Social Image vs Inner Reality – The Final Battle | Updeshmala Granth – Episode 14

अपने मन की सुनना या लोगों की?

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By Jain Media 35 Views 9 Min Read

मन की सुनना या लोगों की?

प्रस्तुत है आगम ज्ञानी बनो Series के अंतर्गत उपदेशमाला ग्रंथ का Episode 14

22वीं गाथा में जिनशासन का रहस्य बता रहे हैं। यह गाथा का अर्थ निश्चय नय का अनमोल पदार्थ है। अगर इस एक ही गाथा के रहस्य को भी हम हमारे जीवन में उतार दें तो बेड़ा पार हो जाएगा ऐसा ज्ञानी गुरु भगवंत बताते हैं।

अप्पा जाणइ अप्पा,
जहट्ठिओ अप्पसक्खिओ धम्मो।
अप्पा करेइ तं तह,
जह अप्पसुहावओ होइ।। (22)Updeshmala Granth

अपनी आत्मा ही जानती है कि
‘मैं कैसा हूं। अच्छा हूं या बुरा हूं? मेरे भाव अच्छे हैं या बुरे हैं?’

दूसरे लोग हमारी आत्मा को क्या जानेंगे? क्योंकि दूसरे लोग तो हमारी बाहरी प्रवृत्ति को ही देख पाएंगे। हमारे वचनों को सुन पाएंगे। हमारी काया के द्वारा जो किया जा रहा है वह देख पाएंगे लेकिन हमारे मन के विचारों को लोग कैसे जान पाएंगे? 

No Chance… 

वह तो हम ही जान पाते हैं और यह हमेशा समझ लेना है। 

हम अच्छे हैं या बुरे? वह हमारे विचारों पर Depend करता है, आचार या वचन पर नहीं। हम सही है या गलत? वह हमारे विचारों पर Depend करता है, आचार या वचन पर नहीं। 

हमने Movies में देखा ही है कि उसमें Actor Actresses के आचार और वचन Top होते ह लेकिन वह ही Actor Actresses अपनी निजी जिंदगी में अपने विचारों के कारण खराब भी हो सकते हैं। 

और जो Villain Movie में आचार और वचनों के कारण खराब दिखते हैं, वह ही Villain अपनी निजी जिंदगी में अपने विचारों के कारण अच्छे भी हो सकते हैं। 

हमको बार-बार हमारे मन को देखते रहना है।
उसके विचारों को पढ़ते रहना है। 

हम धार्मिक है या नहीं? वह लोगों के कहने से मानना नहीं है बल्कि हमको हमारे विचारों को पढ़कर मानना है। 

मान लो कि हमने लाखों – करोड़ों का दान दिया तो लोग तो हमको भामाशाह – जगड़ूशाह मानने लगते हैं। लेकिन हमें मन को पकड़ना है। 

अगर पता चले कि ‘मैंने तो लोगों को दिखाने के लिए यह दान किया है या फिर किसी ने Force किया और उस Force के कारण बिना इच्छा से भी दान किया है कि समाज में बैठे हैं तो ख़राब नहीं लगना चाहिए, इज्ज़त चली जाएगी इस कारण से दान दिया है तो हमको समझना है कि ‘मैं धार्मिक – दानवीर नहीं हूं।’ 

भले लोग कितना भी बोलें और मान लो हमने दान नहीं दिया या कम दिया, लोग हमको दानवीर नहीं बोलते शायद कंजूस कहते हैं कि इतने पैसे हैं फिर भी नहीं देता है लेकिन हमको हमारी आत्मा को देखना है। 

‘मुझे यशकीर्ति नहीं चाहिए थी, मुझे Famous नहीं होना था, इसलिए मैंने मेरे नाम के बिना दान दिया ही है या फिर मैंने चढ़ावा नहीं लिया लेकिन जहां जरूरत थी वहां पर गुप्त रूप से दिया ही है, वह भी अच्छी रकम दी है।’ 

तो हमें समझना है कि हम धार्मिक ही हैं हाँ इसका अहंकार भी नहीं करना है हमारे बाहर के आचारों से लोग हमको पवित्र – सदाचारी मानते हैं लेकिन हमको हमारे मन को पहचानना है। 

हमको लगे कि ‘मेरे मन में तो स्त्रियों के प्रति विकार – वासना बहुत है। मैं गंदे चित्र – Movie अकेले में देखता हूं, अकेले में खुद के साथ गंदे काम भी करता हूं। 

बाहर तो समाज के डर से या खुद का ही डर का स्वभाव होने से इन सब कारण से मैं कुछ करता नहीं हूं तो बाहर की मेरी पवित्रता तो सिर्फ नाम की है। मेरी मन की तो अपवित्रता ही है।’ तो हमको समझना है कि ‘मैं सदाचारी नहीं हूं मुझे सदाचारी बनना है’ भले लोग कितना भी बोलें।

अगर किसी ने ईर्ष्या के कारण या अन्य कोई भी कारण से हमारे ऊपर Character का गलत आरोप लगाया तो हमें हमारी आत्मा में झांकना है कि ‘मेरे मन में कोई भी विकार – वासना नहीं है। परपुरुष – परस्त्री के ऊपर मेरा कोई मलिनभाव नहीं है।’ 

तो भले हम गलत आरोप मिटाने के लिए मेहनत करें लेकिन मन से Disturb नहीं होना। Fix समझना है कि ‘मैं सदाचारी हूं..’ 

