Amrutvel Jain Sajjhay Lyrics With Meaning

अमृतवेल की सज्झाय (संवेदना / अर्थ सहित)

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पत्थर जैसी हमारी आत्मा को मक्खन जैसा बनाने का काम यह सज्झाय करती है. 1600 वर्ष पहले का श्री पंचसूत्र नाम का ग्रंथ है, उसमें तीन चीज़ बताई गई है: चारशरण+पापों की निंदा+अच्छे कार्यों की अनुमोदना. फिर कहा है कि जब मन Disturbed हो, तब यह तीन चीज़ बार बार करना और Disturbed न हो तो भी दिन में तीन बार तो करना ही चाहिए. यह सज्झाय हमारे मन को शान्ति ना दे, वो Possible ही नहीं है. तो अगर हम Mental Stress से निकलना चाहते हैं तो यह सज्झाय ज़रूर सुन सकते हैं.

आइए जानते हैं अमृतवेल की सज्झाय को अर्थ सहित.

चेतन! ज्ञान अजुवालीए, टालीए मोह संताप रे,
चित्त डमडोळतुं वालीए, पालीए सहज गुण आप रे… (1)

हे चेतन! (आत्मा) तुम अपने ज्ञान प्रकाश का विकास करो, जिससे तुम्हारा मोहरूपी अंधकार दूर हो जाएगा. चित्त (दिमाग) की डावा-डोल स्थिति पर नियंत्रण होगा और आत्मा के अपने सहज गुणों में रमणता प्राप्त होगी.

उपशम अमृतरस पीजीए, कीजीए साधु गुणगान रे,
अधम वयणे नवि खीजीए, दीजीए सज्जनने मान रे… (2)

हे चेतन! तू सहज गुण की रक्षा के लिए उपशम रुपी अमृतरस का पान कर. साधु-मुनि महाराजा का गुणगान कर. दुर्जनों के कटु वचन सुनकर बिलकुल भी रोष (गुस्सा) ना कर, तथा सज्जन पुरुषों का सम्मान-सत्कार कर.

क्रोध अनुबंध नवि राखीए, भाखीए वयण मुख साच रे,
समकित रत्न रूचि जोड़ीए, छोड़ीए कुमति मति काच रे… (3)

क्रोध की परंपरा चलती ना रहे, इस बात की सावधानी तू रखना. सत्य वचन बोलने का आग्रह रखना, सम्यक्त्वरुपी रत्न प्राप्त करने की इच्छा रखना और कुमति रुपी काँच के टुकड़े का त्याग करना.

शुद्ध परिणामने कारणे, चारना शरण धरे चित्त रे,
प्रथम तिहां शरण अरिहंतनुं, जेह जगदीश जगमित्त रे… (4)

जे समवसरणमां राजता, भांजता भविक संदेह रे,
धर्मना वचन वरसे सदा, पुष्करावर्त जिम मेह रे… (5)

हे आत्मन्! आत्म-परिणामों को अधिक शुद्ध बनाने के लिए अरिहंत आदि चारों का शरण चित्त में धारण कर रखना चाहिए. उनमे से भी जगत के ईश (स्वामी) और जगत के परम मित्र उन अरिहंत परमात्मा की शरण प्रथम स्वीकार करना, जो समवसरण में बैठकर पुष्करावर्त मेघ की तरह धर्म वचन रुपी जलवर्षा (बारिश) कर भव्य जीवों के सारे संशय दूर करते हैं.

शरण बिजुं भजे सिद्धनुं, जे करे कर्म चकचूर रे,
भोगवे राज शिवनगरनुं, ज्ञान आनंद भरपूर रे… (6)

आठों कर्मों के क्षय-पूर्वक, मोक्ष नगर के महान राज्य के भोक्ता तथा ज्ञान एवं आनंद से परिपूर्ण बने हुए सिद्ध भगवान की शरण स्वीकार करना.

