हमारे साधार्मिकों की ऐसी हालत?
पति-पत्नी और दो छोटे बच्चे-एक लड़का, एक लड़की, चार लोगों का परिवार शत्रुंजय गिरिराज की यात्रा करके नीचे उतर रहा था।
उतरते वक्त, समवसरण के बाद दोनों बच्चें जिद्द कर रहे थे, ‘पापा, पापा। हमें भेल खानी है, Please एक बार दिला दो ना।’ पिता ने जवाब दिया कि ‘नहीं, अभी भोजन का समय हो गया है, हम सीधा भोजन ही करेंगे।’
बच्चे तो बच्चे होते हैं, जिद्द छोड़ने को तैयार ही नहीं, वो बोले ‘पापा Please आज एक बार भेल खिला दो ना, सिर्फ एक बार।’
आश्चर्य की बात यह थी कि बच्चों की माँ भी साथ में ही थी, और कोई भी माँ अपने बच्चों की ऐसी छोटी सी जिद्द पूरी किए बिना रह नहीं सकती हमें भी पता है लेकिन फिर भी उसने अपने पति को ऐसा कुछ भी नहीं कहा।
‘बच्चों की इच्छा है, तो खाने दो ना, क्यों मना करते हो?’ ऐसा कुछ भी कहा नहीं लेकिन उस माँ की आँखों में से आंसू बहने लगे थे, पिता के चेहरे पर भी उदासी थी।
अब हुआ यह कि सूरत के एक धार्मिक श्रावक भाई उस वक्त उनके पीछे पीछे ही उतर रहे थे तो उन्होंने यह सब सुना और देखा। बच्चों की रोने जैसी शक्ल भी देखी, उस भाई को अजीब सा लगा।
करुणा के कारण रहा नहीं गया तो वह श्रावक भाई ने उस माँ-बाप से पूछ ही लिया ‘अरे भाई! बच्चे इतनी जिद्द करते हैं, तो भेल खिला दो ना, क्यों छोटे बच्चों को दुखी करना?
हो सकता है तीर्थ की पवित्रता और रक्षा के उद्देश्य से आप मना कर रहे हो तो थोड़ी दूरी पर जाकर इन्हें दिला दो ना।
वरना ऐसा ना हो कि इन्हें धर्म के प्रति, तीर्थ के प्रति अरुचि हो जाए, कोई बीच का रास्ता निकाल लो, लेकिन बच्चों को इतना दुखी नहीं करना चाहिए।
इनमें विवेक जगेगा तब खुद मना करेंगे कि हमें जयणा के बिना की वस्तु नहीं खानी।’ वह पिता चुप रहे कुछ भी नहीं बोले। नीचे देखकर चुपचाप चलने लगे।
वह श्रावक भाई फिर से बोले ‘भाई, आप सही ही हो, तीर्थ पर इस तरह की वस्तु नहीं खिलाना चाहिए लेकिन फिलहाल परिस्थिति देखकर ऐसा लगता है कि इतनी कट्टरता उचित नहीं है क्योंकि दोनों तो अभी बच्चें हैं।’
उस पिता से रहा नहीं गया तो दिल पर पत्थर रखकर स्पष्ट रूप से बोल दिया
भैया ! मैं भी जैन हूँ लेकिन ना तो मैं एक दम धार्मिक हूँ ना ही मैं कट्टर हूँ। मुझे इन्हें मना करने में मज़ा नहीं आ रहा है लेकिन भेल खिलाने के पैसे भी तो होने चाहिए ना।
अमीर लोगों के लिए ऐसे Extra खर्च करना आसान है, मेरे जैसे सामान्य इंसानों के लिए नहीं है, हम बहुत साधारण परिवार है।
वह श्रावक भाई ने थोडा परिचय पूछा। तो वह पिता ने कहा ‘हम अहमदाबाद में रहते हैं, कई वर्षों से इच्छा थी कि हमारे परम पवित्र शत्रुंजय तीर्थ की एकबार यात्रा कर ले,
ताकि हम भव्यजीव तो साबित हो जाए तो मरते समय इस बात का आनंद रहेगा कि हम में भी मोक्ष जाने की योग्यता है।
लेकिन संसार की ऐसी भागदौड़ है कि बाहर आना बहुत कठिन होता है। हर रोज़ की खाने-पीने की भी चिंता है, कल क्या खाएंगे वह ही पक्का नहीं है तो यात्रा करने के लिए तो कैसे निकले?
आखिर इस बार थोड़ी अनुकूलता हुई तो ST BUS में आए हैं, ST BUS में ही वापस जाएंगे।’ वह श्रावक भाई ने हाथ जोड़कर विनंती की ‘चलिए, हमें आपके साधर्मिक भक्ति का यानी भोजन का लाभ दीजिए।’
वह पिता ने कहा ‘नहीं नहीं, भोजन की व्यवस्था है।’ वह श्रावक भाई ने पूछा ‘आप कहाँ पर भोजन करेंगे?’
