त पर उनको भयानक भूख लगेगी, उनको उसका दुख महसूस भी होगा लेकिन फिर भी अच्छा Profit पाने के लिए वह दुख को सहन कर लेते हैं।
वैसे ही तपस्वी को तप के वक्त पर भूख का दुख महसूस होता भी होगा लेकिन फिर भी तप का बड़ा Profit पाने के लिए वे दुख को सहन कर लेते हैं।
CA, Doctor, Engineering की पढ़ाई में कई Students रात रातभर जागकर पढ़ाई करते हैं, कितना Struggle करते हैं, क्यों? क्योंकि Degree का Goal उन्हें दिखता है। इस Struggle में भी उन्हें ख़ुशी मिलती है।
कोई इन्हें पूछे कि इतनी पढ़ाई की कितना दुःख लग रहा होगा ना तो वे हसेंगे क्योंकि उन्हें Goal पता है।
इसी तरह तप करने से कर्मों का नाश होता है, कर्म निर्जरा होती है तो तपस्वी को भले तप में Struggle करना पड़ रहा हो लेकिन कर्म निर्जरा का Goal दिमाग में होता है।
दोनों के दिमाग में Goals है। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोगों के भौतिक Goals होते हैं और कुछ लोगों के अध्यात्मिक।
तो Goal अगर दिमाग में हो तो Process के Struggle में दुःख नहीं लगता।
D. वैद्य या Doctor कभी-कभी खाने पीने की Limitations कर देते हैं। उस वक्त पर Patient इच्छा होते हुए भी खाना नहीं खाता है, तो उससे उसका स्वास्थ्य सुधरता ही है, बिगड़ता नहीं है।
वैसे ही गीतार्थ गुरू कभी आराधकों को उनके पापों के नाश के लिए उपवास आदि तप करवाते हैं। आराधक अपनी आत्मा के रोगों के नाश के लिए तप करते हैं।
खाने की इच्छा हो तो भी तप करते हैं, उस आत्मा के दोषों का नाश होता ही है।
E. अगर कोई खूनी या चोर सामने से अपने अपराधों का स्वीकार कर ले, Surrender हो जाए तो उसे सजा तो होगी लेकिन कम होगी और वह कम सजा भुगतने के बाद आजाद हो जाएगा, शांति से जी पाएगा।
वैसे ही समझदार आत्मा अपने पापों का एकरार कर ले-प्रायश्चित रूप में गुरु ने दिया हुआ तप कर ले तो बाद में वह सभी कर्मों से आजाद हो जाता है।
School में बच्चों को भूख लगे तब भी खाने नहीं देते, Lunch Time पर ही खाने देते हैं ताकि Discipline बना रहे, Sports में रहे हुए व्यक्ति को Junk Food से दूर रखा जाता है कई बार भूखा भी रखा जाता है ताकि स्फूर्ति रहे।
Gym में जाने वाले भी कई लोग Diet Control करते हैं, बहुत कम खाते हैं, जिन्हें पतला होना होता है वे भी Diet करके कम खाते हैं। अरे भाई। देह (शरीर) को दुख देकर दुनिया में करोड़ों लोग सुख पा ही रहे हैं।
वो आप गौर से देखोगे तो हर एक इंसान में देखने को मिलेगा। तो शरीर को कष्ट पहुंचाना खराब ही है, ऐसा क्यों मानना?
फर्क सिर्फ इतना है कि तपस्या में भौतिक लाभ तो है ही जैसे Healthy रहना, वासना के भाव कम हो जाना लेकिन उससे भी बढ़कर अध्यात्मिक लाभ है, जैसे कर्म निर्जरा आदि है।
अभी भी विस्तार से जानना हो, तो ज्ञानी गुरु भगवंत का संपर्क कर सकते हैं।
4. इस गाथा में श्री ऋषभदेव और श्री महावीर प्रभु के तप के गुणों को बताकर हम सभी को तप करने की प्रेरणा की गई है।
5. ऋषभदेव प्रभु के तप को ध्यान में रखकर ही आज विश्वभर में हर साल हजारों भाग्यशाली वर्षीतप करते हैं।
प्रभु के जितनी शक्ति ना होने से 1 साल तक उपवास नहीं कर सकते हैं तो उपवास-बियाशना-उपवास-बियाशना करके वर्षीतप करते हैं।
6. कुछ आत्माएं तो बियाशना की जगह पर एकाशना ही करते हैं। कुछ तो आयंबिल से वर्षीतप कर देते हैं। कुछ आराधक तो घर पर ही दोनों बियाशना कर वर्षीतप पूर्ण कर देते हैं।
गुरु भगवंत कहते हैं कि कुछ लोग सामूहिक बियाशना में बियाशना करते हैं लेकिन ध्यान रखने जैसा यह है कि जहाँ पर जयणा का पालन हो वहीँ पर बियाशना करना चाहिए।
सामूहिक में भक्तिभाव से आयोजक 30-40 Items बनवाते हैं लेकिन कुछ आराधक ऐसे भी होते हैं तो 4-5-7-9 Items तक सीमित रहकर तपस्या करते हैं।
आयोजक के Angle से देखें तो भक्तिभाव के कारण ज्यादा Items होगी ही लेकिन तपस्वी के Angle से तपस्या के साथ साथ Taste की आसक्ति को कम करने का वह प्रयास करता है।
शुरू शरू में Set होने के लिए 12-15 Items तपस्वी ले ले, Set होने के बाद Items सीमित कर कम द्रव्य में बियाशना कर सकते हैं।
7. वर्षीतप के पारणे पर यानी आखा तीज पर तपस्वी की अनुमोदना के निमित्त सामूहिक भोज में कभी कभार अविवेक भी देखने को मिलता है, सामूहिक भोज में Ice Cream, बर्फ की वस्तुएं आदि अभक्ष्य का भोजन करवाना यह बिलकुल भी उचित नहीं है।
प्रभु की आज्ञा का भंग करके तपस्वी की अनुमोदना नहीं होती। यह सच्ची अनुमोदना नहीं मानी जा सकती। यह तो तप के ऊपर काला कलंक जैसा हो जाएगा।
कुछ आराधक ऐसे भी होते हैं जो अपनी तपस्या के निमित्त एक भी रुपये की भेंट नहीं लेते हैं।
कुलमिलाकर यह गाथा तप करने की प्रेरणा देती है।