‘गौतमस्वामी नी लब्धि होजो, शालिभद्र नी रिद्धि होजो, कयवन्ना सेठ नो सौभाग्य होजो !’ आदि शब्द हम सभी ने कई बार सुने ही होंगे ! लेकिन क्या हम इन महापुरुषों की कथा को जानते हैं ? आखिर क्यों इनका नाम इस तरह से लिया जाता है और उसके पीछे का क्या रहस्य है ? इन महापुरुषों में से चरम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी भगवान के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामीजी की लब्धियों के बारे में तो लगभग हम सभी को पता ही है लेकिन कयवन्ना सेठ नो सौभाग्य होजो ऐसा क्यों कहा जाता है?
कौन थे कयवन्ना सेठ? कैसा था उनका सौभाग्य? आइये जानते हैं जैन धर्म के इतिहास में छुपी हुई एक अद्भुत कथा को इस Article के माध्यम से !
गणिका का स्वीकार एवं त्याग
परमात्मा श्री महावीर प्रभु के विचरण के समय की बात है ! मगधदेश की राजगृही नगरी में श्रेणिक महाराजा राज्य करते थे ! उसी नगरी में अमाप संपत्ति के मालिक धनेश्वर नाम के सेठ रहते थे और उनकी शीलवान ऐसी सुभद्रा नाम की पत्नी थी ! एक शुभ दिन धनेश्वर सेठ और सुभद्रा सेठानी को एक तेजस्वी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ! सेठ ने खूब उत्साह के साथ पुत्र जन्म का महोत्सव मनाया और अपने पुत्र का नाम कृतपुण्य रखा ! जानकारी के लिए बता दें कि कृतपुण्य नाम संस्कृत भाषा में है और कयवन्ना नाम प्राकृत भाषा में है ! इस Article में हम संस्कृत भाषा के अनुसार हमारे मुख्य पात्र का नाम पढेंगे !
समय बीतने के साथ कृतपुण्य सभी कलाओं में Expert बना और यौवन वय प्राप्त होने पर श्रीद श्रेष्ठी की धन्या नाम की पुत्री के साथ कृतपुण्य का विवाह हुआ ! Married Life स्वीकार करने पर भी कृतपुण्य का सांसारिक विषय सुखों में कोई आकर्षण नहीं था ! उसे साधु – संतों का सत्संग बहुत पसंद था ! कृतपुण्य के इस तरह के विरक्त जीवन को देख माता – पिता को चिंता सताने लगी कि यदि उनके पुत्र ने दीक्षा ले ली तो उनकी क्या दशा होगी?
इस प्रकार विचारकर माता – पिता ने ही कृतपुण्य को अनंगसेना नाम की गणिका यानी वेश्या के वहाँ रखने का विचार किया, जिससे कृतपुण्य भोग सुखों में रंग जाए और दीक्षा का विचार त्याग दे ! गणिका के संग से कृतपुण्य के जीवन में भी बदलाव आने लगा और उसकी विचार धारा ही बदल गई ! त्याग के बदले वह भी भोगों का उपासक बन गया ! कृतपुण्य के माता – पिता भी कृतपुण्य के भोग के लिए अनंगसेना गणिका को धन – संपत्ति भेजते रहते थे ! इस प्रकार गणिका के वहाँ रहते हुए कृतपुण्य के 12 साल बीत गए ! गणिका में आसक्त बना कृतपुण्य अपने माता – पिता को भी भूल गया !
सोचने जैसी बात है कि बेटा दीक्षा लेकर माता – पिता से अलग ना हो जाए, उन्हें भूल ना जाए इसलिए उसे गणिका के पास भेजनेवाले माता – पिता को ही कृतपुण्य भोग सुख के कारण भूल गया ! समय बीतने पर कृतपुण्य के माता – पिता का भी स्वर्गवास हो गया ! 12 वर्ष तक गणिका के यहाँ निवास करने के कारण कृतपुण्य के माता – पिता की सारी संपत्ति भी समाप्त हो गई थी ! एक बार गणिका ने धन लाने के लिए अपनी दासी को कृतपुण्य के घर पर भेजा ! दासी ने जाकर कृतपुण्य की पत्नी धन्या से कहा कि ‘तुम्हारे पति ने धन लाने के लिए मुझे यहाँ भेजा है !’
