Inspiring Story Of Girnari Neminath Bhagwan’s 5th Bhav

22वे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवन की रहस्यमय कथा.

Jain Media
By Jain Media 270 Views 13 Min Read
Highlights
  • नेमिनाथ दादा के सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद 09 भव हुए.
  • 05वे भव में नेमिनाथ दादा की आत्मा राजकुमार अपराजित बनी और राजुल माता की आत्मा राजकुमारी रत्नमाला बनी थी.
  • एक सामान्य आत्मा और एक तीर्थंकर की आत्मा में क्या फर्क होता है वह इस कथा के माध्यम से पता चलता है.

जिनका नाम लेते ही आपत्ति आशीष रूप बन जाती है, जिनका नाम लेते ही अनंता अनंत कर्मों का नाश होता है, जिनके नाम मात्र से चेहरे पर मुस्कान आ जाती है, जिनका नाम लेते ही अनेक भक्तों का दिल जोर से धड़कने लगता है, ऐसे हम सभी को प्राणों से भी प्यारे, तीन लोक के नाथ, गिरनार मंडन, शिवा देवी नंदन, राजुल ना तारणहार, 22वे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान की एक अद्भुत एवं रहस्यमय घटना आज हम जानेंगे. 

बने रहीए इस Article के अंत तक.

राजकुमार और विद्याधर के बिच युद्ध

नेमिनाथ दादा के सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद 09 भव हुए. आज हम उनके 5वें भव को जानने और समझने का प्रयास करेंगे कि नेमिनाथ दादा की आत्मा में, एक तीर्थंकर आत्मा में वीरता के साथ-साथ करुणा किस प्रकार मिश्रित थी.

भरत क्षेत्र के जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह के सिंहपुर नगर में राजा हरीनंदी राज्य करते थे. उनकी पटरानी का नाम प्रियदर्शना था और उनका एक पुत्र था जिसका नाम अपराजित था. यह राजकुमार अपराजित और कोई नहीं बल्कि हमारे प्यारे नेमिनाथ दादा का ही जीव था, यानी नेमिनाथ दादा का पांचवा भव. इस भव में एक और व्यक्ति जुड़ता है और वो है मंत्रीपुत्र विमलबोध जो कि राजकुमार अपराजित के समान उम्रवाला होने से उनका अंतरंग मित्र यानी Bestfriend बन गया था.

राजकुमार अपराजित, भावी तीर्थंकर की आत्मा थे, अतः उनके लिए पराक्रम और पुण्य राह ही देख रहे थे. एक दिन राजकुमार और मंत्रीपुत्र दोनों ने रात में एक जंगल में प्रवेश किया और वहीं थोड़ी दूर पर एक देवी के मंदिर से एक स्त्री की करुण पुकार सुनाई दी ‘यह पृथ्वी निर्पुरुष हुई है!’ अपराजित और विमलबोध को लगा कि ‘शायद कोई स्त्री संकट में है इसलिए इस तरह से विलाप कर रही है, हमें तुरंत उसे बचाने हेतु जाना चाहिए.’ 

दोनों देवी के मंदिर में पहुंचे और उन्होंने देखा कि वहां पर अग्नि प्रज्वलित थी. उसके पास एक स्त्री विलाप कर रही थी कि ‘यदि कोई पुरुष है तो मुझे इस अधम विद्याधर से बचाए!’ वहीं पास में एक विद्याधर तीक्ष्ण शस्त्र यानी Weapon हाथ में लिए खड़ा था. राजकुमार अपराजित ने यह दृश्य देखकर उस विद्याधर को ललकारा कि ‘इस अबला स्त्री पर शस्त्र चलाने में कोई मर्दानगी नहीं, आपको मर्दानगी का गर्व हो तो मेरे साथ युद्ध करो!’ 

विद्याधर ने राजकुमार की चुनौती स्वीकार की और भयंकर युद्ध शुरू हुआ. सत्य-असत्य की लड़ाई में जिस तरह हर बार अंत में सत्य की ही जीत होती है, उसी तरह यहाँ पर भी न्याय के पक्ष से युद्ध कर रहे राजकुमार अपराजित की जीत हुई. राजकुमार के प्रहार से वह विद्याधर बेहोश हो गया. 

यहाँ तक तो सब ठीक और सामान्य ही था लेकिन इसके बाद जो होता है उससे पता चलता है कि एक सामान्य आत्मा में और एक तीर्थंकर की आत्मा में क्या फर्क होता है!

करुणानिधान राजकुमार अपराजित

राजकुमार अपराजित सज्जन शिरोमणि थे, वैरभाव से मुक्त थे. जिस Situation में जो Role निभाना उचित हो, वह निभा लिया लेकिन Situation या घटना पूरी होने के बाद उसका भार सर पर या ह्रदय में नहीं रखा. मान लो कि लहर उठी, शांत हुई और फिर से पानी स्थिर! सरल भाषा में कहे तो न्याय के पक्ष से युद्ध किया लेकिन युद्ध के बाद विरोधी पक्ष से किसी भी तरह का वैरभाव नहीं रखा.

