आज हम जैन धर्म के एक महापुरुष करकंडु मुनि की अद्भुत और रोचक कथा देखेंगे. बने रहिए इस Article के अंत तक.
राजा – रानी का वियोग
भरत क्षेत्र के चंपापुरी नगरी के दधिवाहन राजा की पद्मावती नामक रानी थी जो कि राजा चेटक की पुत्री थी. एक बार पद्मावती रानी गर्भवती हुई और गर्भ के प्रभाव से रानी को ‘स्वयं हाथी पर बैठी हो और राजा मस्तक पर छत्र धारण कर भ्रमण कराएं.’ इस प्रकार का दोहद यानी इच्छा उत्पन्न हुई.
खुद राजा छत्र धारण करें ये थोड़ा अजीब हो जाता है क्योंकि वो राजा है और इसलिए लज्जा (शर्म) के कारण महारानी अपना दोहद महाराजा से कह नहीं पा रही थी और दोहद पूरा नहीं होने से महारानी का शरीर धीरे धीरे कमजोर बनता जा रहा था. दोहद यानी कि सरल भाषा में कहे तो Pregnant महिला को जो इच्छा होती है उसे दोहद कहते हैं, दोहद पूरा ना होने पर गर्भावस्था स्त्री कमज़ोर होती जाती है.
Please Note : Cravings और दोहद अलग अलग चीज़ें होती है.
आखिर एक दिन महाराजा ने महारानी से पूछ लिया कि ‘प्रिये. तुम्हारा देह यानी शरीर दिन पर दिन कमजोर क्यों होता जा रहा है?’ महाराजा के पूछने पर महारानी ने गर्भ के प्रभाव से उत्पन्न हुए दोहद की बात बताई. दोहद की बात जानने के बाद महराजा ने महारानी के दोहद की पूर्ति के लिए सभी व्यवस्था कर दी और महारानी को हाथी पर बिठाकर राजा स्वयं महारानी के मस्तक पर छत्र धारणकर जंगल की ओर भ्रमण करने निकल गया.
जंगल में जाने के बाद उस हाथी को विंध्याचल पर्वत याद आ गया और वह हाथी राजा-रानी को लेकर खूब दूर जंगल की गहराईयों में चला गया. इस स्थिति को देख राजा और रानी Tension में आ गए और सोचने लगे कि ऐसी स्थिति में अब क्या किया जाए? राजा ने सोचा ‘सामने बड़ का वृक्ष यानी Banyan Tree आ रहा है अत: क्यों न उसकी डाल को पकड़कर नीचे उतर जाए?’ इस प्रकार विचारकर उसने महारानी को भी यह बात बताई. कुछ ही क्षणों में वह हाथी Banyan Tree के नीचे आ गया और तुरंत ही राजा ने उसकी डाल पकड़ ली लेकिन रानी वृक्ष की डाल को पकड़ नहीं पाई.
राजा तो डाल के सहारे नीचे उतर आया, परंतु रानी हाथी पर ही बैठी रही और हाथी के सहारे वह दूर जंगल में चली गई. आगे बढ़ने पर एक तालाब आया. वह हाथी पानी पीने के लिए तालाब के किनारे पहुँचा और उस समय अवसर देखकर रानी हाथी पर से नीचे उत्तर गई. चारों ओर घना जंगल देख रानी डर गई और रानी कर्म की विचित्र गति के बारे में सोचने लगी ‘अहो. कहाँ राजमहल और कहाँ यह जंगल. भाग्य के आगे किसी की नहीं चलती है.’
इस प्रकार धैर्य धारणकर उस महारानी ने अरिहंत आदि चार की शरणागति को स्वीकार कर सागारिक अनशन यानी अगर जीवित रहे तो आहार, पानी सब खुल्ला यानी पच्चक्खान नहीं पर मौत सामने दिख रही है तो चारों आहार के पच्चक्खान स्वीकार लिया. पास ही में एक तापस का आश्रम था. आगे बढ़ती हुई महारानी तापस के आश्रम में चली गई. आश्रम के कुलपति ने रानी से उसका परिचय पूछा तब रानी ने उसे सब हकीकत बताई और उसके बाद महारानी कुछ दिन तापस के आश्रम में रही.
