हम एक बहुत बड़े भ्रम में फंसे हुए हैं!
जो व्यक्ति इस Episode को Depth को समझ जाएगा शायद उसकी Life Change हो सकती है, उसका सोचने का तरीका बदल जाएगा. प्रस्तुत है Friend or Foe Book का Episode 13.
‘कर्मसत्ता हमारी असली दुश्मन है’ इस बात को हम Episode 11 में Clearly देख चुके हैं.
Real Enemy
‘मेरा मुख्य दुश्मन कर्मराजा है, कर्मसत्ता है, दूसरा कोई भी जीव मेरा शत्रु नहीं है.’
इस Important बात को साधक अगर भूल जाए तो महान अनर्थ हो जाता है.
सुंदर मनुष्यभव और साधना से दूर सुदूर भटकना पडता है.
शास्त्रों में एक Famous कथा आती है, एक साधु के पैर के नीचे आने से मेंढक दबकर मर गया, साथ में बालमुनी थे, उन्होंने यह देख लिया था, इसलिए उन्होंने बार-बार याद दिलाया कि आपके पैर के नीचे दबने के कारण मेंढक की हिंसा हुई है.
अब “इस मेंढक की हिंसा के कारण बंधा हुआ कर्म मुझे परेशान करनेवाला है, बार बार याद दिलानेवाले यह बालमुनी नहीं, दंडा मारना है तो प्रायश्चित द्वारा इसी कर्म को मारूं, बालमुनी को नहीं” इस बात को भूलने का क्या ख़राब परिणाम आया, यह तो जगप्रसिद्द है. क्रोध करनेवाले वह साधु, चंडकौशिक सर्प बन गए.
चंडकौशिक सर्प की पूरी स्टोरी हम बहुत पहले Upload कर चुके हैं.
वह आप यहाँ देख सकते हैं 👇
Story Of Bhagwan Mahavir Swami & Chandkaushik Snake
आत्मा के ऊपर चिपके हुए ये कर्म तो आत्मा पर उभरे फफोले, छाले जैसे हैं. स्कंधकाचार्यजी की बात हमने Short में Episode 12 में देखी थी. उनकी कथा याद करें तो पालक ने 500 मुनियों को बड़े यंत्र में पीस दिया था, बड़े Machine में पीस दिया था, लेकिन उन मुनियों की विचारधारा हमारे जैसी नहीं थी, वे तो उसे उपकारी नहीं बल्कि महाउपकारी मान रहे थे.
“बड़े यंत्र में मारनेवाला वह पालक तो उस फफोले को, छाले को Blade से काटनेवाला Surgeon Doctor है. हमारे कर्मों को नाश करनेवाला है, अतः महाउपकारी है वह तो.” इस प्रकार की विचारधारा के कारण 500 महामुनिओं को कर्मसत्ता पर पूरी तरह से विजय मिली और वे सभी संसार से सदा के लिए मुक्त होकर मोक्ष में चले गए.
जबकि पालक को शत्रु के Angle से देखनेवाले स्कंधकाचार्य क्षमा का पाठ भूल गए. वैर की गाँठ बाँध ली. और Result? न रहा चारित्र और न रही सद्गति-शिवगति. ऊपर से संसार में भटकना चालू रहा.
Cricket में जीत कब?
आजकल Cricket की Fan Following Extreme है. उसमें भी यही बात लागू होती है. Extra Ordinary Batsmen हो, धडाधड Wickets लेने वाला Bowlers हैं, Tight Fielding करनेवाले Fielders आदि सब कुछ Ready है.
फिर भी यदि Team में Internal Issues है, एक दूसरे के साथ चल रहे आपसी वैर-विरोध ने Unity को तोड़ने का काम किया है तो उस Team को मुंह की खानी ही पड़ती है यानी जिस Team में Teamwork न हो, खिलाड़ी एक-दूसरे से ‘तू-तू, मैं-मैं’ कर रहे हो, वह Team जीत नहीं सकती, और शायद एक से बढ़कर एक खिलाड़ी न भी हो फिर भी यदि Team Spirit हो, तो वह Team जीत सकती है.
