The Hidden Truth of Samvatsari | Friend or Foe – Episode 38

हम प्रतिक्रमण करते हैं, लेकिन क्या सच में वैर या द्वेष या झगडा मिटाते हैं?

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संवत्सरी प्रतिक्रमण और चम्मच की कहानी

प्रस्तुत है Friend or Foe पुस्तक का Episode 38
इस पुस्तक के हिंदी Version का नाम है ‘हंसा तू झील मैत्री सरोवर में’

महाभारत की द्रौपदी

द्रौपदी ने श्रीकृष्ण से शिकायत की, ‘प्रभु, जब दुःशासन ने सभा में मेरे वस्त्र खींचे, आप पहले क्यों नहीं आए? आखिरी पल में आए, ये आपकी गलती नहीं?’ कृष्ण मुस्कुराए और बोले, ‘पांचाली, गलती मेरी या तेरी? तूने पहले पांडवों, फिर भीष्म को पुकारा. मुझे आखिरी पल में याद किया. मैं तुरंत आया. गलती किसकी?’ 

हम भी यही करते हैं-दूसरों की गलती देखते हैं, अपनी नहीं. सामने वाले के व्यवहार को गलत मान लेते हैं, उसकी मजबूरी समझे बिना. हमारी सोच ही ऐसी है-दूसरों पर शक, उनकी गलती पर ‘गलत’ का ठप्पा. 

‘गलती देखकर डाँटो’ वाला रवैया हमें कड़वे शब्द बोलने को मजबूर करता है. सामने वाला अपनी मजबूरी बताए, तो गुस्से में हम सुनते नहीं, उल्टा तर्क तोड़ने लगते हैं. ‘बचाव कर रहे हो? चोरी और सीनाज़ोरी.’ ऐसे कठोर शब्द और निकलते हैं. 

इससे सामने वाले के दिल में नफरत बढ़ती है. झगड़ा बढ़ता है, दिल टूटता है. दो-तीन घंटे बाद सच्चाई पता चले, तो पछतावा होता है, ‘जल्दबाजी में डाँटा, चुप रहता तो क्या बिगड़ता?’ फिर टूटा दिल जोड़ने की कोशिश शुरू, पर देर हो चुकी होती है. टूटा दिल जुड़े भी, तो निशान रह जाता है. 

पंछी के ऊपर जब कोई पत्थर फेंकता है तो जीवनभर उस पंछी के दिल से विश्वास उठ जाता है और फिर प्रेम स्नेह आदि के माध्यम से कितना भी प्रयत्न क्यों ना किया जाए पहले जैसा विश्वास खड़ा नहीं हो पाटा. 

एक पंछी के दिल में भी पत्थर के घाव का थोडा दर्द तो रह ही जाता है. वह अब कभी भी Free Mind से बिना डरे पास आएगी नहीं. तो फिर मनुष्य के दिल में कटुवचन के घाव का तो पूछना ही क्या? Weapon की चोट से भी वचन की चोट ज्यादा गहरी होती है. 

बाघ का घाव 

जंगल के किनारे एक भील रहता था. वो रोज़ जंगल में एक बाघ से मिलता, दोनों दोस्त बन गए. भील अपनी पत्नी को बाघ की बातें बताता. पत्नी ने कहा, ‘उसे घर लाओ.’ भील ने बाघ से बार-बार गुज़ारिश की. आखिरकार, बाघ उसकी कुटिया में आया. 

उस दिन बाघ ने सड़ा मांस खाया था, उसके मुँह से बदबू आ रही थी. भील की पत्नी चिढ़ गई और बोली, ‘छी. ये कैसा दोस्त? इसके मुँह से तो बदबू आती है.’ बाघ को ये सुनकर गहरा दुख हुआ. वो चुपचाप चला गया और फिर कभी नहीं मिला. 

भील ने उसे ढूँढा, ‘मित्र, अब क्यों नहीं मिलते?’ बाघ बोला, ‘तेरी पत्नी के शब्दों ने मेरे दिल को गहरी चोट दी है’ भील ने कहा, ‘इतनी सी बात?’ बाघ बोला, ‘तू नहीं समझेगा. एक काम कर ये तीर मेरे पाँव में मार.’ 

भील ने मना किया, पर बाघ के ज़ोर देने पर तीर मारा और निकाल लिया. तीन दिन बाद बाघ बोला, ‘पाँव का घाव भर गया, पर तेरी पत्नी के शब्दों का घाव अभी ताज़ा है.’ शब्दों के घाव गहरे होते हैं. 

एक छोटा सा वाक्य, जैसे ‘अंधे के बच्चे अंधे,’ महाभारत जैसा युद्ध शुरू कर देता है. किसी की कथित गलती पर डाँट दो, तो उसके दिल को ऐसी चोट लगती है कि लाख अच्छा व्यवहार करो, वो घाव पूरी तरह भरता नहीं.

अनुभवसिद्ध बात 

तुरंत कुछ न बोलने की आदत से कई बार फायदा होता है. गलती पर तुरंत कुछ कहने के बजाय, अगर थोड़ा रुका जाए, तो 4-6 घंटे बाद सोचने पर लगता है, ‘अरे, इसमें कहने लायक था ही क्या?’ 

शायद हम भी उस हालात में वही करते. एकांत में शांति से बात करो, तो सामने वाला अपनी मजबूरी समझाता है, और उसकी गलती उतनी बड़ी नहीं लगती. गुस्सा ठंडा होने से उसकी बात आसानी से समझ आती है. न बोलना सही लगने लगता है. 

जितने कम ‘Operation’ हों, उतना बेहतर. अगर गलती सुधारनी ही हो, तो सावधानी बरतोगे, ताकि बड़ा नुकसान न हो. जो तुरंत गलती पर भाषण दे देते हैं, उन्हें रात को शांति से दिनभर का हिसाब करना चाहिए. 

नौकर, पत्नी, बेटे को कितनी बार, किन गलतियों पर डाँटा? क्या वो डाँटने लायक थीं? सोचो, तो आधे मामलों में लगेगा, ‘अरे, इसमें क्या डाँटना था? ऐसी छोटी गलतियाँ तो मैं भी करता हूँ.’ ये समझ आने से अगली बार जल्दबाजी में डाँटने से हम बच जाएंगे. 

बड़ा अपराध हो तो 

अगर सामने वाले ने बहुत बड़ा गुनाह किया, जिससे दिल में बदले की आग भड़क उठे, तब भी गुस्से में तुरंत कुछ नहीं करना चाहिए. मन को काबू में रखकर थोडा वक्त बीतने देना चाहिए. वंकचूल की Story अगर आपने Miss किया है तो ज़रूर देखिएगा. 

Story Of Mahapurush Vankchul

वंकचूल का नियम था-किसी की भी हत्या करने से पहले सात कदम पीछे हटना. इस नियम ने उसके हाथों से उसकी खुद की बहन की हत्या होने से बचा लिया.) तुरंत बदला लेने से गुस्से में हम गुनाह का ठीक से Analysis नहीं करते. 

वरना सोचने का समय मिलता है जैसे कि ‘क्या गुनाह इतना बड़ा है? इतना सख्त बदला ज़रूरी है? अगर वो गुस्से में मुझ पर भारी पड़ गया तो?’ जल्दबाजी में कदम उठाएंगे, तो ज़िंदगी भर पछताना पड़ सकता है. 

लेकिन वक्त लेने से फायदा होता है. समय बीतने पर गुनाह छोटा लगने लगता है, बदले की आग ठंडी पड़ती है, और कोई बड़ा हादसा टल भी जाता है. सामनेवाले को भी अपनी गलती का निरिक्षण करने का समय मिल जाता है. 

Abraham Lincoln की कला 

लिंकन वकील थे. एक क्लाइंट उनके पास आया, पुराने Partner से उसका झगड़ा था. उसने लिंकन को दो पत्र दिए. ‘वकील साहब, ये उसका 20 पेज का गाली से भरा पत्र है. पुरानी बातें उखाड़कर मुझ पर इल्ज़ाम लगाता है. मैं चुप थोड़े रहूँगा. मैंने 40 पेज का जवाब लिखा, गालियों की डिक्शनरी खोल दी. ज़रा देखें, कहीं मैं फँस तो नहीं जाऊँगा?’ 