विद्याधर को बेहोश हो गया है यह देखकर राजकुमार अपराजित ने विजय का आनंद या अहंकार व्यक्त करने के बदले उसे फिर से भान में लाने का, यानी उसे होश में लाने की कोशिश की. ‘युद्ध था लड़ लिया, अब व्यक्ति बेहोश है, पीड़ा में है तो अब मेरी भूमिका उसे पीड़ा से मुक्त करने की होनी चाहिए.’ इस तरह की सोच रखते थे राजकुमार अपराजित! देखने जाए तो यह सोच हमारी कल्पना से बाहर की है. 

राजकुमार अपराजित के प्रयत्न से विद्याधर होश में आया. राजकुमार ने कहा कि ‘पराक्रमी व्यक्ति कभी भूल से पराजित हो जाता है, इसका मतलब ये नहीं कि उसका पराक्रम कम हो गया. हो सकता है कि मैंने मेरे भाग्य से एक बार विजय प्राप्त की हो, इसलिए आप पुनः युद्ध के लिए तैयार हो जाइए, आपको एक और मौका तो मिलना ही चाहिए.’

युद्ध किया, विपक्षी को हराया, सामने वाला बेहोश हो गया, फिर से जगाकर कह रहे हैं कि ‘युद्ध करना चाहते हो तो एक बार फिर कोशिश करो.’ सामान्य आत्मा तो मौका देखकर चौका मारने का ही प्रयत्न करता, बेहोशी की हालत में हत्या भी की जा सकती थी, लेकिन यह तो तीर्थंकर की आत्मा थी. विद्याधर भी खानदानी था, मोहनीय कर्म के आवेश से भले ही उसने गलत कदम उठाया था लेकिन जीव उत्तम था. 

उसने कहा कि ‘आपने मुझे पराजित कर अच्छा किया, मैं स्त्री हत्या के पाप से और उससे होने वाली नरक गति से बच सका. मैंने खानदानी कुल में जन्म लेकर भी ऐसा घटिया कार्य किया इसके लिए अब मुझे बहुत पश्चाताप हो रहा है, लेकिन इस निमित्त से आप जैसे महापुरुष के दर्शन हुए इस बात का आनंद है.’ 

राजकुमारी रत्नमाला का परिचय

अपराजित सोचते हैं कि ‘यह विद्याधर मोहनीय कर्म की निद्रा में था, थोड़ी गहरी नींद थी, इसलिए युद्ध रुपी कई प्रयत्न के बाद नींद उडी, लेकिन उड़ी ज़रूर, इसीलिए अपने गलत कार्य के प्रति अफ़सोस हो रहा है.’ फिर विद्याधर ने कहा कि ‘मेरे कपडे के सिरे में यानी Corner में एक मणि और मूलिका यानी वनस्पति का मूल रहा हुआ है, आप मणि पर पानी का अभिषेक करो और उस पानी में फिर मूल को घिसकर मेरे घाव पर लगाओ.’

राजकुमार अपराजित ने ऐसा किया तो विद्याधर के घाव तुरंत ठीक हो गए. स्वस्थ होकर विद्याधर ने कहा कि ‘मैं श्रीषेण विद्याधर का सूरकांत नामक पुत्र हूँ. यह स्त्री रथनुपुर नगर के राजा अमृतसेन की पुत्री रत्नमाला है. उस राजा को किसी ज्ञानी को इस राजकुमारी के वर यानी पति के विषय में पूछा तो ज्ञानी ने बताया था कि हरिनंदी राजा के पुत्र अपराजित राजकुमार इसके पति होंगे. 

इसीलिए यह राजकुमारी उस राजकुमार अपराजित के प्रति अत्यंत अनुराग वाली हो गई. किसी और को पति के रूप में सोचने के लिए भी तैयार नहीं थी. एक बार मैंने इसको देखा तो इसके रूप से आकर्षित होकर विवाह की बात कही. तब राजकुमारी ने कहा कि ‘ज्ञानी ने मेरे पति के रूप में हरिनंदी राजा के पुत्र की बात कही है, इसलिए मैं उन्हीं से विवाह करुँगी, नहीं तो अग्नि में जलकर मर जाउंगी, लेकिन दुसरे किसी को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं करुँगी.’

यह राजकुमरी रत्नमाला और कोई नहीं बल्कि राजुल माता की ही आत्मा थी! 

विद्याधर ने आगे कहा कि ‘कभी भी ना नहीं सुनने की आदत वाला मैं, इस प्रकार ना या इनकार की बात सुन ना सका. मैंने विविध उपायों से विद्या का भय दिखाया, अनेक प्रलोभन दिए लेकिन यह राजकुमारी नहीं मानी. इसलिए क्रोधित होकर इसे यहाँ उठाकर ले आया और तय किया कि अंतिम प्रयास के बाद भी यदि नहीं मानी तो इसके टुकड़े टुकड़े कर इसी अग्नि में होम दूंगा. यह तो मानी नहीं लेकिन आपने समय पर आकर उसे मरने से और मुझे दुर्गति में जाने से बचाया. इस प्रकार आपने हम दोनों पर उपकार किया है.’

यहाँ पर एक Important Analysis समझने जैसा है कि शास्त्र में कहा गया है कि काम से यानी वासना या वासना के भाव से क्रोध प्रकट होता है. यदि एक पक्ष के वासनामय प्रेम को दूसरा पक्ष स्वीकार नहीं करता है तब वह प्रेमांध व्यक्ति आवेश में आकर या तो खून करता है या तो गला घोटता है या तो Acid डालता है या फिर ज़बरदस्ती दुष्कर्म पर उतर आते हैं. 

इसके पीछे का गणित ये है कि ‘अगर तुम मेरी नहीं हुई तो किसी और की भी नहीं होनी चाहिए, अस्वीकार करने वाली प्रेमिका ज़िन्दगी भर दुखी होनी चाहिए या तो जीवित ही नहीं रहनी चाहिए.’ ऐसी क्रूर निर्दय मनो भूमिका एकपक्षीय प्रेमी की होती है. ‘मुझे जो चाहिए वह मुझे मिलना ही चाहिए’ ऐसी मनोभूमिका वाले किसी भी हद तक नीचे उतर जाते हैं.

अपराजित और रत्नमाला का विवाह

विद्याधर ने आगे कहा ‘मैंने अपना परिचय दे दिया अब आप बताइए आप कौन हैं?’ पास में खड़े मंत्रीपुत्र विमलबोध ने राजकुमार अपराजित का पूरा परिचय दिया. राजकुमारी रत्नमाला भी सब कुछ सुन रही थी. विमलबोध ने कहा कि ‘यही है राजा हरिनंदी के पुत्र अपराजित कुमार!’ राजकुमारी रत्नमाला तो अचानक इस प्रकार प्रियतम के मिलन से खुश-खुशाल हो गयी. 

उसे लगा कि ‘मेरे लिए तो आपत्ति भी संपत्ति रूप बन गई और मेरे भाग्य जाग उठा कि ऐसे मरणांत आपत्ति में से बचाने वाले मेरे भावी पति ही है. कोई और बचाता तो ना जाने क्या होता. वास्तव में कुदरत भी सत्त्वशाली और सतियों के पक्ष में रहती है और उनकी भावना, उनकी आबरू उनकी इच्छाओं का अनुरक्षण करती है.’

रत्नमाला ऐसा सोच रही थी तभी पुत्री के अपहरण से शोकग्रस्त बने हुए ‘पुत्री कहा हो? पुत्री रत्नमाला कहा हो?’ ऐसी पुकार के साथ आँखों में आंसू लिए रत्नमाला की माता कीर्तिमती और पिता अमृतसेन वहां पर आए. पुत्री के प्राणों और शील सुरक्षित जानकर आनंदित हुए और पुत्री के भावी पति ने ही पुत्री की रक्षा की है यह जानकर अति आनंदित हुए. दोनों ने वहीं पर राजकुमारी रत्नमाला का राजकुमार अपराजित के साथ विवाह किया और उदारदिल अपराजित की सलाह से सूरकांत विद्याधर को अभयदान भी दिया.

कुछ इस तरह से पांचवे भव में नेमिनाथ दादा और राजुल माता का मिलन हुआ था.

हमने नेमिनाथ दादा की कथाएं पढ़ी होगी लेकिन उनका एक एक प्रसंग दिमाग में ना बैठे ऐसे अद्भुत Analysis के साथ “नेमी निरंजन” नामक नेमिनाथ दादा के जीवन चरित्र को दर्शाती हुई अद्भुत पुस्तक से यह एक प्रसंग हम सभी ने जाना.

पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय श्री अजितशेखर सूरीश्वरजी महाराज साहेब ने नेमिनाथ दादा के 9 भवों को एक से एक Analysis के साथ, वर्तमान में घट रही घटनाओं के साथ जोड़कर, तुलना कर यह पुस्तक हम सभी के लिए लिखी है. अभी हमने इस Article में भी जो Analysis या Comparison जाना वो भी इसी पुस्तक से लिया गया है.

22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ दादा का संपूर्ण जीवन, उनकी रहस्यमय घटनाएं एक नए अंदाज़ के साथ, एक अनोखे Analysis के साथ जानने के लिए, पढ़ने के लिए, समझने के लिए, अनुभव करने के लिए “नेमी निरंजन” नामक इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं.

यह अद्भुत पुस्तक हिंदी और गुजराती भाषा में उपलब्ध है.

Arham Parivar के Mobile App को Install करके, वहां से यह पुस्तक प्राप्त की जा सकती है और अधिक जानकारी के लिए या इस पुस्तक को प्राप्त करने के लिए निचे दिए गए Mobile Number पर भी संपर्क कर सकते हैं.

Deepak Bhai – 7718898000

Share This Article
Leave a comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *