हमें Jain Media पर कई Queries आती रहती है कि ‘हम जैन नहीं हैं, तो क्या हम ‘जैन दीक्षा’ ले सकते हैं?’ ‘क्या हम ‘जैन धर्म’ अपना सकते हैं?’ आदि.
तो आज हम एक ऐसे व्यक्ति की Thrilling Life Story जानेंगे जो जन्म से Non-Jain है, लेकिन कर्म से Jain बने और जैन दीक्षा लेकर पूरी दुनिया को एक बहुत बड़ा संदेश दिया. इनकी कहानी जैनों को भी हिलाकर रख देगी.
तो प्रस्तुत है,
शांतनु भाई की Thrilling Life Story.
Tourist से बने भक्त
West Bengal के हुगली District के हरीश नगर में माता बनलता और पिता गौर माजी के सुपुत्र शांतनु भाई का जन्म एक बंगाली परिवार में हुआ था. बचपन में शांतनु भाई को जैन धर्म नाम का कोई धर्म भी है, यह भी पता नहीं था. बड़े होने के बाद वे Bengali Jwellery के Artisan यानी कि कारीगर के रूप में काम करने लगे.
एक बार शांतनु भाई राजगृही आदि जगहों पर घुमने गए. कल्याणक भूमि राजगृही, जहाँ पर 20वे तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान-ऐसे चार कल्याणक हुए हैं और श्री महावीर स्वामी भगवान के सबसे ज्यादा चातुर्मास हुए हैं, वहां पर परमात्मा के मुख्य मंदिर में शांतनु भाई ‘As a Tourist’ बनकर गए थे लेकिन परमात्मा के प्रभाव से वे ‘भक्त’ बनकर मंदिर के बाहर आए.
हुआ यूँ कि परमात्मा की कल्याणक भूमि, विचरण भूमि के Vibrations ने शांतनु भाई के मन में एक अलग तरह का भाव जगाया. वैसे तो शांतनु भाई अन्य धर्म के कई धार्मिक स्थलों में जाते थे लेकिन इस मंदिर में उन्हें कुछ अलग-कुछ Special Feel हुआ.
श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के दर्शन होते ही शांतनु भाई के मन में परमात्मा की पूजा करने का भाव आया और उन्होंने पुजारी को पूजा करने की विधि के बारे में पूछा और अगले ही दिन, जी हाँ, Next Day, बिना Delay किए उन्होंने परमात्मा की पूजा भी की.
जी हाँ! एक अजैन भाई जिन्हें Jainism का J भी नहीं आता था, उन्हें परमात्मा के दर्शन मात्र से कैसा अद्भुत भाव, शुभ भाव प्रकट हुआ, सोचने जैसा है.
घर पर बड़े लोग ऐसे ही मंदिर जाने के लिए नहीं कहते हैं, परमात्मा के दर्शन से व्यक्ति के जीवन में अनेक Positive Changes आ सकते हैं और ऐसा ही कुछ शांतनु भाई के साथ भी हुआ और कुछ इस तरह से जैन धर्म में शांतनु भाई की Entry हुई.
गुरु मिलन
कुछ समय के बाद काम के सिलसिले में शांतनु भाई Mumbai Shift हुए. जैन धर्म से तो वे अब Fascinated थे ही और वे जिस Office में अब काम करते थे, वहां के Manager हार्दिक भाई-एक जैन व्यक्ति थे.
शांतनु भाई, हार्दिक भाई की Lifestyle को Daily Observe करते थे. उबाला हुआ पक्का पानी पीना, चौविहार करना यानी Sunset के बाद खाना नहीं, उपवास आदि अलग-अलग तपस्या करना और इससे शांतनु भाई के मन में जैन धर्म के बारे में Curiosity बढ़ी कि ‘आखिर यह सब क्या है? ये क्यों कर रहे हैं?’
Coincidently उसी समय में शांतनु भाई और उनके साथ काम करनेवाले एक दोस्त ने ये Decide किया कि वे अब Buddhism और Jainism पर Research करेंगे, उन्हें अच्छे से जानने का प्रयास करेंगे और तब शांतनु भाई ने Jainism को चुना.
Google आदि के माध्यम से उन्होंने Jainism क्या है? जैन धर्म क्या है? उसका मर्म क्या है? उसकी महिमा क्या है? उसकी कुछ Details जानी.
