महापुरुष कालकाचार्यजी की रोचक कथा !
गीतार्थ एवं ज्ञानी गुरु भगवंतों के वचन कभी मिथ्या नहीं होते हैं यानी गलत नहीं होते हैं. पूर्व में ऐसे बहुत से महान आचार्य भगवंत हुए हैं जिनके बोले हुए वचन आज भी सही साबित हो रहे हैं. आज हम ऐसे ही भरहेसर की सज्झाय में आनेवाले महापुरुष कालकाचार्यजी की एक कथा जानेंगे. बने रहिए इस Article के अंत तक.
कपटी दत्त
तुरमिणी नामक नगरी में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था. उसी नगरी में कालक नाम का एक व्यक्ति रहता था, जिसकी भद्रा नाम की बहन थी और उसके पुत्र का नाम दत्त था. पुत्र दत्त, राजा की नित्य सेवा करता था.
विश्वास में आकर राजा ने दत्त को सेनापति बना दिया और राज्य के लोभी दत्त ने एक बार अवसर देखकर राजा को Jail में डाल दिया और राज्य की सत्ता अपने हाथ में ले ली. दत्त को यज्ञ कराने का खूब शौक था. महायज्ञ और पशुमेध यज्ञ कराकर वह अनेक पशुओं को यज्ञ में स्वाहा कर देता था.
दत्त राजा के मामा कालिक ने सद्गुरु के संग को प्राप्त कर संसार का त्याग कर दिया था और वे निर्मल संयम धर्म की आराधना-साधना करते हुए क्रमश: आचार्य पद पर आरूढ़ हुए और कालकाचार्य के नाम से प्रसिद्द हुए थे. अपने उपदेश और चरण-कमलों से पृथ्वीतल को पावन करते हुए एक बार वे तुरमिणी नगरी में पधारे और नगर में धर्मोपदेश देने लगे.
एक बार आचार्य श्री के सांसारिक बहन का पुत्र दत्त राजा भी उनकी धर्मदेशना सुनने के लिए आया. यज्ञ की हिंसा में लिप्त दत्त ने आचार्य श्री से पूछा ‘यज्ञ का फल क्या है?’ पूज्यश्री ने कहा ‘क्या धर्म के बारे में पूछते हो? धर्म तो हिंसा के त्याग से होता है.’ दत्त ने कहा ‘मैं यज्ञ के बारे में पूछ रहा हूँ और आप धर्म के बारे में बता रहे हो?’
दत्त का भविष्य
आचार्य भगवंत ने सोचा ‘यह अभिनिवेश Stubbornness से पूछ रहा है, सत्य कहूंगा वह उसे पसंद नहीं आएगा लेकिन इसके भय से मुझे झूठ भी नहीं कहना है.’ अतः पूज्यश्री ने स्पष्ट कहा ‘हिंसा के कारण यज्ञ का फल नरक है.’ गुस्से में आकर राजा ने कहा ‘तुम्हारे वचन पर कैसे विश्वास करें?’
पूज्यश्री ने बताया कि ‘आज से ठीक 7 दिन बाद कुत्तों द्वारा खाए जाते हुए तुम कुंभी पाक में पकाए जाओगे.’ कुंभी पाक यानी एक बड़ा घड़ा जिसमें व्यक्ति-जानवर आदि पकाए जाते हैं. दत्त ने हैरान होकर पूछा ‘क्या तुम विश्वासपूर्वक कहते हो? इसका कोई प्रमाण?’
गुरुदेव ने कहा ‘मैं विश्वास से कह रहा हूँ, आज से सातवें दिन राजमार्ग पर घोड़े के खुर यानी Horseshoe से उड़ी विष्ठा यानी गंदगी तुम्हारे मुँह में जाएगी.’ दत्त ने वापस प्रश्न पूछा ‘तो तुम्हारी क्या गति होगी?’ गुरुदेव ने कहा ‘मैं समाधि पूर्वक मरण प्राप्तकर देवलोक में जाऊंगा.’