तो वह पिता ने कहा ‘सुना है कि ‘यहाँ पर गिरीविहार की भोजनशाला है, वहां पर सिर्फ एक रुपये में खाना खिलाते हैं, तो हम चारों वहां पर ही भोजन कर लेंगे। 4 रुपयें में तो हम चारों को भरपेट खाना मिल जाएगा।
ये बच्चें तो थोड़ी देर जिद्द करेंगे, 15-20 मिनट रोएंगे और फिर शांत हो जाएंगे। ये तो चलता है, ये भेल-वेल का खर्च करने की हमारी ताकत नहीं है।’
वह श्रावक भाई को यह शब्द सुनकर ह्रदय में एक झटका सा लगा, खुद के ऊपर धिक्कार महसूस हुआ।
‘मेरे साधर्मिक की ऐसी हालत और मैं चैन से रात में सो रहा हूँ, घूमने फिरने में पैसे उड़ा रहा हूँ, फालतू की चीज़ें इकट्ठा करने में, फैशन में, दिखावे में कितने पैसे बर्बाद कर दिए और उसमें मैंने सुख माना.. धिक्कार है मुझे।
इतने कपडे अलमारी में हैं फिर भी शौक पूरे करने के लिए नए-नए कपडें खरीदता गया। धत्त मैं कैसा जैन.. धिक्कार है मुझे।
हर बार पर्युषण आती है, पर्युषण में गुरु भगवंत व्याख्यान में साधर्मिक भक्ति पर व्याख्यान देते हैं। व्याख्यान सुना लेकिन समझा नहीं, उतारा नहीं, उस पर कुछ अमल किया नहीं धिक्कार है मुझे।’
अनंत सिद्धों की भूमि, शत्रुंजय तीर्थ पर एक एक कदम रखने का आनंद अलग ही होता है हम सब जानते हैं लेकिन आज यही सीढियां इस श्रावक भाई को काँटों की तरह चुभ रही थी।
एक एक कदम वह नीचे रख रहा था और मन में खुद के प्रति धिक्कार महसूस कर रहा था।
जो आदिनाथ भगवान की भक्ति मैं करता हूँ, वही आदिनाथ भगवान की भक्ति करनेवाले मेरे साधर्मिक की ऐसी स्थिति और मैं शांति से जी रहा हूँ? ये जीना भी कोई जीना है? क्या मैं सच में आदिनाथ भगवान का भक्त हूँ?
शत्रुंजय की भूमि और मन परिवर्तन ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। वह श्रावक भाई की आँखों से कब आंसू बहने लगे पता ही नहीं चला।
अंदर एक अलग प्रकार के भाव जगे – साधर्मिक भक्ति के भाव।
दरअसल यह श्रावक भाई ने ऐसी गरीबी, ऐसी मजबूरी का दृश्य अपने जीवन में पहले कभी भी नहीं देखा था।
वह भाई को इस बात की बहुत ख़ुशी थी कि ऐसी Condition में भी जीनेवाला यह परिवार, इतनी परेशानी में भी प्रभु पर श्रद्धावाला है, मोक्ष की इच्छा वाला है, अपने आप को भव्य जीव के रूप में देखने के लिए वर्षों से तड़प रहा है।
श्रावक समझदार था कि माँ-बाप ने बच्चों को आजतक भेल नहीं खिलाई है तो खुद भी लगभग कभी खाई नहीं होगी।
यह श्रावक भाई ने उस पिता के कंधे पर हाथ रखा और अपनेपन से कहा ‘देखो, आज आपकी भक्ति का लाभ मुझे दीजिए, तीर्थ की पवित्रता को देखते हुए हम थोड़ी दूरी पर जाते हैं।
लेकिन आज आप सबको मुझे भेल खिलानी है और आपके भोजन की व्यवस्था आज मैं करूँगा और आप मना नहीं करेंगे’
Couple ने मना कर दिया कि ‘हम तीर्थ भूमि पर आए हैं, कोई हालत में यहाँ पर भेल नहीं खाएंगे।’
वह श्रावक ने कहा ‘आप भेल नहीं खाएंगे चलेगा लेकिन इन बच्चों को मुझे दुखी नहीं ही करना है, इनको तो आज मैं खिलाऊंगा ही और आप मना मत करना।’
वह माता-पिता एक दूसरे को देखकर शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे।
श्रावक भाई ने तुरंत कहा ‘मैं आपकी कोई मदद नहीं कर रहा हूँ, मैं तो भक्ति कर रहा हूँ मुझे तो लाभ लेना है।’
वह Couple आगे कुछ भी नहीं बोला। उस मौन में सहमति थी, मजबूरी थी, बच्चों का प्यार था, बहुत कुछ था।
