Inspirational Story Of Mahapurush Vankchul

नियम पालन का महत्त्व बताती हुई महापुरुष वंकचूल की अद्भुत कथा

Jain Media
By Jain Media 108 Views 32 Min Read
Highlights
  • मात्र 4 सरल नियमों के पालन से 500 डाकुओं का सरदार वंकचूल 12वे देवलोक में गया था.
  • प्राणघातक ऐसी कठिन से कठिन परिस्थिति आने पर भी वंकचूल ने अपने नियमों का दृढ़ता से पालन किया.
  • गुरु भगवंत किसी को भी पात्रता अनुसार और हमारे जीवन के लिए जो उचित हो वैसे ही नियम लेने की प्रेरणा करते हैं.

महापुरुष वंकचूल की अद्भुत कथा.

आज हम भरहेसर की सज्झाय के एक ऐसे महापुरुष की कथा देखेंगे जो 500 चोरों के सरदार थे, उन्होंने गुरु भगवंत का मिलन होने पर एक दम Normal लगनेवाले 4 नियम लिए थे. भयंकर कसौटी के समय में भी उन्होंने उन नियमों का दृढ़ता से पालन किया था, जिसके परिणाम से वे 12वे देवलोक के देव बने. 

क्या थे वो 4 नियम और क्या Thrilling घटनाएं घटी थी? आइए जानते हैं ऐसे महान महापुरुष वंकचूल की अद्भुत कथा. बने रहिए इस Article के अंत तक.

वंकचूल और गुरु भगवंत का मिलन

एक बार बारिश के मौसम के दौरान प.पू. आचार्य भगवंत श्री सुस्थितसूरिजी म.सा. अपने मुनि मंडल के साथ आबू (देलवाडा) से अष्टापद की ओर जंगल के रास्ते से विहार करके जा रहे थे. सभी साधु भगवंत बहुत मुश्किलों का सामना करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन अब और आगे जाना उनके लिए Possible नहीं था क्योंकि बारिश के कारण चारों तरफ जीव-जंतु काफी मात्रा में हो गए थे. 

छोटे-छोटे जन्तुओं की तो जैसे बाढ़ आ गई थी. जीवरक्षा के वेष को यानी साधु वेश को धारण किए होने से अब उन साधु भगवंतों के लिए आगे कदम बढ़ाना Impossible था. उन्हें 400 मील की दूरी पर रहे गाँव में चातुर्मास के लिए जाना था. सभी इसी संकल्प पर निकले थे कि समय पर पहुँच जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की ग्यारस बीतने के बाद उन्हें अपने चातुर्मास की जगह तक पहुंचना मुश्किल लग रहा था. 

उस समय एक महात्मा की नजर पहाड़ की तलहटी पर गई और उन्हें वहाँ कई भवन नजर आए. महात्मा ने आचार्यश्री से कहा कि ‘गुरुदेव. अब चातुर्मास की जगह तक पहुँचना तो मुश्किल लग रहा है, तो क्यों न उन भवनों की ओर जाएं? आगे शायद वहाँ बस्ती भी हो सकती है.’ आचार्यश्री को उन महात्मा की बात सही लगी और वे अपने शिष्यों से बोले ‘अब हम सभी उन भवनों की तरफ चलते हैं.’ 

भवनों के निकट पहुँचते ही उन्हें एक तेजस्वी व्यक्ति नजर आया. उसकी काया हष्ट-पुष्ट थी, उसकी भुजाओं में बल था और मुख पर तेजस्विता थी. आचार्यश्री ने देखा कि वह युवक उन्हीं की ओर आ रहा है. पास में आकर उस युवक ने आचार्यश्री से कहा ‘महात्मन्‌. इस बारिश के मौसम में आप इस जंगल में कहाँ से? चातुर्मास के लिए कहाँ पहुँचना है? कहीं आप मार्ग तो नहीं भूल गए हैं?’ 

युवक की यह बात सुनकर आचार्यश्री को लगा कि हो न हो यह व्यक्ति जैन साधुओं के आचारों से परिचित होना चाहिए वरना यह ऐसे प्रश्न क्यों करता. आचार्यश्री ने कहा ‘भाई. हमारा लक्ष्य तो अमुक गाँव तक पहुँचने का था लेकिन बीच में हम रास्ता भूल गए, बारिश भी हो गई, बारिश के कारण जो पगडंडियाँ थीं, वो भी साफ हो गई, अत: अब उस गाँव तक हमारा पहुँचना मुश्किल है. क्‍या यहीं आसपास में चातुर्मास में रहने के लिए कोई योग्य जगह मिल सकेगी? जहाँ रहकर हम चातुर्मास का समय तप-जप की आराधना कर निकाल सकें?’