आचार्य भगवंत की बात को गलत साबित करने के लिए राजा ने सोचा ‘मैं सात दिन तक महल के अंदर ही रहूंगा और आठवें दिन नरमेध नामक यज्ञ करवाऊंगा.’ नरमेध यज्ञ में 32 लक्षणवाले इंसान की बली चढ़ाई जाती है और दत्त ने सोचा कि वह इंसान 32 लक्षणवाले कालकाचार्यजी खुद होंगे.
गुरु वचन हुए सच
दत्त के अत्याचार आदि के कारण सारी प्रजा उसके खिलाफ ही थी और प्रजाजन जितशत्रु राजा को वापस राजा बनाना चाहते थी. दत्त ने आर्तध्यान में पाँच दिन महल के अंदर ही बिताए लेकिन दुर्भाग्य से छठे दिन को सातवाँ दिन मान बैठा और यज्ञ की तैयारियां शुरू करवाई.
Coincidentally सातवे दिन माली फूलों की टोकरी लेकर राजमार्ग से जा रहा था. अचानक Pressure आने से उसने बीच मार्ग में ही संडास कर दिया और किसी को पता ना चले वैसे उस पर फूल बिछा दिए. थोड़ी ही देर में 8th Day है ऐसा सोचकर राजा उसी राजमार्ग से निकला और अचानक घोड़े का पाँव उन्हीं फूलों पर गिरा जहाँ गंदगी पड़ी थी.
घोड़े के खुर से वह गंदगी उछलकर दत्त के मुँह में आई और गुरु के वचन पर विश्वास आने से उसका चेहरा उतर गया. उसने सोचा ‘शायद आज सातवाँ दिन हो सकता है, मैंने भूल से आठवाँ दिन समझ लिया.’ अपने प्राणों पर संकट है यह जानकर राजा वापस अपने महल की ओर लौटा.
उसी समय मंत्रियों ने उसे पकड़ लिया और प्रजाजनों ने जितशत्रु राजा को राजगद्दी पर स्थापित कर उन्हें फिर से राजा बना दिया. राजा जितशत्रु ने दत्त को कुत्तों के साथ बाँधकर कुंभी में डालकर यानी ऊपर एक घड़ा जिसमें कुत्ते और दत्त थे और नीचे आग लगा दी.
आग के गर्मी से भूखे कुत्तों ने दत्त के टुकड़े टुकड़े कर दिए और रौद्रध्यान करते हुए वह दत्त मरकर नरक में चला गया. कालकाचार्य भी निर्मल संयम धर्म का पालनकर समाधिपूर्वक कालघर्म प्राप्त कर देवलोक में चले गए.
कालकाचार्यजी की यह हमने देखी एक कथा, कुल मिलाकर शास्त्रों में ऐसा वर्णन आता है कि 4 महान कालकाचार्यजी हुए. उनमें से एक की कथा हमने देखी अब जो दूसरी कथा है वह भी देख लेते हैं.
कालकाचार्यजी की एक कथा हम बहुत पहले देख चुके हैं जिसमें कालकाचार्यजी ने सरस्वती साध्वीजी के शील की रक्षा के लिए अवंती नगरी के राजा गर्दभिल्ल के खिलाफ युद्ध करवा दिया था. अब आइए देखेते हैं कि कालकाचार्यजी ने किस तरह अपने शिष्यों को बोध दिया था. (Click Here To Watch The Story)
कालकाचार्यजी की योजना
एक बार कलिकाल के प्रभाव से पूज्य कालकाचार्यजी के शिष्य अविनीत और प्रमादी यानी आलसी हो गए. पूज्यश्री ने उन शिष्यों को सुधारने के लिए बहुत कोशिशें की लेकिन सब कोशिशें Fail हुई. उस समय कालकाचार्यजी वृद्ध हो चुके थे.
एक दिन पूज्यश्री ने उन शिष्यों को सही शिक्षा देने के लिए योजना बनाई और शय्यातर यानी जो व्यक्ति अपना घर या अन्य स्थान साधुओं को रहने के लिए देता है, उसे कहा ‘मेरे शिष्य अविनीत और प्रमादी हो गए हैं, इसलिए मैं उनका त्याग करके अपने प्रशिष्य ‘सागराचार्य’ के पास सुवर्ण भूमि की ओर जा रहा हूँ.
