Life Story of Shri Parshwanath Bhagwan: The 23rd Tirthankara of Jainism

23वे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान की जीवन कथा.

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Highlights
  • आज से लगभग 2972 साल पहले पोष महीने की वदि 10 के दिन वाराणसी नगरी के महाराजा अश्वसेन की महाराणी वामादेवी की कुक्षी से तीन लोक के नाथ, आदेय नामकर्म के धनी श्री पार्श्वनाथ भगवान का जन्म हुआ था.
  • पूर्व भव के वैर के कारण मेघमाली देव ने पार्श्वनाथ प्रभु पर घोर उपसर्ग किया लेकिन प्रभु निश्चल रहे, मेरु की तरह अडिग रहे. प्रभु को क्षण भर के लिए भी क्रोध नहीं आया बल्कि वे मध्यस्थ भाव से साधना में लीन रहे.
  • 100 वर्ष का आयुष्य पूर्णकर, अपने सभी कर्मों का क्षय होने पर चौविहार मासक्षमण का तप करते हुए, श्रावण महीने की सुदि 08 के दिन श्री सम्मेतशिखरजी पर्वत से पार्श्वनाथ प्रभु मोक्ष में पधारे!

जिनका नाम पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा लिया जाता है, जिन पर लोगों की अटूट श्रद्धा है और जिनकी महिमा अवर्णनीय है, जिन्हें लोग पुरुषादानिय यानी उत्तम पुरुष कहते हैं और भारत भर में शायद जिनके सबसे ज्यादा तीर्थ है, सबसे ज्यादा मंदिर है, ऐसे तीन लोक के नाथ, धरणेंद्र पद्मावती द्वारा पूजित, कलिकाल कल्पतरु, शंखेश्वर मंडन, 23वे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान के जीवन के बारे में हम इस Article के माध्यम से जानेंगे.

बने रहिए इस Article के अंत तक. 

पार्श्वनाथ भगवान का जन्म और च्यवन  

पार्श्वनाथ दादा ग्रीष्म ऋतू यानी Winter Season के पहले महीने के प्रथम पक्ष में यानी चैत्र वदि 04 के दिन मध्यरात्रि यानी Midnight में जब विशाखा नक्षत्र के साथ चंद्र का योग हुआ था यानी कि चंद्र जब विशाखा नक्षत्र में था, तब प्राणत नाम के 10वे देवलोक में से बीस सागरोपम के आयु को पूर्ण करके श्री पार्श्वनाथ भगवान का च्यवन हुआ था यानी अपनी माता के गर्भ में प्रवेश हुआ था. प्रभु का च्यवन कल्याणक आज के बनारस यानी वाराणसी नगरी में हुआ था. 

लगभग 2972 साल पहले पोष महीने की वदि 10 के दिन मध्यरात्रि में विशाखा नक्षत्र के साथ चंद्र का योग होने पर और 9 महीने और 7 दिन का गर्भ काल पूर्ण होने पर वाराणसी नगरी के महाराजा अश्वसेन की महाराणी वामादेवी ने तीन लोक के नाथ, आदेय नामकर्म के धनी श्री पार्श्वनाथ भगवान को जन्म दिया. हर तीर्थंकर परमात्मा की तरह श्री पार्श्वनाथ भगवान भी जन्म से मति-श्रुत और अवधिज्ञान के स्वामी थे. प्रभु के जन्म के साथ ही तीनों लोकों में दिव्य प्रकाश फैल गया. हर जीव ने सुख का अनुभव किया. यहाँ तक की नरक गति के जीवों को भी क्षणभर के लिए सुख का अनुभव हुआ. 

प्रभु के जन्म के बाद 56 दिक्ककुमारियों द्वारा प्रभु का सूतीकर्म किया गया और उसके बाद 64 इन्द्रों द्वारा प्रभु का मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक किया गया. महाराजा अश्वसेन ने भी प्रभु का भव्य जन्म महोत्सव मनाया.    