साधुनुं शरण त्रीजुं धरे, जेह साधे शिवपंथ रे,
मूल उत्तर गुणे जे भर्या, भव तर्या भावनिर्ग्रंथ रे… (7)

जो पंच महाव्रातादि मूल गुणों के तथा समिति, गुप्ती आदि उत्तर गुणों के धारक एवं मोक्षमार्ग के आराधक हैं तथा जो संसार सागर को लगभग तैर चुके हैं, उन भाव-निर्ग्रंथ मुनि भगवंतों की शरण स्वीकार करना.

शरण चौथुं धरे धर्मनुं, जेहमां वरदया भाव रे,
जेह सुख हेतु जिनवरे कह्यो, ‘पाप’ जल तरवा नाव रे… (8)

जो दुःख के हेतु भूत पापरूपी जलप्रवाह में से बचाने के लिए नाव के समान हैं और जो परमसुख का साधन स्वरुप है, उस जिन-भाषित (जिनेश्वर भगवंत द्वारा कहा गया) परम दयामय धर्म की शरण लेना.

चारना शरण ए पडिवजे, वली भजे भावना शुद्ध रे,
दुरित सवि आपणा निंदिए, जेम होय संवर वृद्धि रे… (9)

इस तरह हम चार मंगलकारी शरण स्वीकार करके शुद्ध मैत्री और अनित्यादी भावनाएँ ह्रदय (दिल) में धारण करते हुए अपने समस्त पापों की निंदा करें, जिससे संवर भाव की वृद्धि हो.

इह भव परभव आचर्या, पाप अधिकरण मिथ्यात्व रे,
जे जिनाशातनादिक घणा, निंदिए तेह गुणघात रे… (10)

हे जीव! तूने इस भव में और पर (पहले के) भवों में पाप, हिंसा, मिथ्यात्वाचरण किए और जिनेश्वर भगवंत की आशातनाएं आदि भी की. इन सभी में हे जीव! तेरे ज्ञानादि गुणों का जो भी घात हुआ हो, उसकी तू निंदा कर.

गुरु तणां वचन जे अवगणी, गुंथिया आप-मत जाल रे,
बहु परे लोकने भोलव्या, निंदिए तेह जंजाल रे… (11)

मैंने गुरुजनों के वचन की अवगणना-उपेक्षा की हो और अपनी मति कल्पना से यदि शास्त्र रचना की हो, अथवा विविध रीती से मिथ्यापदेश देकर लोगों को उल्टी राह दिखाई हो तो, उन सारे पापों की निंदा करता हूँ.

जेह हिंसा करी आकरी, जेह बोल्या मृषावाद रे,
जेह परधन हरी हरखीया, कीधलो काम उन्माद रे… (12)

तूने जो कोई घोर हिंसा की हो, असत्य वचन बोला हो, परधन आदि का हरण (हड़पकर) करके प्रसन्न हुआ हो, अथवा कामान्ध बनकर उन्माद का सेवन किया हो या अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ की हो,

जेह धन धान्य मूर्छा धरी, सेवीया चार कषाय रे,
रागने द्वेषने वश हुआ, जेह कीयो कलह उपाय रे… (13)

धन-धान्य आदि के परिग्रह में गाढ़ (मूर्च्छा) आसक्ति रखी हो, क्रोधादि चार कषायों का सेवन किया हो, राग द्वेष के वशीभूत होकर जो भी कलह-क्लेश किया हो,

जूठ जे आल परने दिया, जे कर्या पिशुनता पाप रे,
रति अरति निंद माया-मृषा, वलीय मिथ्यात्व संताप रे… (14)

किसी पर झूठा कलंक लगाया हो, चुगली की हो, रति-अरति और पर निंदा की हो, माया पूर्वक असत्य व्यवहार किया हो और मिथ्यात्व सेवन किया हो,

पाप जे एहवा सेवियां, निंदिए तेह तिहुं काल रे,
सुकृत अनुमोदना कीजीए, जिम होय कर्म विसराल रे… (15)

तो उपर्युक्त सभी पापों की त्रिकाल निंदा करना, साथ ही स्व-पर (अपने-पराए) सुकृतों (अच्छे कार्य) की अनुमोदना करनी चाहिए जिससे पुण्यानुबंधी पुण्य पुष्ट होता है और क्लिष्ट कर्मों का क्षय होता है.