वंकचूल की शर्त

आचार्यश्री की मधुर वाणी ने उस युवक के पत्थर जैसे दिल को भी पिघला दिया. युवक ने कहा ‘महात्मन्‌! ये जो आपके सामने भवन दिखाई दे रहे हैं, वह चोरों की पल्‍ली है, चोरी करना और लूटना इन सबका धंधा है और मैं भी उन्हीं में से एक हूँ. महात्मन्‌! आप रहने के लिए बस्ती की मांग कर रहे हैं, मैं देने के लिए तैयार हूँ लेकिन एक शर्त है.’ आचार्यश्री ने पूछा ‘भाई! क्या शर्त है तुम्हारी?’ 

युवक ने कहा ‘महात्मन्‌! हम तो रहे लुटेरे और आप रहे महात्मा! हमारी और आपकी दिशा अलग अलग है. हमारा काम लूटने का और आपका काम धर्मोपदेश देने का है. आप हमारे साथ यदि रहें तो आपको नुकसान और हम आपके साथ रहें तो हमें रोटी की चिंता. फिर भी आप बस्ती की मांग रहे हैं, तो मैं बस्ती देने के लिए तैयार हूँ, परंतु शर्त यह है कि आप यहाँ रहते हुए, मेरी सीमा में मुझे या मेरे साथी को धर्म का उपदेश नहीं देंगे. महात्मन्‌! मैं जानता हूँ कि आपका मार्ग सिद्धांतों का है लेकिन लूट और चोरी हमारी कमाई का साधन है और इसे छोड़ना हमारे लिए मुश्किल है.’ 

आचार्यश्री ने उस युवक की शर्त Accept करली. उन्होंने सोचा कि ‘धर्म तो जिज्ञासु यानी धर्म में Interested व्यक्ति को देने की चीज़ है, जबरजस्ती किसी पर थोपने की नहीं है, इसलिए अगर धर्मश्रवण की इनकी इच्छा ना हो, तो इन्हें नहीं सुनाना चाहिए. हमें तप-जप और ध्यान में अपना समय बिताना चाहिए.’ पल्‍लीपति यानी चोरों के Head ने साधु भगवंतों के रहने के लिए एक विशाल भवन दे दिया और सभी साधुओं ने चोरों की बस्ती में Entry की. 

सभी साधु त्याग-तप और स्वाध्याय में जुट गए. स्वाध्याय यानी शास्त्रों की पढ़ाई साधु जीवन का प्राण है, कहते हैं कि इसके बिना साधु जीवन प्राणरहित कलेवर यानी Dead Body के जैसा है. स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधुओं को समय का पता ही नहीं चल रहा था, दिन पर दिन बीतते जा रहे थे. सभी साधु आत्म कल्याण के मार्ग में और चोर चोरी और लूट के मार्ग में उत्साही और जागरूक थे.

चातुर्मास का समय पूर्ण हुआ और कार्तिक पूर्णिमा का दिन आ गया. आचार्यश्री चोरों की बस्ती से अन्य जगह विहार करने की तैयारी करने लगे. साधुओं के मौन में भी उपदेश की धारा बह रही थी. साधु की साधुता तो चंदन से भी अधिक शीतल है, उनकी निश्रा में रही आत्मा शांत न हो, यह कैसे Possible है? 

साधुओं की विदाई का समय निकट आ रहा था. चोरों के पल्लिपति यानी Head सोचने लगा कि ‘अहो! ये साधु चार महीने तक मेरे Area में रहे. कितने शांत और गंभीर हैं. इन्होंने मेरी शर्त का अच्छे से पालन किया है.’ सभी साधु विहार यात्रा के लिए तैयार हो चुके थे. शुभ मुहूर्त में विहार प्रारंभ हुआ और पल्लिपति आचार्यश्री को छोड़ने के लिए साथ चला. 