धन्या ने कहा ‘पति की आज्ञा का मैं स्वीकार करती हूँ, परंतु मेरे दुर्भाग्य से मेरे सास – श्वसुर का स्वर्गवास हो चुका है ! पुत्र स्नेह से धन भेजते – भेजते हमारी हालत अब बहुत ही खराब हो चुकी है ! अब भेजने के लिए कुछ भी धन बचा नहीं है ! फिर भी मेरे पिता के द्वारा दिया गया एक आभूषण बचा है ! वह तुम ले जाकर मेरे पति को खुश करना !’
वह दासी उस आभूषण को लेकर गणिका के पास गई और उसने कृतपुण्य के घर की स्थिति बताई जिसे जानकर अनंगसेना गणिका ने दासी को कहा ‘अब किसी भी उपाय से कृतपुण्य को यहाँ से निकाल देना चाहिए !’ गणिका के आदेश से दासी कृतपुण्य के सामने धूल आदि फेंकने लगी ! कृतपुण्य ने धूल फैंकने का कारण पूछा तब दासी ने कहा ‘गणिका का यही तो व्यवसाय है, जब तक कामुक की ओर से धन मिलता है, तभी तक वह उसे अपने पास रखती है !’ यहां पर धूल फेंकना यह सूचित करता है कि कृतपुण्य को भी गणिका धूल की तरह फेंकना चाहती है !
दासी की इन बातों को सुनकर कृतपुण्य ने सोचा ‘मन, वचन और काया के व्यवहार में जिसकी समानता नहीं है ऐसी गणिका किसी के सुख के लिए कैसे हो सकती है ? धन की इच्छा से जो कोढ़ी को भी कामदेव के समान मानती है और जो अनंत स्नेह बताती है ऐसी गणिका का त्याग करना ही हितकारी है !’ आखिर तिरस्कृत बने कृतपुण्य ने गणिका का घर छोड़ दिया और अपने घर गया ! कृतपुण्य ने अपने घर की दुर्दशा देखी जिससे उसे बहुत दुःख हुआ ! वर्षों बाद धन्या ने अपने घर आए पति को देखा ! उसने अपने पति का भावभीना सत्कार किया !
व्यापार के लिए विदेश प्रयाण
धन्या ने अपने घर की सारी स्थिति का वर्णन कृतपुण्य को किया ! कृतपुण्य को अपनी भूल का खूब पश्चात्ताप हुआ और उसने सोचा ‘अहो ! मैं कितना दुर्भागी हूँ ? मैं अपने माता – पिता को भी सुख नहीं दे सका ! माता – पिता को शोक, दुःख दर्द, पीड़ा देनेवाले अनेक पुत्रों से भी क्या फायदा ? कुल के लिए आलंबन बननेवाला एक पुत्र भी श्रेष्ठ है ! जिस प्रकार इक्षु व केले के पेड़ पर फल लगते हैं और उसी समय पेड़ का नाश होता है, उसी प्रकार दुष्ट पुत्र से भी कुल का ही नाश होता है ! अहो ! मैंने पिता के द्वारा संचित धन का भी नाश कर दिया, मेरे जैसे पुत्र को धिक्कार हो !’
कृतपुण्य की बातों को सुनकर उसकी पत्नी ने कहा ‘हे स्वामिन् ! जो बीत चुका, उसकी आप चिंता न करो ! हर व्यक्ति का भविष्य निश्चित होता है, अत: आप निरर्थक चिंता न करें ! बुद्धिमान पुरुष वो ही कहलाता है जो भूतकाल का शोक नहीं करता है और भविष्य की चिंता नहीं करता है ! जहाँ कर्म की ही प्रधानता है, वहाँ शुभग्रह भी क्या कर सकते हैं ?’
