Are We Doing Dharma For Likes or Liberation? : Updeshmala Granth – Episode 12

लोगों की नजरों में अच्छे या आत्मा की नजर में शुद्ध?

Jain Media
By Jain Media 24 Views 15 Min Read

धर्म लोगों के लिए करना या खुद के लिए?
क्या लोगों को खुश रखना चाहिए?
क्या लोगों को Impress करना चाहिए?

‘जैन धर्म में लोकरंजन प्रधान है या नहीं?’ 

(लोकरंजन यानी लोगों को खुश करना, लोगों को खुश रखना, हमें ऐसे ही प्रवृत्ति करनी कि लोग खुश हो जाए।) 

प्रस्तुत है आगम ज्ञानी बनो Series के अंतर्गत उपदेशमाला ग्रंथ का Episode 12. 

तो इस प्रश्न का जवाब गाथा 19th गाथा में दिया है।

किं परजण-बहुजाणावणाहिं,
वरमप्पसक्खियं सुकयं।
इह भरहचक्कवट्टी,
पसन्नचंदो य दिठ्ठंता।। (19)Updeshmala Granth

हमने जो भी अच्छे काम किए, वह दूसरे लोग जाने-हम उनको बताएं, उससे हमें क्या फायदा? कुछ भी नहीं.. हमें जो भी सुकृत करने हैं यानी धर्म करना है यानी अच्छे काम करने हैं वह अपनी आत्मा की साक्षी से करने हैं। 

लोग हम से खुश है या नाखुश है, इससे हमारी आत्मा का मोक्ष या संसार Fix नहीं होता है। लेकिन हमारे पास हमारे मन के परिणाम अगर शुद्ध है, तो हमारी आत्मा का मोक्ष है। अगर अशुद्ध है तो हमारी आत्मा के संसार की वृद्धि है। 

देखिए, भरत चक्रवर्ती भोगी थे-त्यागी नहीं। संसारी थे-साधु नहीं। इसलिए लोग उनको देखकर कभी ऐसा नहीं मानते थे कि ‘यह धर्मी है, बहुत सुकृत करनेवाले हैं।’ 

लेकिन अरिसाभुवन में यानी कि जिस Hall में चारों ओर सिर्फ Mirrors ही Mirrors है, उस Hall में भरतजी की अंगूठी गिरी वैराग्य की धारा में वो आगे बढ़े और उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त किया। 

यहां स्पष्ट दिखता है कि लोग तो उनको धार्मिक नहीं मानते थे लेकिन उससे उनको कुछ भी फर्क नहीं पड़ता था। उनके पास मन की शुद्धि थी तो उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। 

अब प्रसन्नचंद्र राजर्षि को देखें तो वह तो त्यागी थे-भोगी नहीं। मुनि थे-संसारी नहीं। शमशान में काउसग्ग में खड़े थे, दो हाथ आकाश की ओर रखे हुए थे, दो आंखें सूरज पर स्थिर थी, एक ही पैर पर खड़े थे। 

उनको देखकर महाराजा श्रेणिक से लेकर सब लोग बहुत खुश हुए थे लेकिन उनका मन मलिन हो गया था। अपने संसारी बेटे का द्रोह करनेवाले मंत्री वगैरह के साथ युद्ध के विचार में वे चढ़ गए थे और उनका मन भयंकर हिंसक बन गया था, और वो सातवीं नरक बाँधने वाले थे। 

Simple सी बात इतनी ही है कि लोग हमको अच्छा-भला-सज्जन-धार्मिक-दानवीर यह सब माने या ना माने, इससे हमको कोई लाभ या नुकसान नहीं है। 

Our Soul has nothing to do with what people think about us! 