मैं उन्हें कहे बिना ही जानेवाला हूँ, क्योंकि अविनीत शिष्यों के साथ रहना तो कर्मबंध का कारण है. मेरे चले जाने के बाद अगर उन्हें अपनी भूल समझ में आ जाए और वे अत्यंत ही आग्रह करें तो बताना कि मैं सुवर्णभूमि की ओर गया हूँ, वरना मत बताना.’
दूसरे दिन जब वे सभी शिष्य सोए हुए थे, तब कालकाचार्यजी ने किसी को भी कहे बिना वहाँ से विहार कर दिया और वे सुवर्णभूमि पधारे जहाँ साधुओं की बस्ती में सागराचार्यजी अपने शिष्यों को वाचना दे रहे थे.
बुद्धि का अहंकार
सागराचार्यजी, कालकाचार्यजी के प्रशिष्य थे यानी शिष्य के शिष्य थे, लेकिन अभी तक उन दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई थी. इसलिए सागराचार्यजी अपने प्रगुरुदेव को पहचान नहीं पाए और एक सामान्य साधु समझकर कालकाचार्यजी को उन्होंने रहने के लिए जगह प्रदान कर दी परंतु अभ्युत्थान यानी खड़े होना आदि किसी प्रकार का विनय नहीं किया.
धीर गंभीर कालकाचार्यजी ने भी अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया और सागराचार्यजी ने जब पूछा कि ‘कहाँ से आए हो?’ तो कह दिया कि ‘अवंति से आया हूँ’. सागराचार्यजी अपने शिष्यों को वाचना देने लगे, वाचना के बाद बुद्धिमद यानी बुद्धि के मान से सागराचार्यजी ने वृद्ध मुनि यानी कालकाचार्यजी को कहा ‘क्या कुछ समझ में आ रहा है?’
कालकाचार्यजी जी ने ‘हाँ’ कहा तब सागाराचार्यजी ने कहा ‘तो आगे जो श्रुतस्कंध यानी आगम का एक Part पढ़ाता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनना.’ कालकाचार्यजी मौन रहे. इधर सुबह होने पर कालकाचार्यजी के शिष्यों ने जब अपने गुरुदेव को नहीं देखा तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ और उन्होंने शय्यातर को पूछा ‘क्या आपने हमारे गुरुदेव को देखा है?’
शिष्यों का पश्चाताप
शय्यातर ने कहा ‘आपके आचार्य ने आपको कुछ नहीं कहा तो मुझे कैसे कहेंगे?’ अपने गुरुदेव को ढूंढने के लिए शिष्यों ने चारों ओर छानबीन की लेकिन कहीं नहीं मिलने पर जब शय्यातर को वापस पूछा तो शय्यातर ने कहा ‘आपके जैसे अविनीत शिष्यों को प्रमादी यानी आलसी होते हुए देखकर, पूज्यश्री अपने प्रशिष्य सागराचार्यजी के पास सुवर्णभूमि चले गए हैं.’
सभी शिष्यों को अपनी भूल का बहुत पश्चाताप हुआ और वापस ऐसी भूल न हो, इस भावना से उन सभी शिष्यों ने सुवर्णमूमि की ओर अपना विहार शुरू कर दिया. बीच मार्ग में जब लोग उन्हें पूछते कि ‘कौन से आचार्य भगवंत जा रहे हैं?’ तो शिष्य जवाब देते ‘कालकाचार्यजी’.
अपने विशाल साधु परिवार के साथ कालकाचार्यजी के आगमन की बात सुवर्णभूमि में पहुँची और अपने प्रगुरुदेव के आगमन के समाचार से प्रसन्न हुए सागराचार्यजी भी नगर में से बाहर आए. उन्हें तो पता ही नहीं था कि उनके प्रगुरुदेव कालकाचार्यजी Already आ चुके हैं और साथ में ही है.
