No Exception !
प्रस्तुत है Friend or Foe Book का Episode 18
पिछले Episode में हमने जाना था कि कर्मसत्ता को यह बिलकुल भी पसंद नहीं कि कोई व्यक्ति खुद तंत्र हाथ में लेकर किसी को सजा दे. काया से, वचन से और मन से भी कर्मसत्ता Allow नहीं करती.
इधर हम ऐसा सोचेंगे कि ये क्या बात हुई फिर तो परेशान करनेवाला करता ही रहेगा और जब तक उल्टा जवाब या ईट के बदले पत्थर नहीं मिलेगा सामनेवाला कहाँ चुप होगा. Right.?
दो भाई
दो भाइयों ने दीक्षा ली और घोर तपस्या के साथ साधु धर्म का Extraordinary पालन भी करने लगे. संयम और तप के बल पर उन्हें अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुई, यानी Super Powers कह सकते हैं.
दोनों एक बार कुणालानगरी में आए और चातुर्मास के लिए गाँव के बाहर कायोत्सर्ग में खड़े रहे और ध्यान करने लगे. लोग आकर उन्हें तंग करते, ख़राब शब्द बोलते, तिरस्कार करते, अपमान करते.. कुछ लोग तो हद पार करने लगे-पत्थर और लाठियों से प्रहार भी करने लगे.
दोनों मुनियों ने अपमान और आक्रोश को तो सह लिया था लेकिन पत्थर और लाठियों से Attacks होने लगे तब उनका Patience ख़त्म होने लगा. दोनों ने सोचा कि ‘आज इनको हम दिखा ही देते हैं कि हम क्या कर सकते हैं!’
आक्रोश में आकर दोनों मुनियों ने अपनी लाब्धियों का प्रयोग कर तूफ़ान लाया और पूरा इलाका तूफ़ान की चपेट में आ गया. बहुत भयानक नुकसान हो गया. लोग त्राहि-त्राहि पुकार उठे, खम्मा खम्मा करने लगे लेकिन उनका काल उनसे रूठ चुका था.
अब यह दृश्य देखकर हमें लगेगा कि दोनों मुनियों ने ठीक ही तो किया है, क्या गलत किया, वो परेशान कर रहे थे तो उनको सबक सिखाया इसमें तो कुछ भी गलत बात नहीं है Right?
लेकिन Reality यह है कि कर्मसत्ता ने इन दोनों मुनियों को भयानक सजा दी. कर्मसत्ता ने दोनों मुनियों को सातवीं नरक भेज दिया. कर्मसत्ता बेधड़क फैसला सुना देती है कि
तुम अपराधी नहीं थे यह बात सही है, लोगों ने अनेक प्रकार से पीडाएं देकर आपको तंग किया यह भी सच है लेकिन उन्हें सजा देने का, दंडित करने का Unauthorised Action लेने का अधिकार अपको नहीं था, फिर भी कुदरत के कानून को आपने अपने हाथ में लिया इसलिए आप भी अपराधी है, अतः जाइए सातवीं नरक की हवा खा आइए. 33 सागरोपम की भीषण कारावास भुगतिए.
हमने Episode 17 में थप्पड़ वाले Example से जाना था, कर्मसत्ता गुनाह से भी बड़ी सजा कई बार दे देती है. वही यहाँ पर भी हुआ. मुनियों ने क्या गुनाह Face किए थे-अपमान, तिरस्कार, ख़राब शब्द, परेशानी, लाठी और पाथर से प्रहार आदि.
मुनियों ने कानून अपने हाथ में लिए तो कर्मसत्ता द्वारा मुनियों को सजा मिली 7th नरक जो इन गुनाहों के सामने अनेकों गुना बड़ा है. हम सोच भी ना सके उतना बड़ा!
महान कौन?