दोनों छोटे बच्चे एकदम ख़ुशी से यह श्रावक भाई की तरफ देखने लगे कि ‘आज ये Uncle हमें भेल दिलाएंगे।’
सभी नीचे उतरे। तीर्थ की पवित्रता भी रखनी है तो तीर्थ क्षेत्र से काफी दूर गए और वहां पर एक स्थान पर गए। वह पिता ने कहा ‘ठीक है भाई, आप इन दोनों को भेल खिला दो, तब तक हम बाहर खड़े रहते हैं।’
श्रावक ने समझाया ‘आप भले भेल मत खाना, लेकिन इन बच्चों के साथ नहीं बैठोगे तो बच्चे दुखी हो जाएंगे, मैं तो पराया हूँ। बच्चों को भेल प्यारी है लेकिन माता-पिता तो उससे हज़ार गुना प्यारे हैं।’
सब भेल की दुकान पर Bench पर बैठे। छोटे बच्चों को शुरू से लेकर अब तक की बातचीत में कुछ भी समझ आया नहीं क्योंकि उनकी Age बहुत कम थी।
तो माता-पिता ने अपने बच्चों को वह श्रावक भाई से परिचय करवाया ‘बेटा ये मेरे Friend है और आपके Uncle है।’ बच्चों ने कहा कि ‘पापा.. पापा.. ये Uncle बहुत अच्छे हैं।’
वह श्रावक भाई ने बच्चों को पेट भरकर भेल खिलवाई और गन्ने का रस भी पिलाया। दोनों बच्चें बहुत खुश हुए। फिर वह भाई उन्हें भोजनशाला लेकर गए और उस Couple को व्यवस्थित भोजन करवाया।
Couple की आँखों में आंसू देखें तो श्रावक भाई ने कहा ‘आप दोनों को क्या हुआ? क्यों रो रहे हो?’
तो उस पिता ने कहा कि ‘हमें बहुत ख़ुशी हुई बच्चों को मनपसंद चीज़ खाने को मिल गई, बच्चे खुश तो हम बहुत खुश।
लेकिन दूसरी तरफ यह दुःख भी कि कर्म का कैसा उदय कि हम हमारे बच्चों की छोटी-छोटी इच्छाएं भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं, हम कैसे माँ-बाप है?
एक अनजान श्रावक भाई हमारे बच्चों की इच्छा पूरी करते हैं और हमें उसमें मजबूरी में हाँ कहना पड़ता है।’
वह श्रावक भाई ने फिर से उस पिता के कंधे पर हाथ रखा और कहा ‘आपके भगवान और मेरे भगवान दोनों एक ही है?’
पिता ने ‘हां, हैं।’ कहा। ‘तो फिर हम अनजान कैसे हुए? हम दोनों तो भाई हुए, हम दोनों साधर्मिक हुए। इसलिए ऐसा नहीं सोचना है।’ श्रावक भाई ने उन्हें प्रेम से कहा।
अंत में उस Couple ने यह श्रावक भाई का आभार माना और एक दुसरे को प्रणाम किया और दोनों ने विदाई ली।
इसके आगे की घटना हमें नहीं पता है लेकिन शायद वह श्रावक भाई ने Contact Details ली होगी और आगे की ऐसी कोई व्यवस्था की होगी जिससे इस Couple को किसी के आगे हाथ फैलाने ना पड़े।
शायद अपनी Link से कोई अच्छी जगह पर काम ढूंढकर दिलवाया होगा ताकि वे स्वाभिमान का जीवन जी पाए। जो भी हुआ हो लेकिन यह घटना झकझोर देनेवाली है और जगाने वाली है।
कई बार ऐसी घटनाएं सुनकर हम मदद के लिए जाग जाते हैं ‘भाई इनका Contact Number दो हम इनकी भक्ति करते हैं, इनकी Help करना चाहते हैं।’
बस यही भक्ति की, Help की Feeling हमारे आस-पास में रह रहे आर्थिक रूप से कमज़ोर साधर्मिक परिवारों के लिए लानी है। हो सकता है यह घटना काफी समय पहले की हो लेकिन समय आज भी ऐसा का ऐसा है।
हो सकता है हमारे ही शहर में, गाँव में, संघ में ऐसे ही माँ-बाप, ऐसा कोई परिवार रह रहा हो और हमें पता भी ना हो।
अब प्रश्न हमारे लिए हैं कि आज जो सबसे ज्यादा Important क्षेत्र है – साधर्मिक भक्ति का क्षेत्र!
क्या उस पर हम Focus करना चाहते हैं? क्या इसके लिए हम कोई Long Term Solutions ढूंढना चाहते हैं?
या फिर हम इसी नींद में सोते रहना चाहते हैं कि सब जैन तो अमीर ही होते हैं।