उसकी Personality और उसके अंदर रही Qualities के दर्शन करते हुए आचार्यश्री ने पल्लिपति से कहा ‘भाई! तुम असल में कौन हो? भले ही अभी तुम चोरी और लूट का धंधा कर रहे हो लेकिन तुम्हें देखने से ऐसा लगता है कि तुम किसी अच्छे घर से हो.’ आचार्यश्री की मधुर वाणी से पल्‍लीपति का कठोर दिल भी पिघल गया. उसने सोचा ‘इन साधुओं से छिपाने जैसी क्या चीज है? इनके आगे अपने जीवन की किताब खोल देने में कोई नुकसान नहीं है.’ 

कैसे बना पुष्पचूल – वंकचूल?

उसने अपना Introduction देते हुए कहा ‘महात्मन्! मेरा जन्म विराट देश के महाराजा विमलयशा के यहाँ हुआ था. मेरी माता का नाम सुमंगला है और मेरा नाम पुष्पचूल और मेरी बहन का नाम पुष्पचूला है. अपने माता-पिता का इकलौता बेटा होने से मेरे लाड़-प्यार में कोई कमी नहीं रही, मुझे हर प्रकार की आज़ादी मिली थी. सभी लोग मेरी Respect करते थे लेकिन जिस प्रकार एक श्रीमंत दूध और घी को पचा नहीं सकता है, उसी तरह मैं भी अपनी Freedom को पचा नहीं सका और वह Freedom, स्वच्छंदता यानी कि खुद की इच्छा के हिसाब से ही सब कुछ करना, उसमें बदल गई. 

मैं मनचाहे ढंग से लोगों के साथ व्यवहार करने लगा. मुझे किसी के सुख-दुःख की चिंता नहीं थी लेकिन यदि कोई मेरे सुख के बीच में आता तो मैं उसे मौत के घाट भी उतार देता था. मैं शराब और शिकार के व्यसनों का Addict बन गया, मुझे न आत्महित की चिंता थी और न ही प्रजाहित की. प्रजाजनों के साथ मेरा खराब व्यवहार-अत्याचार बढ़ता गया और अनेक बार प्रजाजनों ने महाराजा से शिकायत की. 

कई बार तो महाराजा उन शिकायतों को टाल देते थे लेकिन जब बारबार Complaints आने लगीं, तो महाराजा मुझे प्यार से समझाने लगे लेकिन मेरे पत्थर दिल पर उनके समझाने का कोई असर नहीं हुआ. एक बार तो मेरी घुड़सवारी से एक निर्दोष बालक मर गया. प्रजा मेरे इस आतंक से बहुत ज्यादा परेशान हो गई. प्रजाजनों ने महाराजा से शिकायत की और आखिर थककर पिता ने कह दिया ‘चल, निकल जा मेरे राज्य से, मैं तेरा मुँह देखना नहीं चाहता हूँ.’ 

पिता की ओर से इस आदेश को पाते ही मैं राजभवन से निकल पड़ा, भाई के स्नेह से मेरी बहन पुष्पचूला भी मेरे साथ निकल पड़ी और हम भाई-बहन के बीच स्नेह का गाढ़ संबंध था. वह संबंध महल की तरह ही जंगल में भी बना रहा. हम दोनों राजमहल से निकलकर आगे बढ़े और अंत में इस पल्‍ली के पास आ गए. यहाँ के स्वामी ने मुझे Shelter दिया और चोर लुटेरों के साथ रहने से मैं भी डाकू बन गया. चोरी करना, लूटना और मार डालना यह हमारा नित्य का Business बन गया.’ 

अपने Past की यादों को ताजा करते हुए पल्‍लीपति का दिल भर आया. उसने कहा ‘महात्मन्! मैं पल्‍लीपति के साथ रहा, उसके साथ कुल 500 डाकू हैं. कुछ महिनों पूर्व पल्‍लीपति की Death हो गई और इन डाकुओं ने मिलकर मुझे अपना सरदार बना दिया. महात्मन्! आज मैं इन चोरों का सरदार हूँ. चारों ओर मेरे नाम की धाक है. मेरा नाम तो पुष्पचूल था, परंतु मेरे आतंक के कारण प्रजाजनों ने मेरा नाम “वंकचूल” मतलब वंक यानी वक्र यानी टेढ़ा और चूल यानी Top, सबसे ऊपर का यानी कि टेढ़ों में सबसे Top, ऊपर का, Head यानी टेढों का बाप वंकचूल रख दिया. 