इसीलिए ज्ञानी भगवंत कहते हैं ‘सहन करो, जो आए और जितना आए. सब कुछ समभाव से सहन करना सीखो. ईंट का जवाब न पत्थर से दो न ईंट से. जो वैसा करने गया इतिहास गवाह है कि कर्मसत्ता ने उसे कड़क और भयानक सजा दे रखी है.
वे बिचारे आज भी नरकादि में त्राहि माम्. त्राहि माम् पुकार रहे हैं. अतः प्रहार न करो, सहन करो. प्रहार करनेवाला मारा जाता है, सहनेवाला महान कहलाता है. लोहार के यहाँ निहाई और हथोडा देखा जा सकता है लेकिन यहाँ पर एक ख़ास बात देखी जाती है.
हथोडा प्रहार करता है और निहाई सहन करती है. प्रहार करनेवाले हथौड़े को बहुत कम समय में ही भंगार में फेंक दिया जाता है, सहन करनेवाली निहाई वर्षों तक चलती रहती है.
प्रहार करनेवाला Unstable है, प्रहार सहनेवाला Stable है.
दस्ता को ऊपर से नीचे तक बार-बार गिरना पड़ता है. चोट करनेवाली तलवार को बदलनी पड़ती है, ढाल को नहीं.’
आचार्य खंधकसूरि
सरल भाषा में समझे तो एक व्यक्ति जिसे पालक कहा गया है उसने खंधकसूरि के 500 शिष्यों को एक बड़ी Machine में डालकर पीस दिया, हत्या कर दी तो भी खंधकसूरि के पाँच सौ शिष्यों ने उफ़ तक नहीं किया और तकलीफ को हँसते मुँह सह लिया.
पापी पालक को वे शिष्य सज़ा करने नहीं बैठे तो क्षपकश्रेणि पर आरूढ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्षसुख के भोक्ता बने. खंधकसूरिजी ने पालक के ऊपर ज़रा सा भी क्रोध नहीं किया, थोडा सा भी तिरस्कार नहीं किया, कोई भी प्रतिक्रिया-प्रतिरोध नहीं, कोई द्वेष नहीं किया.
इस तरह अपने प्राण से प्यारे 499 शिष्यों को भयंकर रूप से उस Machine में पीसे जाते हुए और मौत को गले लगाते हुए देखा.
ऐसा दृश्य देखकर तो अच्छे से अच्छे समताधारी हो, Extreme शांत व्यक्ति हो उन्हें भी क्रोध आ जाए फिर भी उन्होंने अपना खून खुलने नहीं दिया, संतुलन रखा, ऐसा कह सकते हैं कि दिमाग पर बरफ का हिमालय-सा पहाड़ रख दिया.
इतने ठंडे रहे लेकिन कई बार ऐसा होता है कि Ocean को व्यक्ति पार कर देता है लेकिन छोटी नदी में डूब जाता है.
ऐसा ही कुछ इन्हें साथ भी हुआ. 499 की हत्या हो गई थी अब सिर्फ एक बालमुनी बचे थे.
इतना सब कुछ शांति से सहन कर लिया और फिर खंधकसूरि ने पालक से कहा कि ‘भैया पालक! अब तक मैंने तुमसे कुछ भी नहीं कहा, न प्रतिरोध किया न कोई दलील की, परंतु अब मेरी विनती को मान, इस बालमुनि को इस कोल्हू में तिल की तरह पीसते हुए मैं देख नहीं पाऊँगा. इसलिए पहले मुझे पीस दे, फिर इस बालमुनि को पीसना हो तो पीसना और दया आए तो छोड़ देना.’
इस विनती से पालक का दिल पिघला नहीं क्योंकि उसे तो खंधकसूरिजी को ज्यादा से ज्यादा पीड़ा पहुँचानी थी. 499 शिष्य जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया था उनको भी इसलिए ही मौत के मुंह में धकेला था और अंत में इस बालमुनि को भी और उसके आनंद का ठिकाना नहीं रहा.
पालक ने सोचा कि ‘499 को कोल्हू में पीस दिया, खंधकसूरिजी को तकलीफ नहीं हुई और इस बालसाधु को पीसुंगा तो अवश्य तकलीफ होगी.’
इसीलिए पालक ने सूरिजी को जवाब दिया ‘अच्छा, तो यह बात है! तब तो मैं इसी को पहले पीसुंगा क्योंकि मेरा मकसद ही यह है कि आपको मैं ज्यादा से ज्यादा मानसिक वेदना से तडपाऊँ.’ उसने ऐसा कहते हुए बालसाधु को खींच कर कोल्हू में डाल दिया.
उसकी इस घटिया हरकत और अन्यायपूर्ण कार्य को देखकर खंधकसूरिजी क्रोध से तमतमा उठे. उन्होंने इन्साफ का तराजू अपने हाथ में लेकर अपराधी को भयंकर सज़ा देने ने का संकल्प किया कि
अन्यायी राजा दंडक और पालकमंत्री के इस भयंकर ख़राब कार्य को तमाशा की तरह चुपचाप देखनेवाले इस नगर के तमाम लोगों के साथ इस राजा और मंत्री का मैं नाश करनेवाला बनूँ.
यह संकल्प लेने से पहले ठंडे दिमाग से खंधकसूरि ने सोचा नहीं और क्रोध में भयानक संकल्प कर दिया.
कर्मसत्ता ने तो खंधकसूरि को फैसला सुना दिया ‘पाँच सौ शिष्यों की तरह आपको भी कोल्हू में पीसा तो जाएगा ही, दुख भी वैसा ही सहन करना पड़ेगा लेकिन आप स्वयं Judge बन बैठे और सजा देने को बैठ गए तो आपको मोक्ष नहीं मिलेगा.
संसार भ्रमण की भयंकर सजा आपको दी जाती है. आपके ही अद्भुत वचनों से आपके 500 शिष्यों ने यह भयंकर गलती नहीं की तो उन्हें केवलज्ञान और मोक्षप्राप्ति का पुरस्कार मिली लेकिन आपको नहीं.’
कोई भी देखकर कह देगा अन्याय हो रहा है लेकिन कर्मसत्ता को यह बिलकुल भी पसंद नहीं कि कोई भी व्यक्ति सत्ता हाथ में लेकर सजा सुना दे. सजा का संकल्प करनेवाले खंधकसूरि को भी कर्मसत्ता ने भयानक सजा सुना दी.
प्रभु वीर ने क्या कहा?
भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष की घोर तपश्यर्चा के बाद जिस अद्भुत केवलज्ञान की प्राप्ति की, उस केवलज्ञान रूपी दर्पण में श्रमण भगवान महावीर ने इस दुनिया को देखी. कैसी थी वह दुनिया? राग से रंगीन, मोह से मलिन और द्वेष से दीन और हीन.
ऐसी दुनिया को देखकर परमात्मा ने अपने अनंतज्ञान से उसका मूल देखा, Base देख, उसकी जड़ें देखी और उनमें पाया कि जीव अनादिकाल से कर्मसत्ता के न्याय में हस्तक्षेप कर रहा है.
इसीलिए उसे कर्मसत्ता दण्डित करती जा रही है, उससे मुक्त होने का बस एक ही उपाय है और करुणासागर भगवंत ने जीवमात्र को इस कर्मसत्ता के भीषण दण्डों से बचने के लिए उपदेश दिया…
‘मा कम्मबंधं करेह’
प्रभु ने कहा कि जो कुछ आए सहन करो, सज़ा करने के लिए मत बैठो, भयंकर कर्म बांध लोगे और फिर उसका दण्ड़ तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा. अरे! सामनेवाले व्यक्ति को सजा करने की व्यर्थ चिंता में आप अपनी शक्ति और बुद्धि क्यों बरबाद करते हो?