अगर हमारे मन में हिंसा-झूठ आदि के खराब विचार हो तो हमको नुकसान ही होगा। अगर हमारा मन पवित्र हो तो हमको लाभ ही होगा। इस विषय में 4 Divisions है। 4 अलग अलग Angles है तो सब Angles से देखते हैं।

1. हमारा मन शुद्ध हो और लोग हमारे अच्छे आचारों को देखकर प्रशंसा करें, इसमें मन की शुद्धि के कारण से हमारी आत्मा का हित है और लोग अनुमोदना करके अपनी आत्मा का हित पाते हैं। 

2. हमारा मन शुद्ध हो लेकिन हमारे पास कोई भी कारणवश बाहर के अच्छे आचार ना हो तो लोग प्रशंसा नहीं करते हैं, Generally। इसमें हमारा हित है क्योंकि हमारा मन शुद्ध है, लेकिन इसमें लोगों का हित नहीं है। 

3. हमारा मन अशुद्ध है लेकिन कोई भी कारणवश हमारे बाहरी आचार अच्छे हैं तो लोग प्रशंसा करेंगे ही General बात है। इसमें हमारा हित नहीं है क्योंकि हमारा मन अशुद्ध है लेकिन लोगों का हित है क्योंकि वो तो अच्छे आचारों को देखकर अनुमोदना कर रहे हैं। 

4. हमारा मन अशुद्ध है और आचार भी अच्छे नहीं है इसलिए लोग प्रशंसा नहीं करते Normal सी बात है। इसमें हमारा हित नहीं है क्योंकि हमारा मन अशुद्ध है, लोगों का भी हित नहीं है। 

यह चारों को हम वर्तमान काल की दृष्टि से उदाहरण के साथ भी देख लेते हैं। 

1. पूज्य हेमवल्लभसूरीश्वरजी महाराज साहेब अखंड 10 हजार आयंबिल कर चुके हैं। उत्तम संयम का पालन करते हैं। यह सब वह किसी को दिखाने के लिए नहीं करते। सिर्फ और सिर्फ अपनी आत्मा का हित पाने के लिए करते हैं। 

Inspirational Life Story Of Pujya Hemvallabh Suriji Maharaj Saheb 👇

उनकी प्रथम 100वीं ओली का पारणा नवसारी तपोवन में हुआ था। तब उनके गुरुदेव पूज्य पंन्यास प्रवर श्री चंद्रशेखरविजयजी महाराज साहेब को भी नहीं पता था कि ‘मेरे शिष्य का आज 100वीं ओली का पारणा है।’ 

पू. हेमवल्लभ म.सा. हर पांच तिथि को उपवास करते ही थे तो आठम के दिन उन्होंने उपवास का पच्चक्खान मांगा। उनके गुरु ने तो इतना ही समझा कि आज उन्हें ‘आठम का पच्चक्खान (उपवास) है।’ उनको पता भी नहीं चला कि यह तो 100वीं ओली का उपवास है। 

दूसरे दिन दोपहर को पू. हेमवल्लभ म.सा. उनके गुरु के पास गए और पात्रे में मूंग पानी देने को कहा। उनके गुरु ने उनसे पूछा ‘क्यों? आज मेरे हाथों से?’ तो उन्होंने कहा ‘आज मेरी 100वीं ओली का पारणा है।’ 

गुरु की आंखों में आंसू बहने लगे। वे बोले ‘हेमवल्लभ, मुझे पहले से बताना तो था। तो घाटकोपर से तेरे सांसारिक परिवार को और कल्याण मित्रों को बता देता।’ तब तपस्वी महात्मा बोले ‘मुझे किसी को बताना नहीं था, इसलिए आपको भी नहीं कहा।’ 

यहां पर स्पष्ट ख्याल आता है कि लोगों को खुश करने के लिए, लोगों को दिखाने के लिए उन्होंने तप नहीं किया था। यानी कि उनका मन शुद्ध था और आज लाखों जैन गिरनार के नाम से घोर तपस्वी पू. हेमवल्लभसूरिश्वरजी महाराज साहेब को जानते भी है और उनकी बहुत अंतर्मन से अनुमोदना भी करते हैं। 

तो यहां पर 1st Option लगता है।

2. पूज्य आचार्य श्री जिनसुंदरसूरीश्वरजी महाराज साहेब के शिष्य पूज्य अनंतसुंदर विजयजी महाराज साहेब लगभग नवकारसी करते हैं। उनके पास तप नहीं है लेकिन सिर्फ और सिर्फ तबीयत की प्रतिकूलता के कारण से ही वे तप नहीं कर पा रहे हैं। 