आज जब मुझे अपने माता-पिता की याद आती है, तो मेरा दिल दुःख से भर जाता है. उस समय मैंने उनकी एक न सुनी, उनकी हर प्रेरणा मुझे करेले जैसी कडवी लगती थी लेकिन आज मुझे उनकी याद आती है तो मुझे बहुत दुःख होता है. वे हमारे जाने से बहुत दुखी हो गए अंत में उनका सदा के लिए वियोग हो गया. यह मेरी जीवन की कहानी है.’

वंकचूल के 4 नियम

आचार्यश्री ने प्यार भरी वाणी से कहा ‘पुष्पचूल! जीवन तो बहती हुई नदी है, कभी वह सरलता से बहती है, तो कमी उसे उतार-चढ़ाव से कठिनाइयों का सामना करते हुए प्रदेशों से भी गुजरना पड़ता है. मैं जानता हूँ कि तेरा जीवन एक कठिन मार्ग से गुजर रहा है लेकिन फिर भी तू नियम की मर्यादा के द्वारा अपने जीवन को उत्थान के मार्ग में आगे बढ़ा सकता है. पुष्पचूल! आज मेरा दिल कह रहा कि मैं तुझे तेरे कल्याण के लिए कुछ भेंट दूँ यानी Gift दूँ.’

पल्लिपति ने कहा ‘महात्मन्! हिंसा-लूट-झूठ और चोरी से भरे हुए जीवन में मैं क्या नियम ग्रहण कर सकूंगा? और नियम ले भी लिया, तो वह मेरी जीवन में बाधा बन जाएगा.’ आचार्यश्री ने कहा ‘पुष्पचूल. मैं तुझे सिर्फ ऐसे 4 नियम देना चाहता हूँ, जो न तेरे जीवन में बाधा बनेंगे और न ही तेरे धंधे में फिर भी वे तेरे जीवन के अनमोल तोहफा बन जाएंगे.’ ये सुनकर पल्लिपति ने कहा ‘यदि ऐसे ही नियम हैं, तो मैं उन्हें अवश्य स्वीकार करूंगा. कृपया वे नियम मुझे बताइए.’

आचार्यश्री ने 4 नियम बताते हुए कहा 

Niyam No. 1

‘मेरी तो इच्छा है कि तू किसी की भी हिंसा न करे लेकिन यह तेरे लिए Possible ना हो, तो किसी की हिंसा करने से पहले एक बार सात कदम पीछे हट जाना, बोल. मंजुर है ना?’ पल्लिपति ने कहा ‘हाँ, महाराज. इसमें तो मुझे कोई तकलीफ नहीं है, मुझे स्वीकार है.’ 

Niyam No. 2

मेरी इच्छा है कि तू सात्विक भोजन ग्रहण करे लेकिन यह Possible न हो तो किसी भी प्रकार के अनजान फल का त्याग कर दे. 

Niyam No. 3

मेरी इच्छा है कि तू पवित्र जीवन जिए लेकिन ये Possible न हो तो कम से कम राजा की रानी के साथ किसी भी प्रकार के गलत काम का त्याग करना. 

Niyam No. 4

पुष्पचूल! मेरी इच्छा है कि तुम हमेशा के लिए मांसाहार यानी Non Veg का त्याग करो लेकिन Possible ना हो तो कम से कम कौए के मांस का त्याग कर दो.

चारों नियम सुनकर पल्लिपति ने कहा ‘गुरुदेव! मुझे यह चारों नियम स्वीकार है.’ गुरुदेव ने वंकचूल यानी पल्लिपति को ये चार नियम दिए और उन्होंने वहाँ से अपनी विहार यात्रा आगे बढ़ाई. जब तक आचार्य की पीठ दिखाई दी तब तक वंकचूल उन्हें देखता ही रहा और सोचने लगा कि कितना निर्मल और पवित्र जीवन है और साथ में बेहिसाब करुणा. धन्य है इन महात्माओं के जीवन को!

Ghatna No. 1

एक बार वंकचूल अपने Friends के साथ किसी प्रदेश में चोरी-लूट के लिए गया हुआ था. बहुत सारी धन- संपत्ति को लूटकर वह अपने भवन की ओर लौट रहा था. उसके दिल में संपत्ति लूटने का आनन्द उछल रहा था. वह अपने घर के दरवाजे के पास आया. दरवाजा बन्द था और कमरे में चारों ओर दीपक की रौशनी थी. वंकचूल ने एक Hole में से अंदर देखा और वह आग बबूला हो गया. 