हमारे आयंबिल – उपवास को देखकर लोग हमें तपस्वी मानें और हम पारणे आदि में खाने में भयंकर लंपट हो, आयंबिल में भी चटाके करते हो तो हमको समझना है कि ‘मैं तपस्वी नहीं हूं मुझे तपस्वी बनना है।’ 

और खराब तबीयत आदि के कारण से हम नवकारसी – बियाशना – एकाशना ही करते हो तो लोग हमें तपस्वी ना कहें, खाऊदरा कहे लेकिन हमको खाने की आसक्ति ना हो, कम द्रव्य ही खाते हो, Simple द्रव्य ही खाते हो तो समझना है कि ‘मैं तपस्वी हूं..’ 

लेकिन फिर से इसका अहंकार नहीं करना है। लोग हमको क्षमावान माने लेकिन अंदर मन में हमको भयानक क्रोध आता हो, सिर्फ बाहर क्रोध प्रकट नहीं करते हो। 

हमारी इज्जत को बचाने के लिए शांत रहते हो तो समझ लेना कि हम क्रोधी ही है, लोग भले कुछ भी कहे और लोग हमको क्रोधी कहते हो लेकिन हमारे मन में क्रोध ना हो, किसी के प्रति दुर्भावना ना हो तो हमें समझना कि ‘मैं क्षमावान हूं।’ 

यह तो दान-शील-तप-भाव को लेकर चार उदाहरण बताएं गए हैं। ऐसे तो हजारों उदाहरण अपने आप में हमको समझ लेने हैं। 

इसलिए ग्रंथकार महर्षि हम सबको प्रेरणा करते हैं कि 

‘हे आत्मन्, तू दूसरों की परवाह मत कर। लोगों को खुश करने की पंचायती मत कर। बस सच्चे भावों से धर्म कर। वह सच्चे भावों को पहचान। अपनी आत्मा में नजर कर, गहराई से देख।

उसके हर एक विचारों को Check कर। वह बुरे हो तो उसे अच्छे बना। वह अच्छे हो तो ज्यादा अच्छे बना। किसी भी तरह तू तेरे मन को पवित्र रख और धर्म का आचरण करता जा।’ 

यह इतना Pure सिद्धांत है कि उसको 100% हर एक जीव को आत्मसात करना ही चाहिए ऐसा गुरु भगवंत कहते हैं। लगभग हम लोगों के साथ रहने के कारण से लोगों को खुश करने का हमारा स्वभाव छोड़ नहीं सकते हैं। 

उस वक्त हम हमारे शुभ भावों के साथ भी Compromise कर लेते हैं। क्रिया में भी गड़बड़ कर देते हैं। ‘बस, लोग खुश होकर तारीफ करें’ वह हमारा मुख्य मकसद बन जाता है। हम हमारी आत्मा का मोक्ष नाम का मकसद भूल जाते हैं। 

हम रास्ता भटक जाते हैं और लोगों की तारीफ मिलते ही हम उसे Success मान लेते हैं, जीत मान लेते हैं। लोगों की सुनेंगे तो भीड़ में खो जाएंगे, मन की सुनेंगे तो पता चलेगा अंदर क्या चल रहा है और जब पता चलेगा कि Actual में अंदर क्या चल रहा है तब हम हमारे मन को सुधार पाएंगे।

सुधार करने का सबसे 1st Stage है Awareness और Awareness के लिए हमें अंदर झांकना पड़ेगा। लोग तो भोले हैं। बाहर की कोई भी चीज को देखकर तारीफ करने लगते हैं। उसमें हमको फंसना नहीं है। 

अपनी आत्मा को साक्षी बनाना है – सद्गुरु को साक्षी बनाना है। भावों को बार – बार देखना है, सूक्ष्मता से देखना है – गहराई से देखना है और अगर देखना ना आता हो तो गुरु के वचनों के आधार पर देखना है। 

गुरु हमारे सहायक बनेंगे लेकिन इतना तो Fix समझकर ही रखना है कि हमारे भावों के आधार पर ही हमारा धर्म या अधर्म Fix है, लोगों के आधार पर नहीं। 

लोगों की तारीफ के आधार पर नहीं, लोग क्या Comment करते हैं उस आधार पर नहीं, बल्कि हम क्या सोचते हैं उस आधार पर…

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