छोडो चिंता, कर्मसत्ता की Court व्यापक है, वह सदा जागरुक है और बिलकुल भी बेखबर नहीं है. चील की भांति उसकी नजर हर पल हर एक व्यक्ति पर और उसकी हर एक गतिविधि पर गड़ी हुई है.
पूज्यश्री का कहना है कि हमें Complaint करने की मूर्खता करनी ही नहीं चाहिए और Complaint कर भी तो कितनी सकेंगे? हम Complaint करेंगे भी तो किसकी? जिसके बारे में हमें पता होगा कि इसने मुझे तन से तंग किया, मारा-पीटा, इसने मुझे वचन से बुरा कहा, कोसा… बस, तन और वचन की ही हम फरियाद कर पाएँगे.
वह भी हमें पता होगा तो ही, पीठ पीछे गाली देनेवालों का शायद हमें पता नहीं होगा. मन से हमारा सत्यानाश चाहनेवाला व्यक्ति हमारे आस-पास बैठा होगा तो भी शायद हमें पता नहीं भी होगा, उसकी तो हम Complaint भी नहीं कर पाएँगे? क्या उसकी सजा नहीं होगी? क्या उसे बेगुनाह मानकर कर्मसत्ता की Court रिहा कर देगी? नहीं! बिलकुल नहीं!
NO Complaint
अर्थात् किसी ने Secretly या पीठ पीछे हमारी निंदा की या कोई हमारे लिए खराब विचार कर रहा हो तो उसे भयंकर अशुभ कर्म बंध हो ही गए ये एक दम Clear समझना है. तो फिर हमें Complaint करने की जरुरत ही कहाँ रही?
In fact, हमें तो यह भी नहीं सोचना है कि ‘जो मेरे साथ बुरा करेगा ज़रूर उसके साथ कर्मसत्ता बुरा करेगी, ज़रूर उसका बिगड़ेगा, ज़रूर कुदरत भी उसको सजा देगी’ ऐसा नहीं सोचना है क्योंकि इस Feeling में भी कहीं ना कहीं उसका बिगड़े यह मन से हम इच्छा कर ही रहे हैं, यानी यह भी एक प्रकार से मन से की गई शत्रुता ही हुई और Complaint जैसा ही हुआ.
कर्मसत्ता अपना काम करेगी हमें Complaint नहीं करनी है. इसलिए जो कुछ भी आए, सहर्ष उसका स्वीकार करना है, सुस्वागतम्-Welcome और न आए तो भीड कम कहना है. मगर आ ही जाए तो Welcome कहने में ही फायदा है.
That which cannot be cured, should be Endured. Enduring here means to suffer something painful or uncomfortable without complaining.
वैरभाव या गुस्सा तो कतई नहीं ‘हाय हाय! मुझे ऐसा सहना? ऐसा तो कैसे सहा जाए?’ इत्यादि रूप से हायतोबा भी नहीं, क्योंकि यह भी एक तरह की Complaint ही है और Complaint को भी कर्मसत्ता Accept नहीं करती है.
मानो वह जीव को Clearly कहती है कि ‘बच्चा! तुझे पता न भी हो तो भी तेरे खिलाफ किए गए अपराधों का पूरा लेखा-जोखा मैं अपने हिसाब से रख ही रही हूँ और सही सज़ा भी फटकारती हूँ. किसी भी व्यक्ति का कैसा भी अपराध हो, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, मेरी नज़रों से कोई बच नहीं सका है.
मेरा System इतना Strong और Perfect है कि लाख कोशिश करने पर भी न मुझसे कोई बच पाया है न बच पाएगा. अपराधी के अपराध की सजा पक्की है. इतना सब कुछ होते हुए भी तुम मेरे ऊपर Doubt करके Complaint करते हो? अर्थात् तुम भी गुनेहगार हो. ले, तू भी सज़ा लेते जा.’
कर्मसत्ता ने तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ा.
जी हाँ!
तो तीर्थंकरों ने इस कर्मसत्ता से जीतने के लिए जो उपाय बताया है वह जानेंगे अगले Episode में.