उसने सोचा ‘यह कौन दुष्ट मेरी पत्नी के साथ पलंग पर सोया हुआ है? क्या मेरी पत्नी किसी और से प्यार करती है? धिक्कार हो उसे.’ वंकचूल ने दरवाजा खोला और पलंग पर सोए दोनों व्यक्तियों को मारने के लिए तलवार निकाली लेकिन अचानक उसे आचार्यश्री द्वारा दिया गया पहला नियम याद आया और उसने सात कदम पीछे लिए. वार करने के लिए उसने तलवार ऊपर की ओर उठाई हुई और वह तलवार दीवार पर टंगे हुए बर्तन से टकराई. 

बर्तन की आवाज से पलंग पर जो पुरुष था वो जागा. दरअसल वो पुरुष पुरुष नहीं बल्कि पुरुष के वेश में वंकचूल की बहन पुष्पचूला थी. वो जाग गई और बोली ‘अरे! यह क्या! क्या कर रहे हो भैया?’ स्त्री की आवाज सुनकर वंकचूल Shock हो गया और उसने पूछा ‘अरे! कौन? पुष्पचूला? तू इस पुरुष वेश में कैसे? आखिर क्या मामला है? अभी तो मैं तुम दोनों के सर को धड़ से अलग कर देता. उपकार है उस महात्मा का जिनके नियम पालन से तुम दोनों की जान बच गई.’ 

वंकचूल की पत्नी वसंतसेना भी उठकर बैठ गई थी. पुष्पचूला ने कहा ‘भैया  कल जब आप लूट के लिए गए थे तब हमें पता चला कि नाट्य मंडली यानी Drama Group आनेवाले हैं. उस नाट्य मंडली का आज एक भव्य कार्यक्रम था, उसको देखने के लोभ को मैं रोक न सकी लेकिन रात के समय हम दोनों के घर से निकलने में एक Problem थी. हम दोनों Ladies हैं, हमें रास्ते में किसी प्रकार की तकलीफ ना हो इसलिए मैंने आपका वेश धारण कर लिया. 

रात को देर तक नाट्य मंडली का कार्यक्रम चला. घर लौटने के बाद हम बहुत थक गए थे. आँखों में नींद थी और पैरों में थकावट इसलिए घर आने के बाद मैं अपने वस्त्र उतारना भूल गई और भाभी के पास ही सो गई.’ पुरुष वेष धारण के रहस्य को जानकर वंकचूल की Misunderstanding दूर हो गई. उसने सोचा ‘महात्मा के उस नियम ने आज मुझे बचा लिया वरना आज मेरे हाथों से एक भयंकर पाप हो जाता.’ 

वंकचूल के दिल में आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा जाग गई. 

Ghatna No. 2

इस घटना को एक महीना बीत चुका था और वंकचूल अपने साथियों के साथ किसी दूर क्षेत्र में रहे नगर को लूटने के लिए निकल पड़ा. वंकचूल ने अपने 25 Friends के साथ उस नगर में डाका डाला. धन-सम्पत्ति की पोटलियाँ बाँधकर वंकचूल अपने मित्रों के साथ अपनी पल्‍ली की ओर चल पड़ा लेकिन बीच में ही वह मार्ग भूल गया और एक जंगल में जा पहुँचा. वंकचूल और उसके दोस्तों को बहुत जोरों की भूख लगी हुई थी. 

वंकचूल ने अपने दोस्तों को आदेश दिया ‘आसपास के पेड़ों पर से फल ले आओ.’ वंकचूल के दोस्त थोड़े ही समय में ढेर सारे फल लेकर आ गए. वंकचूल ने कहा ‘भाई. ये तो बड़े मीठे फल लगते हैं. कौनसे फल हैं ये?’ दोस्तों ने कहा ‘नाम तो हमें नहीं पता है.’ यह सुनकर वंकचूल को अपनी अनजान फल नहीं खाने का नियम याद आया और उसने वो फल नहीं खाए लेकिन उसके दोस्तों ने वो फल खा लिए और वंकचूल और उसके दोस्त एक पेड़ के नीचे सो गए. 