लिंकन ने गुस्सा देखकर वक्त लेना ठीक समझा. ‘आपकी बात सही है, पर मैं अभी व्यस्त हूँ. पत्र यहीं रखें, एक हफ्ते बाद मिलें.’ हफ्ते बाद क्लाइंट आया, गुस्सा कम था. लिंकन ने नाटक किया, ‘अरे, भूल गया. एक हफ्ते बाद आना.’ 

फिर हफ्ते बाद क्लाइंट आया. लिंकन ने पत्र की तारीफ़ की, ‘बढ़िया लिखा, पर क्या वो इतना लंबा पत्र पढ़ेगा? छोटा करो, ज़्यादा असर होगा.’ क्लाइंट ने पत्र 40 से 20, फिर 10 पेज का किया. 

लिंकन ने तारीफ़ बरसाई, ‘शानदार, पर पत्र की तारीख देखो, महीना बीत गया. वो जवाब भूल चुका होगा. अब क्या मतलब?’ क्लाइंट निराश हो गया और बोला, ‘तो क्या करूँ?’ लिंकन बोले, ‘फाड़ दो, मानो आपको पत्र मिला ही नहीं. जवाब देने से झगड़ा बढ़ेगा, वक्त और शांति बर्बाद होगी.’ 

क्लाइंट ने पत्र फाड़ दिए. लिंकन ने सिद्धांत बताया, ‘गुस्सा हो, तो पत्र लिखो, पर कभी भेजो मत.’ मनोविज्ञान कहता है, गुस्सा कागज़, दोस्त, या दीवार पर उंडेल दो, 60% राहत मिलेगी. वक्त बीतने से गुस्सा ठंडा होता है, और सामने वाला भी हमारी चुप्पी से हमें सम्मान देता है. 

हम क्या करते हैं? 

दूसरों की गलती स्वीकार करवाते हैं, पर अपनी गलती मानते नहीं. कोई हमें हमारी गलती बताएं तो बचाव नहीं करना है, तुरंत मान लेना है कि, ‘हाँ, मेरी गलती.’ इससे गुस्सा शांत होता है, झगड़ा नहीं बढ़ता. 

बाद में, 4-5 घंटे बाद, एकांत में समझा सकते हैं. तुरंत सफाई देंगे, तो वो गुस्से और अहंकार में सुनेगा नहीं. छोटी गलती से बड़ी आग जैसी तबाही हो सकती है. इसलिए, तुरंत गलती बतानी नहीं, और अपनी गलती का बचाव करना नहीं, मान लेना, इसी में हित है.

यह Difference अथवा विवेक समझ बहुत ज़रूरी है. सामनेवाले की गलती हो तो तुरंत बताना नहीं, और यदि हमारी गलती होने पर कोई तुरंत बता दे तब यह नहीं सोचना कि इसको अक्कल नहीं है क्या कि तुरंत टोकना नहीं चाहिए. 

हमारी गलती होने पर कोई तुरंत बता दें तब बहस नहीं करके चुपचाप गलती मान लेनी चाहिए. यह विवेक रखना ज़रूरी है. इससे अनेकों Problems Solve हो जाएगी और जीवन में शांति, समाधि और सम्मान की Entry होगी और अशांति, असमधि और अपमान का Exit. 

कुछ भी करना पड़े 

चाहे कुछ भी करना क्यों न पड़े परन्तु मित्रता खड़ी होनी ही चाहिए. शत्रुता का भाव नष्ट होना चाहिए. वैर की गाँठ यदि दिल में रह गई, मिच्छामि दुक्कड़म् देकर उसका Operation-सफाया नहीं करवाया तो शास्त्रकार भगवंत फरमाते हैं कि धर्म की क्रियाएँ हो जाएँगी, परंतु धर्म नहीं होगा, आराधना नहीं होगी. 

‘जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा,
जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा’ 

यानी  जो उपशांत है, जिसने वैर-वैमनस्य की गाँठ को तोड़ दी है, उसी की आराधना है अर्थात् वही आत्मा, आत्मा के स्वास्थ्य को प्राप्त करती है. जो उपशांत नहीं होता है, वैर-वैमनस्य से मुक्त नहीं होता है उसकी आराधना नहीं होती है. 

उसकी आत्मा, आत्म-स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं कर पाती, उससे वंछित रहती है. आज हम क्या कर रहे हैं? चींटी को नहीं मारते लेकिन साथ में रह रहे इंसान को ऐसे ऐसे शब्द बोल देते हैं कि वह जीतेजी मर जाता है. 

हर वर्ष संवत्सरी प्रतिक्रमण हम करते हैं, इस प्रतिक्रमण में सिर्फ एक वर्ष के कर्म रोग ही नहीं, इस वर्तमान के जीवन के कर्म रोग ही नहीं बल्कि पूरे Past में जितना भी कर्म रोग बढ़ा है उस रोग को जड़ से उखाड़ फेंकने की और संपूर्ण भाव आरोग्य देने की ताकत संवत्सरी प्रतिक्रमण रूप दवाई में है. 

हर वर्ष संवत्सरी आकर चले जाती है हम शायद खड़े होकर प्रतिक्रमण भी कर लेते हैं लेकिन क्या कर्म रोग मिटता है? क्या हम आत्मिक स्तर पर विकास करते हैं या वही के वही रह जाते हैं खुद से पूछ सकते हैं. 

चम्मच की कहानी

एक व्यक्ति अपने दोस्त के घर भोजन में गया. शानदार खाना, टेबल-कुर्सी, ढेर सारी डिशेज़. सबने खूब खाया, उस व्यक्ति ने भी पेट भरकर खाया. पर खाने के बाद उसने चम्मच धोकर खुद की जेब में डाल लिया, बिना किसी डर के. पास बैठे सज्जन को हैरानी हुई. 

उन्होंने चुपके से पूछा कि ‘भाई, ये क्या किया?’ वह व्यक्ति बोला ‘क्या मतलब? चम्मच ली है.’ सज्जन व्यक्ति ने कहा कि ‘पर ये ठीक नहीं.’ उसने कहा कि ‘नहीं, मैंने ठीक किया.’ 

सज्जन ने पूछा कि ‘कैसे?’ उस व्यक्ति ने उत्तर में कहा कि ‘कल पेट दर्द हुआ था. डॉक्टर ने दवा लिखी, नीचे हिंदी में लिखा था, ‘खाने के बाद रोज़ एक चम्मच लेनी.’ तो मैंने चम्मच ले ली.’ बेचारा वह व्यक्ति. उसे समझ नहीं आया कि चम्मच से मतलब दवा की चम्मच थी, जो केमिस्ट से लेनी थी. 

दवा तो दुकान पर रही, और वो चम्मच जेब में डाल लाया. अब उसका दर्द क्या ठीक होगा, सोचने जैसा है.

हम भी ऐसे तो नहीं?

हम भी इस व्यक्ति से मिलते जुलते हैं. हम सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते हैं मगर हम उसे दवाई लेने के रूप में करते हैं या चम्मच लेने के रूप में? वैर-वैमनस्य मिटा देना, दिल की Diary में किसी का नाम Blacklist में नहीं रखना, पापों की आलोचना-शुद्धि कर लेनी-यह सब दवाई लेने के रूप में हैं. 

इस तरह किए बिना ही सिर्फ उपाश्रय जाकर तीन घंटे कटासन पर (बेठके पर) बैठ जाना, 40 लोगस्स का काउस्सग्ग कर लेना, मुहपत्ति-वांदणा की क्रिया कर लेना यह चम्मच लेने जैसा है. 

इस तरह प्रतिक्रमण में यदि हाथ-पाँव हिलाने रूप चम्मच ही लेते रहेंगे और विषय-कषायों को नहीं हिलाएँगे, वैर-वैमनस्यों का मूल से नाश नहीं करेंगे या उस दिशा में कदम भी आगे नहीं बढाएँगे तो कर्मरोग कैसे नष्ट होगा? 

सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का रहस्यार्थ है कि ‘शत्रुता के भावों को दफना कर, मैत्रीभावना को विकसित करें.’ लेकिन क्या इस दिशा में हम संवत्सरी का प्रतिक्रमण करते हैं या कर रहे हैं? हम इतना धर्म करते हैं लेकिन Changes क्यों नहीं आते? क्यों लंबा फायदा नहीं दिखता? जानेंगे अगले Episode में.

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