विहार करके आते हुए कालकाचार्यजी के शिष्यों ने सागराचार्यजी और उनके शिष्यों को देखा और सभी का परस्पर मिलन हुआ. उसके बाद कालकाचार्यजी के शिष्यों ने सागराचार्यजी को पूछा ‘क्या अपने गुरुदेव कालकाचार्यजी यहाँ पधारे हैं?’ सागराचार्यजी ने कहा ‘नहीं. अपने गुरुदेव को तो मैंने नहीं देखा, लेकिन हाँ. अवंति से एक वृद्ध महात्मा जरूर पधारे हैं.’
शिष्य प्रतिबोध
सागराचार्यजी ने अपनी बस्ती में रहे उन वृद्ध महात्मा की ओर इशारा किया. कालकाचार्यजी के सभी शिष्य अपने गुरुदेव को तुरंत पहचान गए और उन्होंने अपने गुरुदेव के चरणों में वंदन किया और अपने घोर अपराध की क्षमा याचना की. सागराचार्यजी को जब इस बात का पता चला कि ‘ये वृद्ध महात्मा तो मेरे प्रगुरुदेव कालकाचार्यजी हैं.’
तो उन्हें अपनी भूल पर अत्यंत पश्चाताप हुआ और उन्होंने भी अपनी भूल की माफी मांगी. उसके बाद विनयपूर्वक सागराचार्यजी ने पूज्यश्री को पूछा ‘क्या मैं अनुयोग शास्त्र की व्याख्या बराबर कर रहा था?’ गुरुदेव ने कहा ‘व्याख्या बराबर थी लेकिन उसका अभिमान-गर्व बराबर नहीं था.’
सागराचार्य को प्रतिबोध देते हुए पूज्यश्री ने कहा ‘मुट्ठी भर धूल को एक स्थान से दूसरे और दूसरे स्थान से तीसरे स्थान पर रखने से वह धूल कम होती जाती है, बस, इसी प्रकार तीर्थंकरों द्वारा बताया गया ज्ञान गणधर भगवंत तथा आचार्य भगवंत आदि के माध्यम से अपने पास इस तरह से पहुँचा है, तो वह कम, और कम ही होता गया है.’ सागराचार्यजी ने पूज्यश्री की बात का स्वीकार किया.
आज से कई साल पहले संवत्सरी महापर्व को भादरवा सुदि चौथ नहीं, पांचम के दिन मनाया जाता था. इस बदलाव के पीछे 4th कालकाचार्यजी का क्या Role था वह हम अगले Episode में देखेंगे.
Moral Of The Story
वैसे कालकाचार्यजी की इस कथा से हमें कई चीजें सीखने को मिलती है. आइए देखते हैं Learnings.
1. जिस समय कोई गुरु भगवंत कुछ दूर का सोचकर कहे तब उसे Accept करने की नम्रता-विनय हमारे अन्दर होना चाहिए, वरना हमारी हालत भी अहंकारी-कदाग्रही दत्त के जैसी होगी.
2. जान भी चली जाए तो भी सत्य को नहीं छोड़नेवाले जैनाचार्य थे. तो उनके अनुयायी भी कैसे होने चाहिए? सोचने जैसा है झूठ बोल-बोलकर जैन धर्म के नाम से Marketing करनेवाले और पैसे हड़पनेवाले हर कोई से सावधान और झूठी बातें फैलानेवालों से Double सावधान.
3. हिंसा प्रधान धर्म-धर्म नहीं कहा जाता क्योंकि सबसे पहला धर्म ही अहिंसा है.
4. ज्ञान आने के बाद गर्व आना आसान है क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि हम एक Level तक पहुँच गए हैं पर वह गर्व ही हमारी सबसे बड़ी अज्ञानता है और इसलिए हम गर्व में हमारे गुरुओं को भी भूल जाते हैं.
अगर साधु भी फिसल सकते हैं तो हमारी तो क्या हालत हो सकती है? वह सोचने जैसा है.