पत्नी के इन मधुर वचनों को सुनकर कृतपुण्य को खूब आश्वासन मिला ! यहां समझने जैसी चीज यह है कि अपना पति कितना भी क्यों ना बिगड़ जाए, लेकिन धन्या ने उसे तिरस्कारा नहीं ! धन्या के स्वभाव को धन्यवाद है ! धीरे – धीरे समय बीतने लगा और एक दिन धन्या गर्भवती बनी ! कृतपुण्य ने अपने दिल की बात करते हुए अपनी पत्नी को कहा ‘मेरे जैसा कोई पापी नहीं है, मेरे होते हुए भी माता – पिता दु:खी होकर मरण की शरण हो गए ! मैंने अपना सारा धन भी गँवा दिया ! जिस तरह बीज के अभाव में खेती संभव नहीं है, उसी प्रकार मूल धन के अभाव में नया व्यापार यानी Business करना भी शक्य नहीं है !’
उस समय धन्या ने कृतपुण्य से कहा ‘मेरे पास एक हजार दीनारें हैं, (दीनारें यानी उस समय की Currency) आप उन्हें ग्रहण करें और योग्य व्यापार करें !’ पत्नी की सलाह से कृतपुण्य ने व्यापार हेतु विदेश जाने का निश्चय किया ! उसी दिन उस नगर में एक समृद्ध सार्थवाह आया हुआ था और उसी के साथ कृतपुण्य ने जाने का निश्चय किया !
इधर उसी नगर में धनदेव नाम का Businessman रहता था ! उसकी पत्नी का नाम रूपवती था और उन्हें जिनदत्त नाम का एक पुत्र था ! चार श्रेष्ठी – कन्याओं के साथ में पुत्र जिनदत्त का विवाह हुआ था ! पिता धनदेव की मृत्यु हो चुकी थी, उससे अचानक पुत्र जिनदत्त का भी स्वास्थ्य खराब हो गया और अचानक उसकी भी मृत्यु हो गई !
अपने पुत्र जिनदत्त की मृत्यु के बाद उसकी माता रूपवती ने सोचा ‘मेरे पति की तो मृत्यु हो चुकी है, अब यदि मेरे पुत्र की भी मृत्यु की बात राजा को पता चलेगी तो वह हमारा सारा धन ले लेगा !’ इस प्रकार विचारकर रूपवती ने अपनी बहुओं को कहा ‘यदि तुम्हारे पति की मृत्यु की बात राजा को पता चलेगी तो वह अपना सारा धन ले लेगा, अत: तुम्हें रुदन नहीं करना है ! गुप्त रूप से पति के शव को जमीन में गाड़ देना होगा ! अन्य पति के संग द्वारा जब तक तुम्हे पुत्र पैदा न हो, तब तक इस बात को गुप्त ही रखना होगा !’
रूपवती का छल
चारों पुत्रवधुओं ने भी सास की बात स्वीकार कर ली ! इधर कृतपुण्य Business के उद्देश्य से नगर के बाहर देवकुल में रात को Rest करने के लिए आया हुआ था ! योगानुयोग रूपवती की चारों बहुएं रात्रि में उसी देवकुल में आई जहाँ कृतपुण्य Rest कर रहा था ! रूपवती की आज्ञा से रात्रि में सोए हुए कृतपुण्य को पलंग सहित उठा लिया गया और उसे रूपवती अपने घर ले आई ! सार्थ के साथ जाने को सोच रहे कृतपुण्य का भाग्य उसे किसी के घर ले गया !
प्रातः काल होने पर जैसे ही कृतपुण्य नींद में से जागृत हुआ, रूपवती ने उसे स्नेह से पुकारते हुए कहा ‘हे वत्स ! तू अपनी माता को छोड़ इतने दिन कहाँ चला गया था? मैं तेरी माता हूँ ! तेरे जन्म के साथ ही किसी पापी ने तेरा अपहरण यानी Kidnap कर लिया था ! तुम्हारे बड़े भाई की मृत्यु हो चुकी है, अत: इस सारी संपत्ति का तू ही मालिक है ! अब तुझे यहीं रहना है कहीं भी जाना नहीं है ! ये चारों कन्याएं भी तुम्हारी ही पत्नी हैं !’ रूपवती की इन बातों को सुनकर कृतपुण्य ने सोचा ‘क्या मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ ! अथवा मेरे भाग्य से ही यह सारी संपत्ति प्राप्त हुई है तो क्यों न उसका उपभोग करूँ ?’