जब पार्श्ववनाथ भगवान वामा माता के गर्भ में थे, तब माता ने एक बार रात्री के समय में एक काले नाग को अपने पास से जाते हुए देखा था और इस कारण से ही भगवान का नाम पार्श्वकुमार रखा गया. पार्श्वनाथ प्रभु जब यौवन वय में आए तब अपने भोगावली कर्मों को खपाने के लिए प्रभु ने कुशस्थल के राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ विवाह किया था. 

कमठ तापस का पंचाग्नि तप 

एक बार पार्श्वनाथ प्रभु महल के झरोखे यानी Window से नगर को देख रहे थे. तब प्रभु ने सभी नगरजनों को पूजा की सामग्री हाथ में लेकर गाँव के बाहर जाते हुए देखा. यह देखकर पार्श्वनाथ भगवान को जिज्ञासा हुई कि ‘आखिर इतने सारे लोग एक साथ कहां जा रहे हैं?’ प्रभु ने किसी से पूछा कि ‘सभी नगरजन कहां जा रहे हैं?’ तब प्रभु को पता चला कि नगर के बाहर उद्यान में यानी Garden में कमठ नामक एक तापस आया है जो पंचाग्नि तप कर रहा है और सभी नगरजन उस तापस की पूजा करने के लिए नगर के बाहर जा रहे हैं. 

कमठ शुरुआत में एक दरिद्री अनाथ था. कुछ लोगों ने उस पर दया करके उसका पालन पोषण करके उसे बड़ा किया. नगर के अन्य लोगों को सजेधजे देखकर कमठ को एक बार विचार आया कि ‘पूर्व भव में इन लोगों द्वारा की हुई तप साधना के प्रभाव से इन लोगों को आज यह समृद्धि प्राप्त हुई है, तो क्यों ना मैं भी यह तप करूँ.’ इस इच्छा से प्रेरित होकर कमठ ने तापस का वेष धारण किया और पंचाग्नि तप की शुरुआत की और वह महातपस्वी कमठ के नाम से प्रसिद्द हो गया.

पंचाग्नि तप यानी क्या? 

पंचाग्नि तप यानी ऊपर सूर्य की अग्नि यानी Fire और चारों बाजुओं से लकड़ों को जलाने के कारण अग्नि. इस तरह से कुल पांच दिशाओं यानी Directions में जो अग्नि है उसके बीच में साधक खड़ा रहकर उस गर्मी को सहन करता है और ऐसी सब चीज़ों को देखकर जैसे हमें Circus में मज़ा आता है, वैसे वाराणसी के नगरजनों को मज़ा आता था और इसलिए वे सभी उस कमठ तापस की पूजा करने लगे. 

धरणेंद्र पद्मावती की उत्पत्ति 

पार्श्वनाथ भगवान भी अपने परिवार के साथ उस उद्यान में पहुंचे. प्रभु ने अपने ज्ञान से जाना कि कमठ जिन लकड़ियों को जलाकर अग्नि प्रज्वलित कर रहा था उसमे से एक लकड़ी के काष्ठ में यानी Log में एक नाग नागिन का जोड़ा फसा हुआ जल रहा था. यह जानकार प्रभु ने कमठ से कहा कि ‘हे तपस्वी! दयाहीन तप क्यों कर रहे हो? दया नाम की नदी के किनारे समस्त धर्म की तृण यानी घास और अंकुरों की उपज होती है. अगर दया रुपी नदी ही सूख जाएगी तो धर्म का अंकुर भी ज्यादा समय जी नहीं सकता क्योंकि उसे दया नाम का पानी नहीं मिलेगा. समस्त धर्म में दया ही मुख्य है.’ 

अच्छी सीख बहुत कम लोगों को सूझती है और समझ आती है और यही कमठ के साथ भी हुआ. जब भी व्यक्ति आगे बढ़ने की कोशिश करता है तब उसका मान यानी Ego उसे अटका देता है, अभिमान उसे लटका देता है. अभिमान एक ऐसा भूत है जो साए की तरह हमारे साथ ही रहता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम कहां फंस गए हैं. यही चीज़ कमठ के साथ भी हुई. 