इसी तरह से पूजा, तप, त्याग, स्वाध्याय, भक्ति आदि सब कुछ Number 1 है, लेकिन अपनी Team के प्रति यानी सभी जीवों के प्रति दिल में मैत्री नहीं है बल्कि आपस में ही एक दूसरे को हराने की बाज़ी लगी हुई है.
काटने की बात है तो याद रखना होगा कि कर्मसत्ता से लोहा लेना महंगा पड़ेगा, क्योंकि Unity नहीं है. जीत Impossible होगी और हारना पड़ेगा. इसलिए सभी जीवों को अपनी Party मानना ज़रूरी है, Unity is Must.
भ्रान्ति का भूत भगाओ
अनादिकाल से मोहराजा ने इस आत्मा की ऐसी हालत कर रखी है कि आत्मा भ्रम में फंसी हुई है. हमारी आत्मा जड़पार्टी में को यानी Materialistic चीज़ों में अपनत्व देख रही है और जीवपार्टी को यानी जीवों को परायेपन से देख रही है. हमारी परखने की शक्ति मोहराजा ने इतनी कमज़ोर कर दी है कि हमारी आत्मा जीव को शत्रुपार्टी ही मान रही है.
तभी तो जीव Materialistic चीज़ों की तरफ से कैसी भी छोटी मोटी परेशानी खडी हो जाए, वह उससे निराश नहीं होता, दुखी नहीं होता लेकिन किसी कठिन परिस्थिति में किसी न किसी जीव को ही जिम्मेदार मानकर उसके प्रति द्वेष करता है.
एक व्यक्ति रास्ते पर चल रहा है, पत्थर से ठोकर लग जाए तो मुंह से सीधा गाली निकलती है “साले लोग भी कैसे कैसे होते हैं? जहाँ मन आए उधर पत्थर फेंक देते हैं, सोचते ही नहीं, सब के सब बेवकूफ है Idiots है.’ चोट आई पत्थर से और महाशय दोष दे रहे हैं जीवों को, कमाल है ना.
लक्ष्मी चली जाती है. करोड़पति का ‘क’ गायब हो जाता है, व्यक्ति रोड़पति बनता है. ऐसे समय में महाशय को सोचना यह चाहिए था कि ‘सचमुच लक्ष्मी चंचल है, उसका स्वभाव ही ऐसा है, वह कब चली जाए पता नहीं.
दौलत शब्द में ही तो है दो लात, कब दोनों लातें मारकर अपना दौलत नाम सार्थक कर दे, पता नहीं.’ मगर व्यक्ति सोचते क्या है ‘ओह. दगाबाज लोगों ने मुझे अपने चंगुल में फँसा दिया, पार्टनर ने विश्वासघात किया इसलिए मैं कंगाल हुआ. लोगों ने मेरा व्यापार ख़राब कर दिया, मुझे बर्बाद कर दिया.’
इस प्रकार, वह हर तकलीफ में जिम्मेदार किसी न किसी जीव को ठहरा ही देता है, और उन-उन लोगों पर क्रोध आदि कर वैर की गाँठ बाँध ही लेता है. उस वक्त व्यक्ति ऐसा विचार नहीं कर पाता है कि ‘हे जीव, एक बार यह बात मान भी ली कि सामनेवाले व्यक्ति ने जानबूझकर मुझे परेशान किया है, मेरे लिए मुश्किलें खड़ी की है, फिर भी उसे गौण करना चाहिए क्योंकि मुझे तो कर्मसत्ता पर जीत प्राप्त करनी है.
आपसी झगड़े-टंटे में उलझ जाऊँगा तो शत्रुपार्टी कर्मसत्ता को कैसे हरा पाऊँगा? और क्योंकि कर्मराजा मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है और सामनेवाले जीव का भी वह दुश्मन है तो “मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा मित्र” इस फायदेमंद Calculation के हिसाब से मैं उसे मित्र क्यों न माल लू, उसी में मेरी भलाई है. नहीं तो कर्मसत्ता मेरे ऊपर हावी हो जाएगी और मुझे बरबाद करके रख देगी.’