एक दिन रानी ने तापस से पूछा ‘यह मार्ग कहाँ जाता है?’ तब तापस ने कहा कि ‘यह मार्ग दंतपुर जाता है और वहाँ दंतचक्र राजा है. वहाँ से तुम चंपानगरी में जा सकोगी.’ पद्मावती रानी पैदल ही दंतपुर नगर में पहुँच गई और रानी के सद्भाग्य से नगर में प्रवेश के साथ ही एक साध्वीजी भगवंत का योग भी उसे मिल गया और वह साध्वीजी भगवंत के साथ उपाश्रय में चली गई. साध्वीजी भगवंत ने उसे संसार की असारता और मोक्ष की उपादेयता समझाई, जिसे सुनकर पद्मावती रानी को संसार के प्रति वैराग्य भाव पैदा हो गया और वह दीक्षा के लिए तैयार हो गई.
करकंडु का जन्म
दीक्षा के पूर्व उसने अपने गर्भ की बात किसी को नहीं कही. साध्वीजी भगवंत के पास पद्मावती रानी ने दीक्षा ले ली. दीक्षा के बाद जब उसके शरीर पर गर्भ के चिह्न स्पष्ट दिखाई देने लगे तब गुरुवर्या साध्वीजी ने पूछा कि ‘यह क्या? तुम गर्भवती हो?’ तब पद्मावती साध्वीजी ने सब सच बताया कि वे दीक्षा के पूर्व ही गर्भवती थीं और दीक्षा में अंतराय के भय से यानी कि हो सकता है कि Pregnant हो ऐसा बोल दूँ तो दीक्षा ना दे इस भय से उन्होंने गर्भवती होने की बात किसी से नहीं कही थी.
गुरुवर्या साध्वीजी ने पद्मावती साध्वीजी को गुप्त रखा और एक दिन साध्वीजी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया. गुरुवर्या साध्वीजी ने पद्मावती साध्वीजी से कहा कि ‘यदि इस बालक का तुम पालन करोगी तो शासन की भयंकर हीलना होगी. यदि किसी को देंगे तो भी हम पाप में निमित्त बनेंगे. अत: क्यों न सावधानी पूर्वक इसे नगर के बाहर छोड़ दिया जाए?’ गुरुवर्या साध्वीजी की बात पद्मावती साध्वीजी को उचित लगी और वे उस बालक को नगर के बाहर श्मशान की भूमि में ले गई और वहाँ पिता दधिवाहन राजा के नाम से अंकित एक महारत्न के साथ उस बालक को छोड़ दिया.
थोड़ी ही देर में जनगम नामक एक चांडाल वहाँ पर आया. उस चांडाल को संतान नहीं थी और इसलिए वह उस बालक को उठाकर ले गया और बालक को अपनी पत्नी को सौंप दिया. गुप्त रीति से यह सारी घटना पद्मावती साध्वीजी ने जान ली. वह बालक चांडाल के घर पर धीरे-धीरे बड़ा होने लगा. उस बालक को अपने शरीर पर खुजली आती थी और वह अपने साथियों के पास अपने शरीर में उनके हाथों से खुजलवाता था और इसलिए उस चांडाल बालक का नाम करकंडु पड़ गया. कर यानी हाथ और कंडु यानी खुजली.
चांडाल पुत्र बना राजा
छह वर्ष का वह बालक पिता की आज्ञा से श्मशान भूमि का रक्षण करता था. एक बार दो साधु भगवंत उस श्मशान भूमि पर आए और उस श्मशान की भूमि में बाँस के कई वृक्ष देखकर वे अपने निमित्त ज्ञान के बल से बोले कि ‘जो व्यक्ति इस बाँस के Base से 4 Fingers छोड़कर, बाँस के चार अंगुल पर्व को ग्रहण करेगा, वह भविष्य में अवश्य ही राजा बनेगा.’ पर्व यानी Sugarcane के बीच में जो गाँठ होती है उसे पर्व कहते हैं.
साधु भगवंत की यह बात करकंडु और एक ब्राह्मण ने सुन ली और जैसे ही वह ब्राह्मण उस बाँस को काटने लगा तब ही करकंडु ने आकर उसे रोक दिया और कहा कि ‘इस बाँस को तो मैंने पाला पोसा है, तुम इसे क्यों काटते हो?’ आखिर उनका झगड़ा राजदरबार में पहुँच गया और उन दोनों ने अपनी बात राजा के सामने प्रस्तुत की. राज्य प्राप्ति की बात को मजाक समझकर हँसते हुए राजा ने कहा कि ‘चांडालपुत्र! यदि तू राजा बन जाए तो इस ब्राह्मण को एक गाँव दे देना.’ यह बाँस चांडालपुत्र का है यह घोषणा हुई.