प्रभु के वचनों को सुनकर कमठ क्रोधित यानी गुस्सा हो गया और उसने प्रभु से कहा कि ‘हे राजकुमार! हाथी-घोड़े दौड़ाना तुम जानते होगे लेकिन धर्म तो हम ही जानते हैं.’ इस प्रकार अपनी भूल स्वीकार करने के बजाय, कमठ ने वाद विवाद करना शुरू कर दिया. लेकिन जब जब धर्म की रक्षा का प्रश्न आता है तब सच्चाई को बाहर लाना वो हर एक सज्जन व्यक्ति का कर्तव्य है और पार्श्वनाथ भगवान ने भी यही सोचा.

उस समय प्रभु पार्श्वनाथ ने एक सेवक के द्वारा अग्नि से लकड़ी को निकलवाया और उसे तुडवाया. सभी के आश्चर्य के बिच उस लकड़ी में से आधा जला हुआ नाग नागिन का जोड़ा बाहर निकला. प्रभु ने उस नाग नागिन का अंतिम समय जानकार उन्हें नवकार मंत्र सुनया और खुद की बहती हुई अमाप करुणाधारा के द्वारा प्रभु ने उन जीवों को सांत्वना देकर समाधि मरण दिया. वह नाग-नागिन समाधि पूर्वक मृत्यु को प्राप्त करके, नवकार महामंत्र के प्रभाव से वह नाग-नागिन का जोड़ा धरणेंद्र देव और पद्मावती देवी बने.

प्रभु ने तो अपनी करुणाधारा बहा दी लेकिन इस ओर कमठ तापस का अभिमान चूर चूर हो गया और लोगों की नजर में भी कमठ नीच साबित हुआ. लोगों की हंसी तथा उपहास को सहते हुए कमठ जंगल में विविध प्रकार के तप आदि करके, अंत में अनशन करके मेघकुमार नाम की जाति का मेघमाली देव बना. 

पार्श्वनाथ प्रभु की दीक्षा 

पार्श्वनाथ भगवान अपने गृहस्थ जीवन में दक्ष थे, दृढ़ प्रतिज्ञावाले थे, विनय-भद्रिकता आदि गुणों से युक्त थे. पार्श्वनाथ प्रभु 30 वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे और उसके बाद उन्होंने संयम जीवन अंगीकार किया यानी दीक्षा ली. एक बार पार्श्वनाथ भगवान बगीचे में गए. वहां उन्हें 22वे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान की राजिमती से विवाह के लिए निकलती हुई और आधे रस्ते से पुनः लौटनेवाली बारात का दृश्य देखकर वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ. यही दृश्य उन्होंने अपनी अर्धांगिनी प्रभावती रानी को दिखाकर, स्वयं की दीक्षा लेने की भावना बताई. 

दीक्षा के 01 वर्ष पहले नव लोकांतिक देवों ने आकर प्रभु को धर्मतीर्थ के प्रवर्तन के लिए विनंती की. उसके बाद प्रभु ने 01 वर्ष तक सांवत्सरिक दान यानी वर्षिदान दिया. 01 वर्ष पूर्ण होने पर शरद ऋतू यानी Winter Season के तीसरे पक्ष यानी पौष वदि 11 के दिन विशाला नाम की शिविका में बैठकर आश्रमपद उद्यान में आए. वहां पर अशोक वृक्ष के निचे वस्त्र, अलंकार यानी गहने आदि का त्याग करके प्रभु ने पंचमुष्टि लोच किया. उस समय प्रभु को चौविहार अट्ठम का तप था. चौविहार अट्ठम यानी तीन दिन तक बिना भोजन और पानी का उपवास. 

उस समय विशाखा नक्षत्र में चंद्र का योग होने पर इंद्र महाराजा द्वारा दिए गए देवदुष्य को ग्रहण करके, संसार का त्याग करके श्री पार्श्वनाथ भगवान ने अन्य 300 व्यक्तियों के साथ भागवती दीक्षा स्वीकार की. दीक्षा के साथ ही प्रभु को चौथा मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ. दीक्षा के बाद प्रभु ने मौन धारण किया और अपने चरणकमलों से पृथ्वीतल को पावन करते हुए साधना में लीन हो गए और उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करने लगे. 