एक बार शांतनु भाई को पता चला कि मुंबई के Malad Area में Railway Station के बिलकुल पास में 100 वर्ष प्राचीन एक जैन मंदिर है, जहाँ पर श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान विराजमान है.
शांतनु भाई वहां पर दर्शन करने गए और परमात्मा के दर्शन करते हुए जैन धर्म को जानने की उनकी इच्छा और भी ज्यादा Strong हो गई. शांतनु भाई को मंदिर के बाहर एक जैन श्रावक ‘हर्ष भाई छेड़ा’ मिले. शांतनु भाई ने हर्ष भाई को Jainism को Depth में जानने की इच्छा बताई और कुछ Doubts भी पूछे.
इधर एक Twist आता है!
जैन धर्म के इतिहास में एक Story आती है जिसमें हरिभट्ट पंडित नामक व्यक्ति को अपने ज्ञान पर यह घमंड था कि उन्हें हर श्लोक का अर्थ मालुम है. एक बार एक याकिनी नामक एक साध्वीजी भगवंत एक श्लोक को खिड़की के पास बैठकर जोर-जोर से बोलकर याद कर रहे थे.
यह श्लोक नीचे से गुजर रहे हरिभट्ट पंडित के कानों में पड़ा और उन्हें इस श्लोक का अर्थ समझ में नहीं आया. जब वे अर्थ पूछने गए तब साध्वीजी भगवंत ने उन्हें कुछ दूर उपाश्रय में विराजमान साधु भगवंत के पास जाकर उसका अर्थ जानने के लिए कहा.
साधु भगवंत के पास जाने के बाद तो हरिभट्ट पंडित की Thinking ही बदल गई और ऐसे हमें मिले 1444 ग्रंथों की रचना करनेवाले जैन धर्म के महान आचार्य भगवंत श्री हरीभद्र सूरीश्वरजी महाराजा. Detail में यह कथा फिर कभी ज़रूर जानेंगे.
हम ऐसा मान सकते हैं कि पूज्य साध्वीजी श्री याकिनी महत्तरा ने गुरु से शिष्य को मिलाने का जो अद्भुत कार्य किया था, वैसा ही कुछ कार्य हर्ष भाई ने शांतनु भाई को गुरु भगवंत से मिलाकर किया.
वो कैसे?
तो हर्ष भाई, शांतनु भाई को मंदिर के बाजू में रहे उपाश्रय में विराजमान प.पू. पंन्यास प्रवर श्री शुक्लध्यानविजयजी म.सा. के पास लेकर गए. प्रणाम, वंदन आदि करके शांतनु भाई ने महाराज साहेब से अपने Doubts पूछे.
शांतनु भाई ने यह Expect ही नहीं किया था कि जैन साधु भगवंत उन्हें Time भी देंगे लेकिन महात्मा ने बहुत सरलता के साथ उन्हें जैन धर्म के बारे समझाया. उस समय शांतनु भाई ने गुरु भगवंत का Photo अपने पास Save करके रख लिया था.
शांतनु भाई एक-दो बार वापस मलाड उपाश्रय में गुरु भगवंत से मिलने आए लेकिन उसके बाद सभी साधु भगवंतों ने वहां से विहार कर लिया था. शांतनु भाई अगली बार फिर से मिलने पहुँचे लेकिन उन्हें उपाश्रय में गुरु भगवंत नहीं मिले, अब करना क्या?
शांतनु भाई को अचानक याद आया कि मैंने महात्मा का Photo Save किया था, उन्होंने फिर वहाँ के स्थानिक जैनों को रास्ते पर ही पकड़कर वो Photo दिखाकर पूछा कि ‘ये साधु महाराज कहाँ गए?’ तब उन्हें पता चला कि गुरु भगवंत ने वहां से विहार कर लिया है और वे अभी गोवालिया टैंक के उपाश्रय में हैं.
शांतनु भाई गोवालिया टैंक में उपाश्रय ढूंढते हुए यही गुरु भगवंत के पास पहुंचे. अब आगे से गुरु भगवंत कहाँ-कहाँ विहार रहंगे, कहाँ स्थिर रहेंगे यानी रुकेंगे उसकी जानकारी उन्हें मिलती रहे इसलिए गुरु भगवंत के परिचित एक श्रावक का नंबर शांतनु भाई ने ले लिया था.