विश्व उपकार जे जिन करे, सार जिन नाम संयोग रे,
तेह गुण तास अनुमोदिए, पुण्य अनुबंध शुभयोग रे… (16)

सबसे अधिक उपकार अरिहंत परमात्मा करते हैं, पूर्वकाल में तीसरे भव में ‘सवि जीव करूं शासन रसी’ यानी सभी जीवों को (जिन) शासन के रसिक बनाऊं-ऐसी उत्तम भावना के द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना करते हैं और भव्य जीवों को अहिंसादि धर्म का उपदेश देकर, समग्र विश्व के जीवों की रक्षा करते हैं व कराते हैं. ऐसे महान उपकारी अरिहंत परमात्मा के गुणों की प्रशंसा करने से हमारे योग शुभ बनते हैं, साथ ही पुण्यानुबंधी पुण्य की परंपरा की वृद्धि होती है.

सिद्धनी सिद्धता कर्मना, क्षय थकी उपनी जेह रे,
जेह आचार आचार्यनो, चरण वन सिंचवा मेह रे… (17)

सम्पूर्ण कर्मक्षय से सिद्ध भगवंत की जो सिद्धता प्रकट हुई है उसकी, तथा चारित्र रुपी वन का सिंचन करने में मेघ के समान आचार्य भगवंत के पंचाचार-पालनगुणों की वारंवार अनुमोदना करता हूँ.

जेह उवज्झायनो गुण भलो, सूत्र सज्झाय परिणाम रे,
साधुनी जे वली साधुता, मूल उत्तर गुणधाम रे… (18)

और मैं उपाध्याय भगवंत के शास्त्राभ्यास, पठन-पाठन गुण की एवं मूल गुणों (पंच महाव्रतों) और उत्तर गुणों (समिति-गुप्तियों) के निधान मुनि महात्मा के साधुत्व की अनुमोदना करता हूँ.

जेह विरति देशश्रावक तणी, जेह समकित सदाचार रे,
समकित दृष्टी सुरनर तणो, तेह अनुमोदिए सार रे… (19)

देशविरतीधर श्रावक की विरती (त्याग) की और साथ ही सम्यग्-दृष्टी देव या मनुष्य के जिनपूजादि अथवा सुपात्रदान आदि सदाचारों की मैं भावपूर्वक अनुमोदना करता हूँ.

अन्यमां पण दयादिक गुणो, जेह जिनवचन अनुसार रे,
सर्व ते चित्त अनुमोदिए, समकित बीज निरधार रे… (20)

अन्य दर्शनों के अनुयायियों में भी जिन-वचन के अनुसार दया, करुना,वात्सल्य, प्रेम, परोपकार, सत्य, संतोष, दान, नीति, सदाचार आदि जो गुण दिखाई देते हों, उसकी भी मन ही मन प्रशंसा करनी चाहिए क्योंकि प्रशंसा, अनुमोदना निश्चय ही समकित का बीज है.

पाप नवि तीव्र भावे करे, जेहने नवि भवराग रे,
उचित स्थिति जेह सेवे सदा, तेह अनुमोदवा लाग रे… (21)

जो तीव, संक्लिष्ट भाव से पाप का आचरण नहीं करते, जिन्हें संसार से प्रेम (आसक्ति) नहीं है और जो उचित अवसरोचित स्थिति मर्यादा का पालन करते हैं, उन मार्गानुसारी तथा अपुनर्बन्धकादि जीवों के उन सब गुणों की भी मैं अनुमोदना करता हूँ.