पार्श्वनाथ भगवान को अपने जीवनकाल में प्रभु वीर की तरह बहुत उपसर्ग तो नहीं आए लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वैर के बीज जब उगते हैं, जब वटवृक्ष बनते हैं तो उनका विपाक यानी उनका फल अच्छे अच्छों को सहन करना पड़ता है, फिर चाहे सामने स्वयं प्रभु ही क्यों ना हो. पार्श्वनाथ भगवान को कमठ तापस जो मेघमाली देव बन चुका था, उसके द्वारा ही उपसर्ग आया था.  

मेघमाली का उपसर्ग 

एक बार पार्श्वनाथ प्रभु विहार करते हुए एक तापस के आश्रम में पहुंचे और रात्रि के समय में वहां एक कुए के पास वटवृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में लीन थे. उस समय कमठ तापस का जीव जो मेघमाली बना था उसे अपने पूर्वभव का अपमान याद आया और वह क्रोध के कारण लाल पीला हो गया और तापस के आश्रम में जहाँ प्रभु थे वहां आ गया. 

उसने अपनी दिव्य शक्ति से शेर, बाघ, बिच्छु आदि के रूप से प्रभु को डराने का प्रयास किया लेकिन भगवान को अविचल और निर्भय देखकर उसने प्रचंड बादलों का निर्माण किया, कल्पांतकाल यानी कि जब कलिकाल, बुरा काल पूर्ण होता है, जैसे पांचवे आरे के अंत में ख़राब बरसात होती है उसी तरह उसने बरसात बरसानी शुरू की. भयंकर बादलों की आवाज गरजने लगी, गडगडाते हुए बादलों से बिजलियाँ कड़कने लगी. 

बहुत ही कम समय में बारिश के पानी का Level इतना बढ़ गया कि प्रभु की नासिका यानी नाक तक पहुँच गया था, पर किसी पर किया हुआ उपकार आज नहीं तो कल काम आता ही है. उसी समय देवलोक में रहे धरणेंद्र देव का आसन हिलने लगा. ये वहीं धरणेंद्र देव हैं जो नाग के रूप में पंचाग्नि में जल गए थे और जिसे पार्श्वनाथ प्रभु ने समाधि मरण दिया था. धरणेंद्र देव ने अपने ज्ञान से जाना कि पार्श्व प्रभु पर उपसर्ग हो रहे हैं और वे तुरंत अपनी पट्टरानी पद्मावती देवी के साथ भगवान के पास आ गए.

धरणेंद्र देव ने भगवान के पैरों के निचे कमल बनाकर भगवान को जल की सतह से ऊँचा कर दिया और अपने फणों को फैलाकर भगवान के मस्तक के ऊपर छत्र बना दिया. यह सब देखकर मेघमाली हडबडा सा गया और धरणेंद्र देव ने क्रोधित होकर सख्त शब्दों में मेघमाली को फटकार लगाई. मेघमाली का ह्रदय भय से कांपने लगा और वह पार्श्वनाथ प्रभु के शरण में आ गया. मेघमाली ने प्रभु को वंदन किया और अपनी भूल के लिए क्षमायाचना करके वह वापस अपने स्थान पर चला गया. 

धरणेंद्र देव ने पार्श्वनाथ प्रभु की भक्ति की लेकिन पार्श्वनाथ भगवान तो मध्यस्थ थे. वे कमठ के उपसर्ग से दुखी भी नहीं हुए और धरणेंद्र देव की भक्ति से खुश भी नहीं हुए. इसलिए ही तो कहा गया है कि 

“कमठे धरणेन्द्रेच स्वोचितं कर्म कुर्वति ||
प्रभुस्तुल्य: मनोवृत्ति: पार्श्वनाथ: श्रिये स्तुव: ||”

अर्थात कमठ और धरणेंद्र देव ने खुद की उचित क्रिया करने पर भी जो भगवान मध्यस्थ रहे, वैसे पार्श्वनाथ भगवान हमारे कल्याण के लिए हो, बस यही प्रार्थना है. 