जैसे कि पहले बता दिया गया,
‘किसी ने गाली दी, खराब शब्द कहे, किसी ने मेरी प्यारी वस्तु को तोड़ दी-फोड़ दी, किसी ने मेरा नाम ख़राब करने की कोशिश की आदि.
यह तो सब चलता है क्योंकि मेरी पार्टीवालों ने किया है जैसे शत्रु का सामना करने के लिए जा रहे मुहल्लेवालों से भीड़ भाड़ में थोड़ी बहुत लगती है ठीक उसी प्रकार. उस छोटी सी बात के लिए आपस में भिड़ना मेरे लिए ही हानिकारक है… .’
अथवा यह प्राणी ऐसा भी नहीं सोचता कि ‘यह सब कर्मसत्ता के द्वारा रचा गया नाटक है. उसको सूत्रधार ने वैसा रोल दिया, इसीलिए वह ऐसा आचरण कर रहा है.’ यह पूरा Concept जानने के लिए Please एक बार Jailer Series ज़रूर देखिएगा.
Jailer Full Video Series
जड़ के लिए व्यक्ति यानी Materialistic चीज़ों के लिए व्यक्ति इस विचारधारा को अपना भी लेता है. जैसे शरीर बार-बार बीमार पड़ता हो, व्यक्ति को परेशान करता हो तो साधना की कुछ भूमिका पर आरूढ़ हुआ व्यक्ति यह सोच भी लेता है कि ‘मेरा भाग्य ही ऐसा कि मुझे शरीर अच्छा नहीं मिला.’
परंतु जब उसे स्वजन-परिजन-पुत्र- या फिर परिवार के किसी भी व्यक्ति की ओर से जब बार-बार परेशानी आती है उस वक्त वह अपनी विवेकबुद्धि से समाधान नहीं कर पाता कि ‘मेरा भाग्य ही ऐसा फूटा हुआ है, इसलिए मुझे ऐसा स्वजन या परिजन आदि मिला है.’
जड़ की ओर से यानी Materialistic चीज़ों की ओर से आनेवाली तकलीफों में समाधान कर लेना फिर भी सरल है परंतु जीव की ओर से आनेवाली एक रत्तीभर तकलीफ में भी समाधान करना इतना सरल नहीं है.
जल्दबाजी में दौडनेवाला इंसान यदि किसी लकड़ी के कारण गिर जाए, तो व्यक्ति मन ही मन समाधान कर लेता है कि ‘मैं ही देखकर नहीं चला इसलिए गिरा.’ मगर पाँव पसारकर बैठे हुए व्यक्ति के पाँव से ठोकर खाकर यदि वह गिर जाए तो Same यही समाधान नहीं ढूंढ पाता कि ‘मैं ही देखकर नहीं चला इसलिए गिरा.’
ऊपर से चार बोल बिंदास कहकर जाता है ‘बीच रास्ते में पाँव पसारकर बैठा जाता है क्या? बिलकुल बदतमीज आदि है.’ इस तरह से न जाने व्यक्ति कितने शब्द-अपशब्दों की Line लगा देता है. इससे क्या यह उजागर नहीं होता, Prove नहीं होता कि हमारा Attachment जड़ की ओर यानी Materialistic चीज़ों की ओर ज्यादा है और जीव की ओर कम है या बिलकुल है ही नहीं?
यह खोज महत्त्वपूर्ण है. यह Research ज़रूरी है और Analysis करने जैसा है. लगभग सभी में यह Psychological Effect Knowingly-Unknowingly पड़ा रहता है. तभी तो व्यक्ति को जड़ की ओर से कुछ अच्छा होने पर जितनी हार्दिक खुशी होती है, उतनी जीवों की ओर से अच्छा होने पर नहीं होती.