इस प्रकार विचारकर कृतपुण्य ने कहा ‘हे माता ! मैं सब कुछ भूल गया था ! पुण्यकर्म के उदय से अब मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ ! अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा और यहाँ रहते हुए मैं तुम्हारी सब आज्ञाओं का पालन करूंगा !’ उन चार पत्नियों के साथ दिव्य सुखों का अनुभव करते हुए कृतपुण्य ने 12 वर्ष व्यतीत किए ! इन वर्षों में कृतपुण्य की चारों पत्नियों को 1 – 1 पुत्र की प्राप्ति हुई !
ज्ञानी गुरु भगवंत कहते हैं कि संसार स्वार्थ से भरा हुआ है, जब तक स्वार्थ सिद्ध होता है, तब तक संबंध रखा जाता है ! स्वार्थ पूरा होने के साथ निकट के व्यक्ति को भी भुला दिया जाता है और इसलिए संसार असार है, त्याग करने योग्य है ! रूपवती की बहुओं को कृतपुण्य से 1 – 1 पुत्र प्राप्त हो चुके थे ! धन का वारिस यानी उत्तराधिकारी प्राप्त हो चुके थे, अब रूपवती ने सोचा ‘इस कृतपुण्य की क्या जरूरत है?’ इस प्रकार सोचकर रूपवती ने अपनी बहुओं को कहा ‘इस कृतपुण्य को जिस देवगृह में से उठाकर लाए थे वापस उसे पलंग सहित वहीं पर छोड़ दिया जाए !’
सास की बात बहुओं को पसंद नहीं आई ! उनके हृदय में तो कृतपुण्य के प्रति उतना ही प्रेम था परंतु सास के आगे कुछ भी बोलने की उनमें हिम्मत नहीं थी, अत: सास की आज्ञा को स्वीकार किए बिना छुटकारा नहीं था ! पुत्रवधुओं ने सास को विनती करते हुए कहा ‘माता ! अपने यहाँ आए हुए मेहमान को खाली हाथ विदाई देना उचित नहीं है, अत: आपकी सहमति हो तो उन्हें भाता दिया जाए !’ सास ने कहा ‘जैसी तुम्हारी इच्छा !’
कृतपुण्य के प्रति गाढ़ राग होने से उन स्त्रियों ने कृतपुण्य को आर्थिक मदद करने के लक्ष से कुछ मोदक तैयार कराए और उन मोदकों के अंदर ही अमूल्य मणिरत्न यानी Special Powers वाले Gemstones छिपा दिए ! जिस समय रात्रि में कृतपुण्य पलंग पर सो रहा था, उसी रात्रि में पलंग सहित कृतपुण्य को उठाकर देवमंदिर में छोड़ दिया गया ! चारों पत्नियां भी अपने पति को छोड़ने के लिए वहाँ आई थीं ! पलंग के पास ही मोदक की थैली छोड़कर दुखी मन के साथ वे अपने भवन में लौट आईं !
पुनः मिलन
12 वर्ष पहले जो व्यक्ति व्यापार के लिए विदेश जा रहा था, वह व्यक्ति योगानुयोग उसी दिन उस नगर में आ गया और वह व्यक्ति पहले की जगह पर ही Rest करने आया हुआ था ! उस व्यक्ति के आगमन को सुनकर कृतपुण्य की पहली पत्नी धन्या ने सोचा ‘इस व्यक्ति के साथ मेरा पति भी आया होगा !’ इस प्रकार विचारकर वह अपने पति को लेने के लिए उसी यक्ष मंदिर में गई ! वहाँ पर उसका पति उसी पलंग पर सोया हुआ था !
प्रातः काल होने पर कृतपुण्य जाग्रत हुआ और उसने अपनी आँखों के सामने अपनी Actual पत्नी धन्या को देखा ! धन्या अपने पति को अपने घर ले आई और उसने कृतपुण्य से पूछा ‘आप क्या कमाकर लाए हो ?’ कृतपुण्य ने कहा ‘पूर्व के पापोदय के कारण मैंने कुछ भी नहीं कमाया है !’ लज्जा के कारण कृतपुण्य ने कुछ भी अन्य बातें नहीं बताई ! कृतपुण्य और धन्या का 11 वर्ष का पुत्र शाला से घर आकर माँ को कहने लगा ‘मुझे खूब भूख लगी है, मुझे कुछ खाने को दो !’ उसी समय कृतपुण्य के साथ भाते में आए चार लड्डुओं में से एक लड्डू माँ ने अपने बेटे को खाने के लिए दे दिया ! घर के बाहर दूर जाकर वह बच्चा लड्डू खाने लगा ! लड्डू को तोड़ने पर उसमें से एक मणि निकला ! उसने मणि को अपनी जेब में डाला और लड्डू खा लिया !
वह बालक उस मणि को लेकर कंदोई की दुकान पर गया ! कंदोई यानी मिठाई बनानेवाला ! उसने कंदोई को मणि देकर कुछ मिठाई खरीद ली ! कंदोई ने वह मणि पानी में डाला तो वह पानी दो भागों में बट गया ! कंदोई ने सोचा ‘अहो ! यह तो अत्यंत ही मूल्यवान जलकांत मणि है !’ उसने उस मणि को अपने घर में छिपा दिया ! इधर श्रेणिक महाराजा का पट्टहस्ती यानी Main हाथी पानी पीने के लिए किसी सरोवर में गया, उसी समय किसी जलचर प्राणी ने यानी Aquatic Animal ने उस हाथी को पकड़ लिया !
जो हाथी को संभालता है उस व्यक्ति को महावत कहा जाता है ! अनेक – अनेक उपाय करने पर भी महावत हाथी को जल में से बाहर नहीं निकाल पाया ! आखिर श्रेणिक महाराजा ने अभयकुमार से बात की ! अभयकुमार ने सोचा कि अगर किसी के पास जलकांत मणि हो तो उससे हाथी को बचाया जा सकता है ! जलकांत मणि की शोध के लिए अभयकुमार ने नगर में ढिंढोरा पिटवाया कि यदि कोई जलकांत मणि देगा तो राजा उसे आधा राज्य और अपनी पुत्री प्रदान करेगा !
उस कंदोई ने जब यह Announcement सुनी तो वह खुश हो गया और उसने Announcement करनेवाले राजपुरुष से कहा कि उसके पास जलकांत मणि है ! राजपुरुष कंदोई को राजा के पास ले गए ! कंदोई ने वह जलकांत मणि राजा को प्रदान किया ! राजा अपने परिवारजनों के साथ उस सरोवर के पास आया ! जलकांतमणि के प्रभाव से हाथी जलचर प्राणी के बंधन से मुक्त हो गया !
कंदोई का सच
राजा ने उस कंदोई का सम्मान किया ! उसके बाद राजा ने अभयकुमार को एकांत में कहा ‘इस कंदोई को अपनी राजपुत्री मनोरमा कैसे दी जाए ?’ उस समय राजकन्या का विवाह राजकुमार या राजा से ही किया जाता था, अन्य किसी व्यक्ति से नहीं ! बुद्धिनिधान अभयकुमार ने कहा ‘पिताजी आप चिंता मत कीजिए ! इस रत्न का जो सच्चा मालिक होगा, उसका मैं पता लगाऊंगा ! ऐसा बहुमूल्य रत्न कंदोई के घर नहीं हो सकता है क्योंकि चक्रवर्ती का रत्न चक्रवर्ती के घर में ही हो सकता है, अन्य किसी के घर में नहीं ! उसी प्रकार ऐसा जलकांत मणि भी पुण्यशाली को छोड़ अन्य के घर में कैसे रह सकता है ?’
सच का पता लगाने के लिए अभयकुमार ने उस कंदोई को बुलाया ! अभयकुमार ने उसका सम्मान किया, फिर पूछा ‘यह रत्न तुझे कहाँ से मिला है?’ कंदोई ने कहा ‘यह तो मेरे घर में था !’ मंत्री अभयकुमार की आज्ञा से उसे कठोर सजा की गई ! मंत्री ने पुनः पूछा ‘सच कहो, यह रत्न कहाँ से आया ?’ मौत के भय से कंदोई ने रत्न प्राप्ति की सारी घटना मंत्री को कह दी ! सत्य का पता चलने पर राजा ने अपनी पुत्री मनोरमा का विवाह कृतपुण्य के साथ कराया और उसे आधा राज्य भी प्रदान किया ! हमारे जीवन में थोड़े Ups & Downs आ जाए तो हमारी हालत ख़राब हो जाती है ! कृतपुण्य के Ups & Downs तो अलग ही Level के थे !
एक बार कृतपुण्य ने अभयकुमार को कहा ‘इसी नगर में चार पुत्रों सहित चार पत्नियाँ हैं परंतु उनके घर का मुझे पता नहीं है !’ अभयकुमार ने कहा ‘तुम जिस घर में 12 साल रहे, उस घर का भी तुम्हें पता नहीं है ! यह कैसी तुम्हारी चतुराई है?’ कृतपुण्य ने उसके साथ घटित हुई सारी घटना अभयकुमार को बताई !
अभयकुमार की योजना
अभयकुमार ने कहा ‘तुम्हारी पत्नियाँ और तुम्हारे पुत्र तुम्हें पहचानते हैं? कृतपुण्य ने हाँ कहा ! तब अभयकुमार ने कहा ‘मैं युक्ति द्वारा उनका पता लगा दूँगा ! तुम निश्चिन्त रहो !’ अभयकुमार ने एक महल बनवाया और उस महल के अन्दर कृतपुण्य के Body जैसी एक यक्ष प्रतिमा यानी Statue जैसा बनवाया और उसे योग्य जगह में स्थापित किया !
उसके बाद अभयकुमार ने नगर में घोषणा कराई कि पुत्रोंवाली जो भी स्त्री पाँच – पाँच मोदक के साथ इस महल में प्रवेश कर यक्ष की पूजा करगी, उसके कुल की वृद्धि होगी, अन्यथा उस कुल का नाश हो सकता है, अतः पुत्रवाली सभी स्त्रियाँ आगामी चतुर्दशी यानी चौदस के दिन अवश्य आ जाएँ !’ अभयकुमार की आज्ञा होते ही चतुर्दशी के दिन नगर की सभी स्त्रियाँ जिन्हें पुत्र था, वो सब उस महल में आने लगीं और यक्ष की पूजा करने लगीं !
इस बीच कृतपुण्य की वे चारों पत्नियां भी अपने पुत्रों के साथ वहाँ आईं ! जैसे ही उन पुत्रों ने अपने पिता कृतपुण्य का Statue देखा, वे बालक ‘पिताजी ! पिताजी !’ कहकर बोलने लगे ! उसी समय वहाँ पर छिपे हुए कृतपुण्य ने अभयकुमार को अपनी चारों पत्नियों और पुत्रों का संकेत किया ! अभयकुमार ने उन पुत्रों का पता खोज लिया और उन पुत्रों व स्त्रियों का कृतपुण्य के साथ पुन: मिलन करा दिया ! कृतपुण्य की कुल 6 पत्नियाँ हो चुकी थीं ! अनंगसेना गणिका ने भी कृतपुण्य को पति के रूप में स्वीकार किया और इस प्रकार कृतपुण्य 7 स्त्रियों के साथ सांसारिक भोग – सुखों का अनुभव करने लगा !
पूर्व भव एवं दीक्षा स्वीकार
एक बार महावीर प्रभु पृथ्वीतल को पावन करते हुए राजगृही के वैभारगिरि पर पधारे ! कृतपुण्य भी प्रभुवीर की देशना सुनने के लिए अपने परिवार सहित वैभारगिरि पर आया और उसने वहाँ एक दम ध्यान से प्रभु की धर्मदेशना सुनी ! देशना के अंत में कृतपुण्य ने हाथ जोड़कर महावीर प्रभु से पूछा कि ‘हे प्रभु ! किस कर्म के उदय से मुझे कुछ कुछ समय के Gap में इस जीवन में संपत्ति प्राप्त हुई ?’ प्रभु ने कृतपुण्य सेठ को उसका इतिहास बताते हुए कहा कि ‘पूर्व भव में तू श्रीपुरनगर में ग्वाला यानी Shepherd का पुत्र था और तुम्हारी माँ की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी !
एक बार किसी उत्सव में घर – घर में खीर के भोजन को देखकर उस गोवाल पुत्र ने अपने घर आकर माँ के पास खीर की मांग की ! माँ ने कहा ‘बेटा ! घर में खाने की कोई सामग्री नहीं है तो मैं तेरे को खीर कहाँ से खिलाऊँ ?’ अपने बेटे की दयनीय स्थिति को देखकर बेटे के साथ माँ भी रोने लगी ! उसको रोती हुई देखकर उसकी पड़ोसी स्त्रियों ने उसे चावल, दूध और शक्कर की मदद की ! उन वस्तुओं को प्राप्त कर उसने खीर बनाई और खीर तैयार कर वह पड़ोसी के घर चली गई !
उसी समय मासक्षमण के दो तपस्वी महात्मा गोवाल पुत्र के घर पधारे ! उस समय उस बालक ने उन महात्मा को खूब भावपूर्वक गोचरी वहोरने के लिए विनंती की ! खीर का एक भाग महात्मा को वहोराकर पुनः उसने सोचा कि इतनी सी खीर से इनका क्या होगा? इस प्रकार विचार कर उसने पुन: थोड़ी खीर वहोराई, फिर वापस विचारकर तीसरी बार खीर वहोराई ! इस प्रकार उसने महात्मा को तीन बार टुकड़े टुकड़े में खीर वहोराई !’
प्रभु ने कहा कि वह बालक तुम ही थे, मरकर तुम कृतपुण्य सेठ बने हो ! महात्मा को थोड़े – थोड़े अंतर से खीर वहोराने के कारण तुम्हें थोड़े – थोड़े अंतर में समृद्धि की प्राप्ति हुई !’ अपने पूर्वभव को जानने से कृतपुण्य को इस भयानक संसार के प्रति तीव्र वैराग्य भाव पैदा हुआ और उसने अपने ज्येष्ठ यानी बड़े पुत्र को घर की सारी जवाबदारी सौंपकर और सुपात्रदान के सात क्षेत्रों में धन का सद्व्यय कर कुतपुण्य ने प्रभु के चरणों में दीक्षा अंगीकार की !
निर्मल चारित्र धर्म का पालन कर कृतपुण्य मुनि ने देव भव को प्राप्त किया और देवभव के आयुष्य को पूर्णकर वे आगे मोक्ष प्राप्त करेंगे !
Moral Of The Story
कृतपुण्य सेठ जिन्हें हम कयवन्ना सेठ के नाम से भी जानते हैं उनकी इस कथा से कई चीजें समझने जैसी है !
1. ‘पुरुषस्य भाग्यं’ ऐसी संस्कृति में कहावत है ! पुरुष के भाग्य का अनुमान कोई नहीं कर सकता है, वह कभी पलटता है, वह किसी को भी पता नहीं होता और इसलिए धीरज यानी Patience रखना जरूरी है वरना Patient बन जाएंगे !
2. अभयकुमार की बुद्धि ऐसी थी कि उसके मन में सहज रित से तर्क आ जाता था और कार्य भी वैसा ही होता था ! तो उसका कारण क्या? उसकी जिनभक्ति और उसके पूर्वभव का पुण्य और शुद्धि भी बहुत ही उत्कृष्ट थी और इसलिए बुद्धि भी जबरदस्त मिली थी !
3. गुरु भगवंतों को गोचरी वहोराने के समय क्या विवेक होना चाहिए? उसका भी साक्षात Example कयवन्ना सेठ का पूर्वभव है ! साधु भगवंतों को गोचरी में किया गया अंतराय कितना बड़ा अंतराय देता है, उसका पता किसी को नहीं लगता इसलिए जड़ की तरह जब गुरु भगवंत घर आए तो ‘मम्मी नहीं है’ ऐसा कहना खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने से छोटा काम नहीं है !
4. इतनी समृद्धिवाले भी अगर दीक्षा ले सकते हैं तो Brainwash की बातें करना व्यर्थ है, मूर्खता है !
महापुरुषों के चरणों में कोटि कोटि वंदन 🙏🙏