पार्श्वनाथ प्रभु का केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक

दीक्षा के बाद इर्यासमिति आदि के पालन द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए और उग्र साधना करते हुए प्रभु को 83 दिन पूर्ण हुए और 84वे दिन वाराणसी नगरी में Winter Season के पहले महीने के प्रथम पक्ष में यानी चैत्र वदि 04 के दिन पूर्वान्हकाल में धातकी नामक पेड़ के निचे प्रभु ध्यान कर रहे थे. उस समय प्रभु को चौविहार छट्ठ का तप था. (चौविहार छट्ठ यानी बिना भोजन और पानी के एक साथ 2 उपवास.) 

उस समय विशाखा नक्षत्र के साथ चंद्र का योग होने पर वामा नंदन श्री पार्श्वनाथ प्रभु को लोकालोक प्रकाशक ऐसे पांचवे ज्ञान यानी केवलज्ञान की प्राप्ति हुई. केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद देवों द्वारा समवसरण की रचना की गई और पार्श्वनाथ प्रभु द्वारा शासन की स्थापना की गई. 

पार्श्वनाथ प्रभु 30 वर्ष तक गृहस्थ जीवन में, 83 दिन छद्मस्थ अवस्था (दीक्षा के बाद केवलज्ञान होने तक के समय को छद्मस्थ अवस्था कहते हैं) में और 70 वर्ष से कुछ कम समय तक केवली अवस्था में रहे. 

इस प्रकार कुल 70 वर्ष का श्रमण (साधु) पर्याय तथा 100 वर्ष का आयुष्य पूर्णकर, अपने सभी कर्मों का क्षय होने पर चौविहार मासक्षमण का तप करते हुए (1 महीने तक यानी 30 दिन तक संलग्न उपवास यानी मासक्षमण और चौविहार मासक्षमण यानी 30 दिन तक Continuously बिना भोजन और पानी के उपवास करना), इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे का बहुत समय बीत जाने पर वर्षाकाल यानी Rainy Season के पहले महीने के दुसरे पक्ष यानी श्रावण महीने की सुदि 08 के दिन श्री सम्मेतशिखरजी पर्वत पर 33 साधुओं के साथ कायोत्सर्ग मुद्रा में श्री पार्श्वनाथ प्रभु सिद्ध-बुद्ध मुक्त होकर मोक्ष में पधारे!

पार्श्वनाथ प्रभु के निर्वाण के 250 साल पूर्ण होने पर 24वे तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी भगवान का निर्वाण यानी मोक्ष हुआ. 

पार्श्वनाथ प्रभु का परिवार

पार्श्वनाथ प्रभु के 8 गण और 8 गणधर थे. (एक वाचनावाले साधु समुदाय को गण कहा जाता है और उस गण के नायक को गणधर कहा जाता है.) प्रभु के 8 गणधरों के नाम शुभ, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यशस्वी थे. आर्यदिन्न आदि 16 हजार साधु, पुष्पचूला आदि 38 हजार साध्वीजी, सुव्रत आदि 1 लाख 64 हजार श्रावक और 3 लाख 27 हजार श्राविकाओं की संपदा प्रभु के परिवार में थी जिनमें से 350 चौदहपूर्वी, 1400 अवधिज्ञानी, 1000 केवलज्ञानी, 1100 वैक्रिय लब्धिधारी साधु और 600 मनःपर्यव ज्ञानी थे.

पार्श्वनाथ प्रभु के 1000 साधु और 2000 साध्वीजी मोक्ष में गए. पार्श्व प्रभु के 800 विपुलमति – मनःपर्यवज्ञानी साधु थे और 600 वादी और 1200 अनुत्तर विमान में पैदा होनेवाले साधु थे. पार्श्वनाथ प्रभु को केवलज्ञान होने के 3 वर्ष बाद उनके शासन का प्रथम जीव मोक्ष में गया. 

तो यह थी जैन धर्म के 23वे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान की जीवन कथा. पार्श्वनाथ भगवान से जुडी कई अन्य कथाएं हैं जो हम भविष्य में अवश्य जानेंगे.

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