सुबह होने पर वंकचूल जागा और उसने अपने साथियों को पल्‍ली की ओर चलने के लिए आवाज दी लेकिन उनमें से कोई नहीं उठा. सभी की अकाल मृत्यु हो गई थी. वंकचूल ने जब अपने सभी 25 दोस्तों की Dead Body को देखा तो उसका दिल ख़ुशी और दुःख के Mix भावों से भर आया. दुःख इस बात का था कि उसके सब साथी मर चुके थे और ख़ुशी इस बात की थी कि आचार्यश्री के दिए हुए नियम ने उसकी जान बचा ली थी. 

वंकचूल ने सोचा ‘गुरुदेव ने मुझे यह नियम देकर मेरे जीवन की रक्षा की है! धन्य हो उन गुरुदेव को!’ 

Ghatna No. 3

धीरे धीरे समय बीतने लगा. एक दिन वंकचूल के दिल में महारानी के कीमती नवलखा हार को चोरी करने की इच्छा हुई. बड़ी हिम्मत करके वह अपनी पल्‍ली से निकल पड़ा और राजमहल के एक खंड यानी कमरे में पहुँच गया. उस कमरे में महारानी आराम कर रही थी, चारो ओर शांति थी. वंकचूल के पैरों की आवाज से महारानी जाग गई और उसने चांदनी रात के प्रकाश में वंकचूल के तेजस्वी रूप को देखा. महारानी के मन में वंकचूल के लिए गलत भावना पैदा हो गई.

महारानी ने वंकचूल से पूछा ‘तू कौन है?’ चोर के वेष को देखकर महारानी समझ गई कि यह चोरी करने आया है लेकिन वंकचूल के अद्भुत रूप पर लट्टू बनी महारानी वंकचूल का साथ चाहती है, उसने वंकचूल से काम भोग की प्रार्थना की. उस समय वंकचूल को अपना तीसरा नियम याद आ गया. 

अपने आप पर Control करते हुए कहा ‘महारानी! आप तो राजमाता हो! आपके साथ यह दुर्व्यवहार उचित नहीं है.’ यह सुनकर महारानी ने गुस्से में आकर कहा ‘अरे युवक! तुझे पता है, तू कहाँ खड़ा है? यदि मेरी बात को नहीं मानेगा, तो तेरे लिए सही नहीं होगा!’ नारी का दिल कोमल होता है लेकिन जब वह भड़क उठती है तो प्रचंड आग से भी अधिक भयंकर हो जाती है. 

वंकचूल को अपना नियम याद था और इसलिए उसे महारानी की धमकी का जरा भी फर्क नहीं पड़ा. तभी महारानी ने अपने ही हाथों और नाखूनों से अपने शरीर पर घाव करते हुए जोर से आवाज दी ‘बचाओ. बचाओ. यह दुष्ट मेरा शील लूटने आया है.’ महारानी की आवाज सुनकर आसपास के सैनिक दौड़ आए और वंकचूल को कैद कर लिया. महारानी मन ही मन खुश थी कि ‘मेरी इच्छा को स्वीकार ना करने से अब उसकी कैसी दुर्दशा होगी?’

लेकिन हर चीज़ वैसी नहीं होती है जैसा हम सोचते हैं. कभी कभी कर्मराजा के कुछ और ही Plans होते हैं. इस पूरी घटना के दौरान महाराजा पास के खंड में सोए हुए थे. उन्होंने वंकचूल और महारानी की सभी बातें सुन ली थी. सुबह होने पर सैनिक वंकचूल को महाराजा के सामने ले गए. महाराजा ने वंकचूल से रात को घटी घटना के Related कई सवाल पूछे लेकिन वंकचूल चुप रहा. 

वंकचूल सोच रहा था कि ‘यदि मैंने महारानी का नाम ले लिया तो महाराजा महारानी से रूठ जाएंगे और शायद महारानी को राज्य से निकाल भी दें.’ महाराजा ने वंकचूल के इस व्यवहार से उसकी Qualities को पहचान लिया और फौरन उसे सेनापति की Post पर Appoint कर लिया. वंकचूल के पवित्र जीवन की उन्होंने Respect की और सोचा कि जो व्यक्ति अपने आप पर Control रख सकता है, वही व्यक्ति प्रजा का सच में भला कर सकता है.