फिर वे Regularly गुरु भगवंत के पास जैन धर्म को समझने के लिए आने लगे और यही उनके जीवन का सबसे बड़ा Turning Point बना. शांतनु भाई को जिनशासन का ऐसा Interest लगा कि जन्म से अजैन होते हुए भी वे कर्मों से जैन बनने के मार्ग पर चलने लगे.
ज्ञान की ना जाने कैसी प्यास, कैसी जिज्ञासा होगी कि शांतनु भाई ने कुछ समय के लिए उनकी Job छोड़ दी और वे अपना ज्यादातर समय गुरु भगवंत के पास श्रुतज्ञान का अभ्यास करने में बिताने लगे.
आत्मा से महात्मा
शांतनु भाई ने पंच प्रतिक्रमण, नव स्मरण, जीवविचार, नवतत्व आदि पक्का किया और पिछले साढ़े 3 साल में उन्होंने हर पर्युषण महापर्व के दौरान 64 प्रहरी पौषध के साथ अट्ठाई की. अट्ठाई यानी 8 दिन Non-Stop उपवास.
इसी के साथ वर्धमान तप का पाया भरा और ओली भी की. हर साल चैत्र और आसोज महीने की ओली वे करते हैं और इतना ही नहीं, पिछले साल उन्होंने सिद्धितप जिसमें 44 Days में 36 उपवास करने होते हैं, वह भी किया था.
Name Plate में वे जरुर जैन नहीं थे लेकिन उन्होंने अपनी Plate से खुद को जैन बना लिया था. विडंबना यह है कि आज Name Plate में तो कई लोग जैन है, लेकिन Plate में कितने जैन है वह एक बहुत बड़ा प्रश्न है.
जैन धर्म आत्मा से महात्मा और फिर महात्मा से परमात्मा बनने का मार्ग दिखाता है. यह मार्ग शांतनु भाई ने अपना लिया. जी हाँ. देव-गुरु और धर्म की असीम कृपा से शांतनु भाई को ना सिर्फ जैन धर्म मिला बल्कि जैन धर्म की सबसे कीमती चीज़ यानी प्रभु महावीर का वेश भी उन्हें मिला.
जी हाँ! करीब-करीब 4 वर्ष की मेहनत के बाद 20th November 2024 के दिन श्री कलापूर्णसूरिजी म.सा. के समुदाय के प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय तत्त्वदर्शनसूरीश्वरजी महाराज साहेब के शिष्यरत्न प.पू. पंन्यास प्रवर श्री शुक्लध्यानविजयजी म.सा. के चरणों में अपना जीवन समर्पित करके शांतनु भाई से वे बने प.पू. मुनिराज श्री तहत्तिविजयजी महाराज साहेब.
Are You A Jain?
एक बात यहाँ जानने और समझने जैसी है कि शांतनु भाई को जन्म से नहीं बल्कि 25 साल की उम्र में नवकार महामंत्र मिला था और जबसे उन्होंने नवकार महामंत्र सीखा था तब से वे Daily नियमित रूप से 108 नवकार महामंत्र यानी 1 नवकारवली तो गिनते ही थे.
हमें तो बचपन से ही नवकार मंत्र मिला है, पैदा होने के कुछ समय के बाद ही हमारे कान में नवकार मंत्र बोला गया होगा लेकिन क्या हम नवकार मंत्र को उस तरह से अपना पाए जिस तरह शांतनु भाई ने अपनाया? ख़ुद से पूछने जैसा है.
एक दिन के 108 नवकार महामंत्र गिनने के लिए भी हमारे पास आज समय नहीं है. खैर,
पुण्य के प्रभाव से हमें जन्म से जैन धर्म मिला लेकिन हमने हमारी आत्मा के लिए जैन धर्म को किस तरह Utilize किया और शांतनु भाई को जन्म के लगभग 25 साल के बाद जैन धर्म मिला लेकिन उन्होंने किस तरह Utilize किया? यह बात Self Introspect करने जैसी है.
अगर हम भी सच्चे जैन बनना चाहते हैं तो सिर्फ Nameplate में नहीं, Plate से भी जैन बनना होगा, कर्म से भी जैन बनना होगा और उसके बाद हम भी शांतनु भाई की तरह ही गर्व से कह सकेंगे ‘I Am A Jain.’