वह ब्राह्मण किसी भी उपाय से चांडालपुत्र करकंडु को खत्म करना चाहता था और इस बात का पता चांडालपुत्र को चल गया और मौत से बचने के लिए करकंडु अपने माता-पिता आदि परिवार के साथ कांचनपुर नगर में रहने चला गया. कांचनपुर नगर में महाराजा की अकाल मृत्यु हो गई. राजा को कोई संतान नहीं थी इसलिए मंत्रियों ने पाँच दिव्य किए और उन सभी दिव्यों के द्वारा करकंडु को राजा बनाया गया. ये एक प्रकार का Process होता है जिसमें जो Select हो जाए वो राजा बन जाता है. करकंडु का विधिपूर्वक राज्याभिषेक किया गया.
सभी प्रजाजनों ने करकंडु को राजा के रूप में स्वीकार किया परंतु ब्राह्मण लोग ‘यह तो चांडालपुत्र है’ मानकर उसे राजा मानने के लिए तैयार नहीं हुए. गुस्से में आकर उन ब्राह्मणों ने अपने हाथ में लाठियाँ उठा ली और तभी अचानक देवकृत अतिशय से अग्नि की बरसात हुई जिसे देख सभी ब्राह्मण भयभीत हो गए और बोले कि ‘हे राजन्! आप ही हमारे राजा हो, प्रजापति हो. आप ही साक्षात् तेज हो.’ तब राजा ने कहा कि ‘जिनको मैं राजा के रूप में सम्मत हूँ, वे सब मान्य हैं, अन्य सभी वध्य यानी वध यानी मारने योग्य हैं.’
राजा के इस कोप को जानकर मौत के भय से अत्यंत भयभीत बने उन ब्राह्मणों ने कहा ‘आप हम सभी को मान्य हो.’ तब राजा ने कहा ‘इन सभी चांडालों को तुम ब्राह्मण बना दो.’ तभी भयभीत बने ब्राह्मणों ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा स्वीकार्य है, परंतु लोक में व्यवहार बलवान है.’ तब कुछ सोचकर राजा ने कहा कि ‘इस वाट घानक में रहनेवाले सभी चांडालों को “जनगम ब्राह्मण” यानी जो लोकों में आवागमन कर सके वैसे बना दो.’ इस प्रकार राजा के कहने पर आकाश से पुष्पवृष्टि हुई. राजा की आज्ञा से उन ब्राह्मणों ने उन चांडालों को ब्राह्मण बना दिया.
पिता – पुत्र का मिलन
करकंडु राजा न्याय व नीति पूर्वक राज्य करने लगा. करकंडु को राज्य की प्राप्ति जानकर वह ब्राह्मण जिसके साथ पहले लड़ाई हुई थी वह करकंडु राजा के पास आकर एक गाँव की याचना करने लगा, तब राजा करकंडु ने उसे कहा कि ‘तुम चंपानगरी जाओ, मेरे निर्देश से वहाँ का राजा तुझे एक गाँव दे देगा.’ वह ब्राह्मण चंपानगरी में गया और उसने करकंडु के निर्देश से दधिवाहन राजा के पास एक गाँव की माँग की. इस बात को सुनकर दधिवाहन राजा को गुस्सा आ गया और वह बोला कि ‘अहो. वह करकंडु राजा मूर्ख लगता है, जो मुझे इस प्रकार की आज्ञा करता है. तू दूत है, अत: अवध्य है. युद्ध में उसके प्राण ग्रहण करके ही मैं तुम्हें गाँव दूंगा.’
उस ब्राह्मण ने जाकर ये सब बातें करकंडु राजा को कह दी. यह सब सुनकर वह गुस्से में आ गया और तत्काल ही दधिवाहन राजा से युद्ध करने के लिए तैयार हो गया. अपने विराट सेना के साथ करकंडु ने चंपानगरी की ओर प्रस्थान किया और आगे बढकर चंपानगरी को घेर लिया. दधिवाहन राजा भी युद्ध के लिए तैयार हो गया. पिता-पुत्र के बीच होनेवाले भयंकर युद्ध में अनेक जीवों के संहार होगा यह जानकर पद्मावती साध्वीजी को बड़ा खेद हुआ और उस युद्ध को टालने के लिए पद्मावती साध्वीजी सर्वप्रथम अपने पुत्र करकंडु के पास गई और बोली ‘हे पुत्र! मैं तुम्हारी जन्मदात्री सांसारिक माता हूँ और वे दधिवाहन राजा तुम्हारे पिता हैं.’
