आज हम दशार्णभद्र की कथा देखेंगे.
दशार्णपुर में प्रभु वीर का आगमन
भरतक्षेत्र के दशार्णपुर नगर में दशार्णभद्र राजा राज्य करता था. वह राजा प्रभु महावीर का परम भक्त और जैनधर्म का परम उपासक था. न्याय और नीति से वह प्रजा का अच्छी तरह से पालन करता था. वह अपने जिनालय में तीन लोक के नाथ देवाधिदेव वीतराग परमात्मा की त्रिकाल पूजा भी करता था.
शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि प्रातःकाल यानी Early Morning की जानेवाली प्रभु की पूजा रात्रि के पापों का नाश करती है, मध्यान्ह काल यानी Afternoon में की जानेवाली प्रभु पूजा इस जीवन के सभी पापों का नाश करती है और सायंकाल यानी Evening Time में की गई प्रभु पूजा सात जन्मों के पापों का नाश करती है.
एक बार पृथ्वीतल को पावन करते हुए प्रभु महावीर दशार्णगिरि पर पधारे. उस समय देवताओं ने वहां आकर स्वर्ण, रत्न और रजतमय समवसरण की रचना की. 34 अतिशयों से युक्त प्रभु ने 64 इन्द्र आदि बारह पर्षदा के आगे धर्मदेशना प्रारंभ की. इधर उद्यानपाल यानी Gardener ने आकर राजा दशार्णभद्र को महावीर प्रभु के आगमन के समाचार दिए और तब राजा की ख़ुशी का पार न रहा.
प्रभु के आगमन को सुनकर राजा अपने सिंहासन पर से खड़ा हो गया और प्रभु के विहार की दिशा में 7-8 कदम आगे बढ़कर उसने प्रभु की स्तुति करते हुए कहा कि:
‘हे प्रभु ! हे सर्वज्ञ ! आप समस्त जगत के उद्धारक हो. इस भवसागर से मुझे पार उतारो. आप अनंत गुणों के भंडार हो. आपके गुणों को याद कर, आपकी स्तुति कर और आपके मुख के दर्शन कर मेरा दिन धन्य हो रहा है.’
इस प्रकार प्रभु के गुणों की स्तुति करके राजा ने सोचा कि ‘कल प्रातःकाल में प्रभु को बड़े आडंबर के साथ में वंदन करने के लिए जाऊंगा.’
दशार्णभद्र राजा की ऋद्धि
राजा ने पूरे नगर में पटह बजवाकर यानी Announcement करवाकर सभी को प्रभु महावीर के आगमन की जानकारी दी. दशार्णभद्र राजा ने समस्त नगर को ध्वजा-पताका व तोरण आदि से सजा दिया. स्थान-स्थान पर सुगंधित धूप आदि से वातावरण को सुगंधमय बना दिया और अगले दिन राजा दशार्णभद्र अनेक अलंकारों से विभूषित हाथी पर आरूढ़ हुआ.
राजा ने सोचा कि ‘आज तक किसी ने इतनी ऋद्धि के साथ प्रभु वंदन के लिए गमन नहीं किया हो, ऐसी ऋद्धि के साथ मैं जाऊँ.’ इस प्रकार विचार कर उसने सारी सामग्री तैयार कराई.
उस ऋद्धि में 18 हजार हाथी, 40 लाख घोड़े, 21 हजार रथ, 91 करोड़ पैदल सैनिक, 16 हजार ध्वज, 500 मेघ आडंबर छत्र, सुखासन में बैठी हुई 500 रानियाँ, आभूषणों से सुसज्ज सामंत-मंत्री आदि थे. इस विशाल वैभव व आडंबर के साथ दशार्णभद्र राजा ने प्रभु को वंदन करने के लिए राजमहल से प्रयाण किया.
राजा का अभिमान टुटा
सौधर्म देवलोक में रहे इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के बल से दशार्णभद्र राजा की इस समृद्धि को प्रत्यक्ष देखा. दशार्णभद्र राजा के अभिमान को तोड़ने के लिए इन्द्र ने अपनी लब्धि के बल से अपनी ऋद्धि विकुर्वी यानी ऋद्धि Create की.
इंद्र ने अपनी ऋद्धि में 64 हजार हाथियों की रचना की. प्रत्येक हाथी के 512 मुख बनाए. प्रत्येक मुख के साथ 8-8 दंतशूल यानी दांत बनाए. प्रत्येक दंतशूल पर 8-8 बावड़ी की रचना की. प्रत्येक बावड़ी में 8-8 कमलों की यानी Lotus की रचना की.
प्रत्येक कमल की कर्णिका पर 1-1 सिंहासन की रचना कर अपनी आठ अग्र महिषियों के साथ यानी पट्टरानियों के साथ इन्द्र महाराजा बैठे. प्रत्येक कमल के लाख-लाख पत्ते थे और प्रत्येक पत्ते पर 32-32 देव-देवियाँ 32 प्रकार के नाटिकाएं करने लगे. इन्द्र के इस वैभव को देखकर दशार्णभद्र राजा दंग रह गया और उसके अभिमान का नशा उतर गया.
दशार्णभद्र राजा बने साधु
फिर भी इंद्र से आगे बढ़ने के लिए दशार्णभद्र राजा ने उसी समय प्रभु के पास भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली. लेकिन इंद्र यह पराक्रम करने में असमर्थ था क्योंकि सिर्फ मनुष्य गति के जीव ही संयम जीवन ग्रहण कर सकते हैं. देव या अन्य गति का कोई भी जीव दीक्षा नहीं ले सकता है.
इसलिए ही कहा गया है कि जिसे पाने के लिए देवलोक के देव भी तरसते हैं वह है: पंच महाव्रतधारी साधु का वेश.
दशार्णभद्र राजा के सामने इन्द्र ने अपनी हार स्वीकार की और वह वहाँ से अपने स्थान में चला गया. दशार्णभद्र मुनि भी निरातिचार चारित्र धर्म का पालन करते हुए सभी कर्मों का क्षयकर मोक्ष में चले गए.
Moral Of The Story
दशार्णभद्र मुनि की कथा से हमें क्या सीखना चाहिए? आइए जानते हैं.
1. Competition हमेशा Healthy होना चाहिए. हम पैसों में Competition लगाते हैं या भौतिक चीजों का Competition लगाते हैं, जबकि यहाँ राजा ने तो प्रभु को वंदन करने का Competition लगाया.
2. ‘हर शेर के ऊपर सवाशेर होता है.’ धर्मस्थान पर किया हुआ अहंकार 100% एक ना एक दिन टूटता ही है क्योंकि धर्मस्थान धर्म का स्थान है, अहंकार का नहीं.
3. इस दुनिया में जिस किसी भी व्यक्ति को दुनिया को जीतना है, उसे सबसे पहले खुद को जीतना होगा यानी कि संयम में आना होगा.
4. देव भी एक विरतीधर यानी साधु के सामने जीत नहीं सकता और इसलिए सबसे ज्यादा Respect उनको देता है.