आत्मा में तो वैराग्य भरा पड़ा हुआ है। अगर उनका शरीर पूज्य आचार्य श्री हेमवल्लभसुरीजी महाराज साहेब जैसा सक्षम होता तो वे अवश्य उनकी तरह ही 10 हजार आयंबिल कर लेते, इतना वैराग्य है उनमें।

यहां पर उनको वैराग्य के कारण आत्मा का हित तो है लेकिन लोग उनका वैराग्य देख नहीं पाते और उनके पास तप आदि कोई बड़ी चीज नहीं है तो लोग उनकी इतनी तारीफ कर नहीं पाएंगे। तो लोगों का लाभ नहीं हो पाएगा। 

आज 18000 साधु-साध्वीजी में हजारों संयमी ऐसे हैं कि जिनके पास अपना मन शुद्ध है, वे अपनी आत्मा का हित करते हैं लेकिन उनके पास विशिष्ट तप-विशिष्ट प्रवचन-विशिष्ट वैयावच्च नहीं है। तो लोगों को उनकी अनुमोदना का लाभ नहीं मिलता है। 

हां, Normal अनुमोदना तो सब करते ही है और उसका लाभ सभी को मिलता ही है। 

3. कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सिर्फ दिखावे के लिए दान करते हैं-तप करते हैं। तो उनका मन अशुद्ध होने से उनका लाभ नहीं होता लेकिन उनके दान-तप की सब लोग अनुमोदना करेंगे ही, General बात है क्योंकि बाहर दिख रहा है, तो लोगों को तो लाभ होता ही है। 

4. चौथा Option निष्ठुर कसाई वगैरह का है। उनका मन अशुद्ध है तो उनको कोई लाभ नहीं है और उनके कोई अच्छे आचार भी नहीं है, तो लोग तारीफ भी नहीं करते। 

तो कुलमिलकर हमें हमारा मन शुद्ध एवं पवित्र रखना है और जो कोई भी अच्छा कार्य कर रहा हो उसकी अनुमोदना करनी, इसी में हमारा फायदा है और कोई गलत काम करें और उसकी हम निंदा करें तो इसमें हमारा फायदा नहीं है नुकसान पक्का है।

यह बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा हो सकता है कि ‘अगर हमारे सुकृत दूसरों को बताने की जरूरत नहीं है, तो फिर पूज्य साधु-साध्वीजी के तपस्या के पारणे होते हैं वो जाहिर में क्यों किए जाते हैं? Public में क्यों किए जाते हैं? उसका महोत्सव क्यों मनाया जाता है?

इसी तरह से सिद्धितप-मासक्षमण तप आदि यह जो बड़े-बड़े तप होते हैं इनके तपस्वियों को भी क्यों जाहिर किया जाता है? यानी कि श्रावक श्राविकाओं को भी क्यों जाहिर किया जाता है? Public में लाया जाता है?’ 

तो उसका जवाब यह है कि जो तपस्वी है, उनको प्रशंसा की भूख नहीं ही होनी चाहिए उससे उनको कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। उनको अपना मन शुद्ध ही रखना है। 

अगर ऐसा होगा तो उनको लाभ ही होगा और उनके तप जाहिर करने से लोगों को पता चलेगा तो लोग अनुमोदना करके हित पाएंगे। लोगों को भी तप करने का मन होगा कि अरे बाप रे इस व्यक्ति ने तप किया है तब तो मुझे भी Try करना चाहिए और इस प्रकार दोनों पक्ष में हित होगा लेकिन हाँ विवेक रखना है That is must. 

तप की तरह दान आदि हर एक सुकृतों में यह बात समझ लेनी चाहिए। यहाँ पर खुद खुद का रोल समझने जैसा है बस।

अब कोई प्रश्न कर सकता है ‘भले ही मन शुद्ध ना हो लेकिन दीक्षा ली हो, साधु के कपड़े पहने हो। तो उसका भी कोई प्रभाव तो होगा ना?’ 