थोडलो पण गुण परतणो, सांभली हर्ष मन आण रे,
दोष लव पण निज देखता, निर्गुण निज आतमा जाण रे… (22)

इस प्रकार अन्य गुणीजनों का छोटा सा गुण भी देखकर मन में हर्षित होना चाहिए और अपना अल्प दोष भी देखकर स्वयं को अवगुणी मानना चाहिए.

उचित व्यवहार अवलंबने, इम करी स्थिर परिणाम रे,
भाविए शुद्धनय भावना, पाप नाशय तणुं ठाम रे… (23)

इस तरह उचित व्यवहार के पालन से मन को स्थिर कर, अब जिसका वर्णन किया जा रहा है उस निर्मल, पवित्र आशय को उत्पन्न करनेवाली शुद्ध नय की भावना से आत्मा को भावित करना चाहिए.

देह मन वचन पुद्गल थकी, कर्मथी भिन्न तुज रूप रे,
अक्षय अकलंक छे जीवनुं, ज्ञान आनंद स्वरुप रे… (24)

तेरा स्वरुप शरीर, वाणी, मन, कर्म और सभी पुद्गल पदार्थों से भिन्न है. जीव का मूल स्वरुप तो अक्षय, अकलंक, ज्ञानमय और आनंदमय है.

कर्मथी कल्पना उपजे, पवनथी जिम जलधि वेल रे,
रूप प्रगटे सहज आपणुं, देखता दृष्टी स्थिर मेल रे… (25)

जैसे समुद्र में हवा के वेग से ज्वार आता है, पर हवा शांत होने पर समुद्र स्थिर हो जाता है, वैसे कर्म के उदय से जीव में संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं. किन्तु कर्म का बल घटने पर अनुपम स्थिरता (दिव्य दृष्टी) प्राप्त होती है और उससे सहज स्वरुप की अनुभूति की जा सकती है.

धारता धर्मनी धारणा, मारता मोहवड चोर रे,
ज्ञान रूचि वेल विस्तारतां, वारता कर्मनुं जोर रे… (26)

आत्मा के सहज स्वभाव-धर्म की धारणा करने से मोहरुपी भयंकर चोर भी मृतप्रायः बन जाता है, ज्ञान रुपी लता का विस्तार होता है और इस कारण कर्म की शक्ति कम हो जाती है.

राग विष दोष उतारता, झारतां द्वेष रस शेष रे,
पूर्व मुनि वचन संभारता, वारता कर्म निःशेष रे… (27)

इसी तरह राग रुपी जहर उतर जाता है. द्वेष रस सुख जाता है और पूर्वाचार्यों की अनुभव वाणी का वारंवार स्मरण करने तथा तदनुसार ध्यानादि क्रिया में प्रवृत्त होने से कर्म रज झड जाती है.

देखीए मार्ग शिवनगरनो, जेह उदासीन परिणाम रे,
तेह अणछोड़ता चालीए, पामीए जिम परधाम रे… (28)

परम औदासीन्य भाव मोक्ष का सीधा सरल राजमार्ग है. हम इस उदासीन भाव को पलभर भी छोड़े बिना यदि निरंतर धर्म साधना करते रहे, तो शीघ्र मोक्ष नगर पहुँच सकेंगे.

श्री नयविजय गुरु शिष्यनी, शीखडी अमृतवेल रे,
एह जे चतुर नर आदरे, ते लहे ‘सुजस’ रंग रेल रे… (29)

परम पूज्य श्री नयविजयजी महाराज साहेब के शिष्य परम पूज्य श्री यशोविजयजी महाराज साहेब की यह शिखामण-सलाह रूप अमृत की वेल का पान जो चतुर मनुष्य करेगा, वह चारों तरफ यश को प्राप्त करेगा.

रचयिता : महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा
गायिका : फोरम प्रशम शाह

अमृतवेल की संपूर्ण सज्झाय को संवेदना के साथ इस Video 👇 के माध्यम से सुन सकते हैं.

Amrutvel Ki Sajjhay (With Samvedna / Meaning)
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