मुद्रारत्न को देखने से करकंडु को साध्वीजी भगवंत के वचनों पर विश्वास आ गया और उसके बाद पद्मावती साध्वीजी राजा को प्रतिबोध करने के लिए नगर में गई और राजा से बात की. राजा ने सद्भाव एवं बहुमान पूर्वक साध्वीजी भगवंत को प्रणाम किया. राजा ने पूछा कि ‘आपने संयम कैसे लिया और अपना पुत्र कहाँ है?’ साध्वीजी ने कहा कि ‘इस नगर को जिसने घेरा है वह करकंडु ही आपका पुत्र है.’ इस तरह से पूरी बात बताई. इस सत्य का ख्याल आते ही दधिवाहन राजा पैदल ही नगर के बाहर आ गया और उसी समय करकंडु राजा भी अपने पिता के सम्मुख आगे बढ़ा और आगे चलकर पिता के चरणों में गिर पड़ा.
पिता भी अपने पुत्र को प्राप्तकर खुश हो गए. दधिवाहन राजा ने बड़े आडंबर के साथ पुत्र का नगर में प्रवेश कराया और उसके बाद सांसारिक भौतिक सुखों से विरक्त बने दधिवाहन राजा ने अपना सारा राज्य पुत्र करकंडु को सौंपकर भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली. राजा करकंडु ने न्याय एवं नीतिपूर्वक दोनों राज्यों का पालन किया.
राजा करकंडु को हुआ वैराग्य
उसके राज्य में बहुत से गोकुल थे. एक बार एक वृद्ध व अत्यंत कमजोर बने हुए सांड को देखकर राजा विचार करने लगा कि ‘अहो. कुछ समय पहले यह सांड कितना बलवान था और आज यह कितना कमजोर हो गया है.’ कुछ ही समय बाद राजा ने उस सांड को मरे हुए देखा. यह दृश्य देखकर उनका मन वैराग्य भाव से भावित हो उठा. अन्य अनेक उपायों से वस्तु का रक्षण किया जा सकता है परंतु रोग और मृत्यु से बचानेवाला इस दुनिया में कोई नहीं है. यह जीवन कुछ ही समय के लिए है, यह देह यानी शरीर भी नश्वर है यानी जिसका नाश होता है ऐसा है आदि इस प्रकार विचार करते हुए करकंडु राजा को जातिस्मरण ज्ञान यानी उनके पूर्व भव का संपूर्ण ज्ञान हो गया.
जातिस्मरण ज्ञान से उन्हें अपना पूर्वभव स्पष्ट दिखाई देने लगा और संसार से विरक्त बने करकंडु को उसी समय देवता ने आकर साधु-वेष प्रदान किया. बस, साधु वेष स्वीकारकर उन्होंने निर्मल संयम धर्म का दृढ़ता पूर्वक पालन किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने शाश्वत अजरामर मोक्ष पद प्राप्त किया.
करकंडु मुनि की इस कथा से हमें बहुत कुछ सिखने को मिलता है.
Moral Of The Story
1. जीवन कितने Ups & Down से भरा हुआ हो सकता है उसके लिए करकंडु की कहानी मिसाल है. सभी Ups & Down में जो व्यक्ति मन से Ups & Down में नहीं जाता, वही व्यक्ति सच्ची जीत को पाता है.
2. वैराग्य को आने के लिए संसार के छोटे छोटे निमित्त भी काम कर देते हैं. पूर्वभव की पुण्याई हो तो हम जिसको एकदम Normal चीज़ कहते हैं उससे भी व्यक्ति को वैराग्य आ जाता है.
3. साध्वीजी भगवंतों का Role कितना Important वह भी यह घटना बताती है. आज हमारे साध्वीजी भगवंतों को हमने उस नझरिए से नहीं देखा इसलिए वे समाधान कारक नहीं बन पा रहे हैं. बाकी साध्वीजी भगवंत जिनशासन की Strength हैं.
4. पुण्य और भाग्य, कब किसे कहाँ लेकर जाएगा वह हमें पता नहीं है और इसलिए हमें सभी के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए कि जिससे छोटा या बड़ा कोई भी व्यक्ति क्यों ना हो उसे Hurt नहीं होना चाहिए. Hurt करनेवाले को Hurt होने की तयारी हमेशा रखनी ही पड़ेगी.
कल का चाय-पानी वाला आज CM-PM भी बन सकता है.