इसका उत्तर 20th गाथा में मिलता है।

वेसोवि अप्पमाणो,
असंजमपएसु वट्टमाणस्स।
किं परियत्तियवेसं,
विसं न मारेइ खज्जंतं।। (20)Updeshmala Granth

साधु का वेश प्रभु ने बताया हुआ वेश है।
उसके प्रभाव से क्या हम संसार को तर जाएंगे? 

छगन ने मगन के कपड़े पहन लिए। फिर उसने जहर खा लिया और आधे घंटे के बाद छगन जहर के असर के कारण चिल्लाने लगा ‘अरे कोई बचाओ.. मर जाऊँगा, मर जाऊँगा..’ सब इकट्ठे हुए और उससे पूछा कि ‘तूने जहर क्यों खाया?’ 

छगन ने कहा ‘मगन मेरा दुश्मन है, मैं उसे मारना चाहता था। मैंने उसके कपड़े पहन लिए और सोचा कि मगन के कपड़े पहने हैं और ज़हर खा लूँगा तो वह मरेगा, मैं नहीं मरूंगा।’ 

हंसी जैसी इस बात का तात्पर्य इतना ही है कि जैसे छगन दूसरों के कपड़े पहनकर जहर पिए तो जहर छगन को ना मारे ऐसा नहीं होता। उसमें मगन नहीं मरेगा छगन ही मरेगा।

एक ही Rule है- कोई भी पहने क्यों ना पहने हो लेकिन जो जहर पीएगा वह मारेगा।  

उसी तरह मनुष्य संसार छोड़कर साधु बना, साधु का वेश पहना लेकिन अगर वह शिथिल है, प्रमादी है, महाव्रतों का अच्छे से पालन नहीं करता, अपने लिए उपाश्रय आदि बनवाकर पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा करवाता है। 

कच्चा या कच्चे-पक्के पानी का उपयोग करता है, AC-पंखा-Light आदि कोई भी विशेष कारण के बिना Use करता है, उससे तेऊ-वायुकाय की हिंसा करवाता है तो उसको संसार में भटकना ही पड़ता है। 

शिथिलता-प्रमाद-अनावश्यक अपवाद मार्ग यह जहर है। 

साधु के कपड़े पहनने मात्र से जीव मोह से बच नहीं सकते। सार यह है कि साधु के आचारों का पालन मन की शुद्धि का कारण है। 

अगर आचार पालन नहीं होगा तो मन की शुद्ध नहीं होगी। अगर मन की शुद्धि नहीं होगी तो साधुवेश जीव को बचा नहीं सकता है। उसको नरक आदि दुर्गति में भटकना ही पड़ता है। 

विनयरत्न मुनि के पास साधु वेश तो था लेकिन मन की शुद्धि नहीं थी, राजा को मार डालने का भाव था, तो मारकर वह खुद नरक में ही गया। साधु वेश उसे बचा नहीं पाया। 

इसलिए यह जो विश्वास है कि ‘साधु वेश है तो तो वह कुछ भी करें, सद्गति में ही जाएगा।’ यह बात पूरी तरह से गलत है। यह अंधविश्वास है। 

Police के कपड़े पहनने से कोई सच्चा Police वाला नहीं बन जाता, Army के कपड़े पहनने मात्र से कोई Army वाला नहीं बन जाता है, लड़ने की ताकत नहीं आ जाती। 

Doctor के कपड़े पहनने मात्र से कोई Doctor नहीं बन जाता है। Stethoscope डाल देने मात्र से कोई Doctor नहीं बन जाता है, Operation करना नहीं आ जाता। 

यह Common Sense है, यहां पर भी यह बात लगानी है कि साधु के कपड़े पहनने मात्र से सच्ची साधुता-सद्गति-मोक्ष नहीं मिल जाते हैं। 

अब एक भयानक प्रश्न उठ सकता है कि 

‘तो फिर सिर्फ मन शुद्ध रखो दीक्षा क्यों लेनी? धर्म क्रिया क्यों करनी? बाहर कुछ भी करने की ज़रूरत ही क्या है, अंदर से मस्त रहो हो ना। अपना मन शुद्ध रखो। आत्मा का हित हो ही जाएगा।?’ 

रुक जाइए। रुक जाइए। इसका उत्तर अगले Episode में देखेंगे।

Share This Article
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *