How a Ruthless Dacoit Became A Jain Sadhu? Mahapurush Dradhprahari’s Astonishing Story

महापुरुष दृढ़प्रहारी की डाकू से साधु बनने की अद्भुत कथा

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महापुरुष दृढ़प्रहारी की अद्भुत कथा

एक ही दिन में चार-चार हत्या करनेवाले भरहेसर सज्झाय के महापुरुष दृढ़प्रहारी, साधु भगवंत के उपदेश के प्रभाव से डाकू से मिटकर साधु बन गए. समता की-सहनशीलता की साधना किस तरह एक आत्मा को Bottom से Peak तक पहुँचा सकती है, उसका ज़बरदस्त उदाहरण है महापुरुष दृढ़प्रहारी की अद्भुत कथा. 

बने रहिए इस Article के अंत तक. 

दृढ़प्रहारी की क्रूरता 

क्षितिप्रतिष्ठान नामक नगर में एक व्यक्ति रहता था. वहां की प्रजा उसके बुरे व्यवहार से बहुत परेशान थी. लोगों ने राजा को शिकायत की और राजा ने अपने मंत्रियों को आदेश देकर उसे नगर से बाहर निकाल दिया. वह व्यक्ति चोरों की टोली में चला गया और चोरों के Head की मृत्यु के बाद, इसी व्यक्ति को चोर सेना का Head बनाया गया. 

यह व्यक्ति बहुत ही क्रूरता से और बहुत जोर से निर्दोष लोगों को मारता था, यानी बहुत ही दृढ़ता से प्रहार करता था, Attack करता था जिसके कारण ‘दृढ़प्रहारी’ के नाम से वह चारों ओर Famous हो गया. 

एक बार वह कुशस्थल नामक नगर को लूटने के लिए गया. उस नगर में देवशर्मा नामक एक गरीब व्यक्ति रहता था और कोई Festival होने के कारण उसके बच्चों ने उससे मिठाई की मांग की. घर-घर घूमकर देवशर्मा ने चावल-दूध और शक्कर लाइ और खीर बनाई. 

देवशर्मा कुछ समय के लिए घर से बाहर गया और तब ही दृढ़प्रहारी आदि चोर उसके घर में घुसकर खीर लेकर भाग गए. खीर चोरी होने के कारण सभी बच्चे जोर जोर से रोने लगे और उन्होंने अपने पिता से Complaint की. 

देवशर्मा चोरों के पीछे कुल्हाड़ी लेकर भागा और भागते-भागते दृढ़प्रहारी के रास्ते में गाय आ जाने से उसने गाय पर निर्दयता पूर्वक तलवार से हमला करके उसकी हत्या करदी और देवशर्मा को पास आता देख उसके सर को भी तलवार से उड़ा दिया. 

पति देवशर्मा की निर्दय मृत्यु को देखखर उसकी गर्भवती पत्नी दृढ़प्रहारी पर जोर जोर से चिल्लाने लगी. क्रोध में अंधे बने दृढ़प्रहारी ने उसके पेट में भी तलवार से वार किया जिससे उसकी और गर्भस्थ बालक की भी मृत्यु हो गई. 

साधुनां दर्शनं पुण्यं 

बहुत ही भयानक दृश्य का सर्जन हो गया था. माता-पिता के मृत शरीर को देखकर सभी बच्चे जोर जोर से रोने लगे. भूखे बच्चों का दिल दहलानेवाला करुण विलाप सुनकर दृढ़प्रहारी कुछ क्षणों के लिए Shock हो गया. 

बच्चों के उस दर्द के कारण दृढ़प्रहारी के मन में करुणा भाव आया. दृढ़प्रहारी उस जगह से कुछ आगे गया और नगर के बाहरवाले उद्यान यानी Garden में उसे प्रशांत मुख मुद्रावाले एक साधु भगवंत दिखाई दिए. 

त्याग-वैराग्य-करुणा-क्षमा की साक्षात् मूर्ति ऐसे जैन साधु भगवंत को देखकर दृढ़प्रहारी का दिल वैराग्य से भर गया. 

साधु का दर्शन किसको लाभ नहीं करता? जिस तरह पारसमणि के संपर्क से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही महात्मा के साथ रहने से दुरात्मा भी महात्मा बन जाते है, शैतान भी इंसान और अंत में भगवान बन सकते हैं. 

इसलिए ही कहा गया है – ‘साधुनां दर्शनं पुण्यं’.

दृढ़प्रहारी ने देखा कि इन महात्मा की आँखों में करुणा बह रही है. विश्व के सभी जीवों को अभयदान यानी जीवनदान देनेवाले ये साधु भगवंत तो अहिंसा के साक्षात् अवतार हैं. त्याग और तप से अपने शरीर का राग तोड़कर, आत्मा के आतंरिक दुश्मन यानी राग, द्वेष, क्रोध, मोह, मान, माया, लोभ आदि से भयंकर युद्ध खेल रहे हैं. 

दृढ़प्रहारी का पश्चाताप 

कायोत्सर्ग में रहे महात्मा को दृढ़प्रहारी ने पंचांग प्रणिपात नमस्कार किया. महात्मा ने कायोत्सर्ग पूर्ण करने के बाद दृढ़प्रहारी को धर्मलाभ कहा. जैन साधु का ‘धर्मलाभ’ यह सामान्य शब्द नहीं है, इसमें अद्भुत रहस्य छुपा हुआ है. 

जैन साधु कभी भी धनलाभ, पुत्रवान भव या आयुष्मान् भव का आशीर्वाद नहीं देते हैं, क्योंकि धन-पुत्र या लंबी उम्र की प्राप्ति में पक्का लाभ ही होगा ऐसा Possible नहीं है. धनादि तो संसार को बढ़ानेवाला हैं. और ये भौतिक चीज़ें भी Permanent रहनेवाली है नहीं. 

इसी कारण जैन साधु-साध्वीजी हमेशा ‘धर्मलाभ’ का ही आशीर्वाद देते हैं. साधु-साध्वीजी भगवंत द्वारा कहा गया धर्मलाभ संसार का अंत करानेवाला और मोक्ष को प्राप्त करानेवाला मंगल आशीर्वाद है. 

दृढ़प्रहारी ने कुछ सोचा और महात्मा से कहा 

एक भी जीव की हिंसा अगर व्यक्ति को नरक तक ले जा सकती है, तो मैंने तो गाय, देवशर्मा, उसकी पत्नी और उसके गर्भ की भी हत्या की है. मेरे जैसे क्रूर हत्यारे की क्या हालत होगी? हे दयालु महात्मा, इस भयंकर पाप से मुझे छुड़ाने के लिए, बचाने के लिए आप ही कुछ कर सकते हैं. कुछ ऐसा मार्ग बताइए कि इस भयंकर हत्या के पाप से मैं अपनी आत्मा को मुक्त कर सकूँ.

दृढ़ाहारी के दिल में महात्मा के प्रति बहुत Respect थी. वह अपने जीवन को पूरी तरह समर्पित करने के लिए तैयार था. दुष्कृत गर्हा यानी खुद के द्वारा किए गए बुरे कामों की निंदा करना-पश्चाताप करना. 

सुकृत अनुमोदना यानी दूसरों के द्वारा किए गए अच्छे कामों की अनुमोदना करना-प्रशंसा करना और शरणग्रहण यानी सुदेव और सुगुरु के चरणों में अपने जीवन का समर्पण करना. यह तीनों धर्म-प्राप्ति के Basic Requirements है, मूल बीज है. 

जब ये गुण किसी भी आत्मा में प्रकट होते हैं, तभी आत्मा मुक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए योग्य बनती है, Eligible बनती है. सुकृत अनुमोदना, दुष्कृत गर्हा आदि गुणों से दृढ़ाहारी के विचार, वाणी और वर्तन यानी Behaviour में बहुत Changes आए. 

डाकू से साधु 

साधु भगवंत ने दृढ़प्रहारी को समझाते हुए कहा 

हे महानुभाव, गलती होना संसारी आत्मा का स्वभाव है लेकिन उस गलती को स्वीकार कर लेना, यह महात्मा बनने का लक्षण है और भविष्य में कभी भी वह गलती वापस न हो उसके लिए कोशिश करना यह आत्मा में से परमात्मा बनने की कला है. पाप करने से भी, पाप को छिपाना भयंकर अपराध है.

खुद के द्वारा किए गए पाप को स्वीकार करने के बाद ही आत्मा पाप मुक्त बनने के काबिल बन सकती है. अतः अब पाप से मुक्त बनने की तीव्र इच्छा हो तो सभी प्रकार के पापों का त्याग यानी चारित्र धर्म स्वीकार करना चाहिए. चारित्र धर्म का विशुद्ध पालन ही आत्मा को पाप मुक्त बना सकता है. 

साधु महात्मा के उपदेश सुनकर दृढ़प्रहारी ने दीक्षा ली और गुरु भगवंत के पास अभिग्रह लिया कि जिस दिन मुझे मेरा पाप याद आएगा, उस दिन में अन्न और जल का त्याग करूंगा. 

Normal Human Nature ऐसा होता है कि वह जिस बात को भूलना चाहता है वही बात उसके दिमाग में हमेशा घूमती रहती है. दृढ़प्रहारी अब मुनि बन गए थे, संसार से विस्क्त वैरागी बन गए थे और अपने गुरुदेवश्री की अनुमति लेकर दृढ़प्रहारी मुनि उसी नगर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गए. 

दृढ़प्रहारी जो पहले दृढ़ता से प्रहार करने के काबिल थे, वे अब दूसरो के दृढ़प्रहारों को सहने में काबिल बन गए थे. दृढ़प्रहारी को साधु के वेश में देखकर नगरजन उन्हें धिक्कारने लगे कि ‘यह पापी है, ढोंगी है. अपने पाप को छुपाने वाला मायावी है.’ इत्यादि अनेक प्रकार से कठोर बातें बोलकर दृढ़प्रहारी मुनि पर पत्थर मारने लगे. 

समताभावी महापुरुष दृढ़प्रहारी 

लोगों के इस तरह के बर्ताव के कारण दृढ़प्रहारी मुनि को Daily अपना पाप याद आ जाता था, जिस कारण वे Daily उपवास करने लगे. 

लोग पत्थर, लकड़ी एवं धूल बरसाने लगे लेकिन वे रोज समतापूर्वक सहन करते थे. नगरजनों के भयंकर प्रहारों को सहकर भी दृढ़प्रहारी मुनि समभाव में ही लीन थे. वे खुद को कहते थे कि 

‘हे आत्मन्, तूने जैसा पाप किया है, वैसा ही फल तुझे मिल रहा है. जैसा बीज बोया है वैसा ही फल मिलेगा. ये व्यक्ति मुझपर क्रोध करते हैं, यह तो मेरे हित के लिए ही है क्योंकि इसको सहने में मेरी कर्म-निर्जरा है, कर्मों का नाश है.

यदि मुझे धिक्कारने में इन लोगों को सुख मिलता हो, तो वह होने दूँ, क्योंकि सुख की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है. अग्नि की गर्मी तो सोने में से कचरे को निकाल देती है, उसी तरह ये व्यक्त्ति मेरे ऊपर प्रहार करते हैं, उससे तो मेरा कर्म रूपी कचरा दूर होनेवाला है.

ये लोग स्वयं दुर्गति में ले जानेवाले पाप कर्म का बंध करके भी मुझे दुर्गति के गर्त में से निकाल रहे हैं, अतः मैं उनके ऊपर गुस्सा क्यों करूँ? अपने पुण्य को खर्च करके ये लोग मेरे पाप कर्मों को दूर कर रहे हैं, अतः ये तो मेरे परम मित्र हैं.

परंतु मुझे दुःख इतना ही है कि इन सभी कार्यों के द्वारा ये लोग अपने अनंत संसार को बढ़ा रहे हैं. ये तो मेरी निंदा ही करते हैं, मुझे पीटते तो नहीं हैं. यदि मुझे पीटते हैं, तो मेरे प्राणों का नाश तो नहीं करते हैं.

यदि मुझे मार भी डालें, तो भी मुझे धर्म से भ्रष्ट तो नहीं कर रहे हैं. सभी प्रकार के आक्रमण आदि सहन करना, यह तो आत्म-कल्याण का श्रेष्ठ उपाय है, अतः उसे समतापूर्वक सहने में ही मेरा हित है.’ 

इस प्रकार की शुभभावना से अपनी आत्मा को भावित कर दृढप्रहारी मुनि ने समतापूर्वक सभी उपसर्गों को सहन किया और 6 महीने में ही भूख आदि परिषहों को सहन करके उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त किया.

Normally ऐसे घोर हत्या करनेवाले Murderers की दुर्गति ही होती है, पर दृढ़प्रहारी का आयुष्य का बंध नहीं हुआ था यानी Next जन्म कहाँ होनेवाला है उसका आयुष्य बंध नहीं हुआ था और उन्होंने इतनी कड़ी तपस्या की थी कि उनका मोक्ष आसानी से हो गया. 

धन्य हो इतिहास के ऐसे अद्भुत महापुरुषों को जिन्होंने खुद के द्वारा किए गए घोर पाप कर्मों को तोड़ने के लिए अत्यंत कठिन परिस्थिति में भी अपना संयम, धैर्य खोया नहीं और केवलज्ञान प्राप्ति तक कर्म निर्जरा के मार्ग को अपनाया. 

Moral Of The Story

अपने अभिग्रह में अंत तक दृढ़ रहनेवाले दृढ़प्रहारी महापुरुष की कथा से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. आइए देखते हैं Learnings.

1. घोर से घोर पापी को अगर वह शरण में आए, तो जैन धर्म ने उसे अपनाया है और उसे प्रायश्चित के द्वारा शुद्ध करके मोक्ष तक पहुँचाया है. 

2. प्रायश्चित एक ऐसा शस्त्र है कि जिसका अगर हम सही से उपयोग करे तो भलभले कर्म कट जाते हैं. जो व्यक्ति Confession + उसका प्रायश्चित नहीं करता वह दुनिया का सबसे त्रस्त और भारी आदमी है. 

3. व्यक्ति पहले बुरा हो सकता है पर वह हमेशा बुरा ही रहता है, ऐसा मानना हमारी मुर्खता है, अधमता है. जिनशासन का स्याद्वाद यह सीखाता है कि एक ही व्यक्ति के 2 स्वरुप हो सकते हैं-बुरा और अच्छा. 

प्रभु महावीर 18वे भव में त्रिपुष्ठ वासुदेव बने ही थे कि जिन्होंने जलता हुआ सीसे का रस अपने नौकर के कान में डलवाया था. यानी हर व्यक्ति के 2 पहलु हो सकते हैं. पर बुरे पहलु को ही देखना और अच्छे को नहीं देखना-यह हमारी दृष्टी का और मन का बड़ा दोष है. 

4. Murderers सुधर सकते हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि Murder करना चाहिए. कुछ लोग उल्टी खोपड़ी के होते हैं कि जो ऐसा मानते हैं कि पहले हिंसा, अनीति, चोरी कर लो, फिर प्रायश्चित कर लेंगे. 

ऐसे उल्टी खोपड़ी के लोगों की दुर्गति 100% निश्चित ही समझना क्योंकि वे किसी और कोई नहीं बल्कि खुद की आत्मा को ही ठग रहे हैं. 

5. एक दूसरी भी चीज़ यहाँ पर पता चलती है कि दुनिया ज्यादातर खराब चीजों को देखने में ही रसवाली है और उसका Propaganda बनानेवाली है. पर हमें खुद का कल्याण यदि पाना है, तो इस दुनिया में रहकर भी दुनिया से बाहर रहना होगा जिस तरह मुनिवर रहे और उसकी विचित्रताओं को सहना भी होगा. 

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