जड़भक्त या जीवभक्त?
भोजन में चटनी बनाई गई है. व्यक्ति भोजन करने बैठा, मुँह में डालते ही पानी-पानी हो गया ‘वाह. कैसी चटनी बनी है.’ मगर उसी समय क्या चटनी को बनानेवाली पत्नी की Importance दिल से महसूस होती है?
जब-जब पुद्गल की ओर से कुछ अच्छा मिलता है तब तब भीतर ही भीतर जो आनंद की Feeling होती है, वैसी ही Feeling उस पौद्गलिक अच्छाई या पौद्गलिक सुख को खड़ा करनेवाले जीव के प्रति उत्पन्न नहीं होती. उल्टा एकाद बार भी यदि चटनी में गडबड हो गई तो गुस्सा किस पर आएगा? चटनी पर या पत्नी पर? अरे! बिचारी पत्नी को इतना सुना देंगे कि बस रुकने का नाम नहीं.
एक व्यक्ति का नौकर हर दिन अच्छे से काम करता है लेकिन एकाद बार यदि उससे गलती हो जाए तो वह व्यक्ति उसे जमकर सुनाता है, नौकरी से निकालने की धमकी तक दे देता है. यही व्यक्ति का शरीर हर रोज़ उसके लिए Problems खड़ी कर देता है.
जैसे कहीं जाना हो और तुरंत घुटने दर्द करने लग जाते हैं, सुबह जल्दी उठना हो और शरीर आलस करता है, ऑफिस का ज़रूरी काम करना हो तो अचानक सरदर्द इतना भयंकर कि काम पर फोकस ही नहीं कर पाता, शरीर साथ नहीं देता-एक बार नहीं कई बार, कई बार नहीं बार-बार लेकिन फिर भी वह अपने शरीर पर क्रोधित नहीं होता.
वर्षों तक पति की हर एक इच्छा को खुद की इच्छा मानकर चलनेवाली सुशील पत्नी बस सिर्फ एक बार भी पति की इच्छा के विरुद्ध चली गई अथवा तो पति को सिर्फ कल्पना खड़ी हुई कि ‘पत्नी मेरे विरुद्ध इच्छावाली हैं’ तो भी उसे जमकर सुनानेवाला पति, शरीर-व्यापार के विषय में अलग रुख अपनाता है.
शरीर इच्छाविरुद्ध जा रहा हो अर्थात् रोगी बन जा रहा हो या व्यापार इच्छाविरुद्ध जा रहा हो अर्थात् Profit के बदले Loss में चल रहा हो तो उस ओर वह ज्यादा ध्यान देता है. परंतु कोई स्वजन इच्छाविरुद्ध चलने लगे तो उसकी ओर प्रेम बढ़ाकर ज्यादा ध्यान देने के बजाय प्रेम घटाता क्यों होगा? Ignorant दृष्टि से क्यों देखता होगा? सोचने जैसा है.
एक बाप को जब अपने बेटे के लिए ऐसा लगता है कि ‘मेरा बेटा कहा हुआ मानता नहीं है, मनमानी करता है, अपनी खिचड़ी अलग पकाता है.’ तब से उस पुत्र के प्रति वात्सल्य अथवा प्रेम बढ़ने के बजाय घटता क्यों है? जितना प्रेम पहले था क्या उससे कम नहीं होता? बिलकुल होता है.
Life Partner उल्टा चले तो Life Partner पर क्रोध, उससे दूरी और Business उल्टा चले तो Business पर ज्यादा Focus. चटनी अच्छी हो ‘चटनी अच्छी बनी है’ और ख़राब हो तो ‘कितनी घटिया चटनी बनाई है?’ कहीं न कहीं पुद्गलों के लिए यानी Materialistic चीज़ों के लिए हमारे दिल में Soft Corner है और जीवों के प्रति वह Soft Corner नहीं है.
हम मनुष्यों की एक भयंकर भूल है? क्या?
जानेंगे अगले Episode में.