वंकचूल के दिल में आचार्यश्री के प्रति अहोभाव की लहर छा गई और वह सोचने लगा ‘धन्य हो गुरुदेव को, जिन्होंने इन नियमों के बहाने मेरी आत्मा के कल्याण की हित-चिंता की.’ अब नगर का भक्षक ही रक्षक बन गया था. जिस क्रूरता से वंकचूल पहले चोरी और लूट करता था, आज उसका दिल प्रजा की रक्षा की जिम्मेदारियों में जुड़ गया. वह स्वयं चोर था इसलिए चोरों को पकड़ना उसके लिए बहुत Easy था, क्योंकि उसे पता था कि चोर लोग कहाँ रहते हैं और किस तरह से चोरी करते हैं. 

धीरे-धीरे नगर में चोर डाकुओं का आतंक ख़त्म होने लगा और वंकचूल के Supervision में प्रजा Tension Free होकर रहने लगी.

Ghatna No. 4

एक बार वंकचूल के नगर की Border पर आतंकवादियों ने हमला किया. महाराजा ने वंकचूल को वहां जाकर युद्ध करने की आज्ञा दी. वंकचूल कुछ सैनिकों के साथ Border पर पहुंचा और आतंकवादियों पर हमला किया. कुछ समय तक युद्ध चला और अंत में वंकचूल की जीत हुई लेकिन उसके शरीर पर काफी घाव हो गए थे. घावों के कारण वंकचूल की तबियत बिगड़ने लगी. कई Treatments के बाद भी वह पूरी तरह ठीक नहीं हुआ. 

वंकचूल के इलाज के लिए आयुर्वेद के एक Well Known वैद्य को बुलाया गया. वैद्य यानी उस समय के Doctors. वैद्य ने वंकचूल के घावों का Checkup किया और उपाय बताते हुए कहा कि ‘कौए के मांस के साथ यह औषधि दी जाए, तो वंकचूल के शरीर के घाव भर सकते हैं और वे पूरी तरह से ठीक हो सकते हैं.’ जब यह बात वंकचूल ने सुनी तो उसने वैद्य से कहा कि ‘वैद्यजी! यह शरीर रहे या न रहे, उसकी मुझे परवाह नहीं है लेकिन मेरा नियम नहीं टूटना चाहिए. मैं कौए का मांस नहीं खा सकता.’ 

वैद्य ने उसे समझाते हुए कहा कि ‘सैनापतिजी! जीवन-मरण का सवाल है, ऐसी परिस्थिति में नियम में कुछ छुट भी चलती है.’ वंकचूल ने तुरंत कहा ‘वैद्यजी! जिस चीज़ को लेने से मेरे वीरत्व का अपमान होता हो, उसे मैं कभी ग्रहण नहीं करूँगा. नियम तो मेरा प्राण है.’ वैद्यजी आगे कुछ भी बोल ही नहीं पाए. महाराजा, मंत्री और नगर के बहुत लोग सेनापति की मृत्यु शय्या के इर्द गिर्द खड़े थे. 

सेनापति वंकचूल के शरीर के घावों में बहुत दर्द था लेकिन उसके Face पर प्रसन्‍नता थी. उसे इस बात की ख़ुशी थी कि ‘मैंने जीवन में आचार्यश्री द्वारा दिए गए नियमों का पूर्ण रूप से पालन किया है, यही मेरे लिए परलोक का तोहफा है, जिसे लेकर मुझे यहाँ से विदा होना है.’ वंकचूल को समझाने के लिए जिनदास श्रावक आया. जिनदास ने पूछा ‘तुम ठीक हो?’ 

वंकचूल ने कहा ‘मित्र! मेरा शरीर ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर तो रोग के अधीन है. यह जीवन कर्म के अधीन है और आराधना करना अपने अधीन है. तुम्हे जो ठीक लगे, वह करो.’ वंकचूल के Intention को जानने के लिए जिनदास ने कहा ‘अपने शरीर के लिए कौए का मांस का सेवन करो.’ यह बात सुनकर वंकचूल नाराज होकर बोला ‘मेरा जीवन तो अंत होनेवाला है. जिस तरह हवा के कारण बादल नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह रोग आने पर शरीर नष्ट हो जाता है और ऐसे Unstable जीवन के लिए कौन अपना नियम तोड़ेगा?’ 

यह सुनकर जिनदास श्रावक खुश हो गया और बोला ‘मित्र! आत्मा अकेली ही आई है और अकेली ही जानेवाली है. शरीर, परिवार, जवानी, वैभव आदि कभी ना कभी जाने ही वाले हैं और इसलिए उनके प्रति दिल में Attachment मत रखो.’ 

अरिहंत आदि की शरणागति का स्वीकारकर वंकचूल मरकर 12वे देवलोक में देव बना.

इसी वंकचूल ने एक बार पूज्य आचार्य श्री सुस्थितसूरिजी म.सा. के शिष्य पूज्य धर्मऋषिजी म.सा. और पूज्य धर्मदत्तजी म.सा. को चातुर्मास करवाया था और उनके उपदेश से चंबल घाटी के पास बड़ा जैन मंदिर बनवाकर श्री महावीर प्रभु की प्रतिष्ठा भी की थी और वह स्थान आगे चलकर तीर्थ बना था.

Moral Of The Story

महापुरुष वंकचूल की कथा से हमें बहुत सी अद्भुत चीजें समझने को मिलती हैं. 

1. विहार क्या कुछ कर सकता है, उसकी यह बहुत अद्भुत कथा है विहार में गुरु भगवंतों के साथ चलने पर कई लोगों का जीवन परिवर्तित हुआ है विहार में साथ चलने पर और वंकचूल तो पूरे विहार में नहीं कुछ समय के लिए ही आचार्य श्री को छोड़ने के लिए साथ चला था उसमें ही उसका जीवन परिवर्तित हो गया.

2. व्यक्ति का वर्त्तमान भले ही कैसा भी हो परंतु उसके भविष्य को देखकर उसके लिए मन में घृणा, निंदा भाव ना लाने की दृष्टी बड़े महापुरुषों में होती है. वर्त्तमान कैसा भी हो पर जिसके भीतर योग्यता होती है, वह भविष्य में कुछ न कुछ अच्छा कार्य करके ही रहता है. वह मरीचि से महावीर बन सकता है. 

3. आजकल कई लोग नियमों से दूर भागते हैं लेकिन नियम का Power कितना है, वह हमें वंकचूल की अद्भुत कथा से पता चलता है. नियम कितना बड़ा है वह मायने नहीं रखता परंतु वह कितनी अच्छी तरह से पाला जाए वह मायने रखता है. 

जो व्यक्ति नियम में दृढ़ होता है वह अपने जीवन में कभी हारता नहीं है. वह व्यक्ति ‘प्राण जाए पर वचन ना जाए’ के Brand वाला होता है. 

4. आजकल नई नई अनजान चीजें खाने की आदतें बहुत ज्यादा हो गई है और इसलिए ‘Label Padhega India’ Launch करने के Motive में एक उदेश्य यह भी था कि लोग क्या खा रहे हैं? लोग क्या वापर रहे हैं? वह उन्हें पता चले. 

हमें सबसे पहले हर एक चीज़ की जांच करनी चाहिए और फिर ही उसका उपयोग करना चाहिए वरना बिना जाँची हुई चीज़ मौत भी ला सकती है. कहीं कुछ New Explore करने के चक्कर में हमें Hospitals Explore करने ना पड़ जाए. 

5. जब कभी अपवाद यानी Exceptions की Situation आए, तब गीतार्थ साधु भगवंत अपने आचारों में बदलाव भी कर सकते हैं. उस समय उनकी निंदा करना, उनके बारे में गलत-गंदे Post करना और कुछ नहीं पर जिनशासन की दुश्मनी है. ऐसे व्यक्तियों को जन्मों-जन्म तक जिनशासन मिलता नहीं है. 

निंदा करने के पहले एक बार उन साधु भगवंत से मिलकर Clarity जरुर ले लेनी चाहिए. वरना ख़राब मन से खराब प्रवृत्ति और खराब परलोक ही मिलते हैं.

6. सबसे महत्त्व की बात यह है कि मौन का प्रभाव बोलने से भी ज्यादा होता है.
“Speech is Silver, Silence is Golden” ऐसा कहा जाता है. 

जो व्याख्यान आदि नहीं देनेवाले साधु भगवंत होते हैं, वे अपने उच्चार से भले ही शासन प्रभावना ना कर रहे हो परंतु अपने आचार से तो 100% शासन प्रभावना करते ही है. ऐसे सैंकड़ों उदाहरण आज भी देखने को मिलते ही है.

Share This Article
Leave a comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *