Age VS Wisdom – Who is the Real Guru? Updeshmala Granth – Episode 08

क्या गुरु का सम्मान उम्र पर निर्भर करता है?

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By Jain Media 4 Views 6 Min Read

गुरु उम्र में छोटे हो तो भी उनका विनय करना क्या?

प्रस्तुत है, आगम ज्ञानी बनो Series के अंतर्गत उपदेशमाला ग्रंथ का Episode 08

आइए अगली गाथा देखते हैं।

बालुत्ति महीपालो,
न पया परिभवइ एस गुरु-उवमा।
जं वा पुरओ काउं,
विहरंति मुणी तहा सोऽवि।। (08)Updeshmala Granth

शिष्य पूछता है कि ‘मैंने तो बहुत सालों पहले दीक्षा ली थी लेकिन मेरा पुण्य कम था और बुद्धि भी कम थी तो मैं शासन प्रभावक नहीं बन पाया। मैं शास्त्रों का ज्ञानी नहीं बन पाया। बस सामान्य साधु रहा। 

अब हमारे Group के जो गुरु थे उनका कालधर्म हो गया और उनके बाद जो नए गुरु बने हैं यानी ग्रुप के वडिल यानी बड़े बने हैं, आज मैं उनकी निश्रा में आ गया। 

भले वह शासन प्रभावक हैं, ज्ञानी है और अब तो हमारे सबके नेता बने हैं लेकिन वह मेरे से उम्र में भी छोटे हैं और मेरे से दीक्षा पर्याय में भी छोटे हैं। तो मैं क्यों उनका Respect करूं? मेरे जो साक्षात गुरु थे वह तो उम्र में और पर्याय में दोनों से बड़े थे। 

मैंने खुद ने उन्हें गुरु बनाया था। उनको तो मैं भगवान की तरह मानता था लेकिन उनके कालधर्म के बाद यह जो नए वडील स्थापित हुए हैं, उनके लिए मुझे बहुमान नहीं आता है।’

वैसे तो यह पूज्य गुरु भगवंतों के लिए ज्यादा काम का है, लेकिन हम संसारियों के लिए यह विषय समझना बहुत ज़रूरी है। 

क्यों? वह इस प्रस्तुति के अंत तक समझ में आ जाएगा।

शिष्य के इस प्रश्न का जवाब ग्रंथकार दे रहे हैं कि ‘राजा Age में छोटा हो तो भी प्रजा उसका अपमान-Disrespect नहीं करती है। श्री कृष्ण छोटी Age में ही राजा बन गए थे, तो भी बड़े-बड़े लोग भी उनको सम्मान देते थे। 

वैसे ही यहां पर दो बातें देखते हैं। 

1. अगर किसी ने छोटी Age वाले गुरु के पास दीक्षा ली, वहां पर गुरु दीक्षा पर्याय में तो बड़े हैं लेकिन Age में छोटे हैं तो दीक्षा के बाद बड़ी Age वाले शिष्य को ऐसा हो कि ‘मेरा अनुभव ज्यादा है। मेरे गुरु का तो अनुभव कम है। 

भले शास्त्रों का ज्ञान उनके पास अधिक होगा लेकिन दुनिया के अनुभव का ज्ञान तो मेरे पास अधिक है। तो यह गुरु के निर्णय बराबर नहीं हो सकते। उनसे अच्छे Decisions तो मैं ले सकता हूं।’ तो यह सोच 100% गलत है। 

गुरु-गुरु ही है। उनके Decisions सही या गलत, वगैरह सोचने का अधिकार बड़ी Age वाले शिष्य को भी नहीं है। प्रभु महावीर गुरु थे और उनके प्रथम शिष्य गौतम स्वामी थे जो उनसे 8 साल बड़े थे। 

प्रभु वीर को 42 Years की Age में केवलज्ञान हुआ और गौतमस्वामी उस समय 50 Years के थे और उन्होंने दीक्षा ली थी। 

गुरु की छोटी उम्र देखकर गुरु के प्रति बहुमान कम रखनेवाला शिष्य मूर्ख है। वह अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर अपना ही नुकसान करने का काम कर रहा है। 

2. गुरु के कालधर्म के बाद कोई नए साधु भगवंत Group के नेता बने और वह कुछ साधुओं से उम्र में और दीक्षा पर्याय में छोटे भी हो सकते हैं। 

जैसे परम पूज्य गच्छाधिपति श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहेब के कालधर्म के बाद परम पूज्य आचार्य श्री जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. को गच्छाधिपति बनाया गया। 

उस समय उनसे दीक्षा पर्याय और उम्र में बड़े ऐसे परम पूज्य आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज साहेब बड़े थे। 

फिर भी उन्होंने पर्याय और उम्र से छोटे ऐसे श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराज साहेब को अपने गच्छाधिपति के रूप में ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार किया और उनको पूर्ण सम्मान और बहुमान दिया। 

टीका में सिद्धर्षी गणि कहते हैं कि ऐसे स्थापित किए गए नए गुरु को भी अपने खुद के गुरु जैसा ही प्रेम और Respect देना चाहिए। 

जो भी साधु भगवंत अपने साक्षात गुरु का या गुरु के बाद में स्थापित किए गए नए गुरु का Disrespect करता है, वह लंबे काल तक संसार में भटकता है। हां। वह नए गुरु शास्त्रों के ज्ञाता होने जरूरी है। 

हकीकत यह है कि मुख्य गुरु हो या नए गुरु, जो भी गुरु हो वह आचारों का पालन करनेवाले और शास्त्रों के अच्छे ज्ञानी होने जरूरी है। 

यह जो बात दीक्षा जीवन के लिए कही गई वह बात कुछ Angle से देखने पर हम संसारी लोगों के जीवन में भी Set होती है।

जैसे शिष्यों को अपने मुख्य गुरु की तरह ही नए गुरु को मानना है, वैसे ही लड़कियों को अपने सगे माता-पिता की तरह ही शादी के बाद अपने सास-ससुरजी को मानना है। 

जितना Respect-बहुमान-प्रेम माता-पिता के प्रति है, उतना ही सास-ससुरजी के प्रति भी होना चाहिए। 

गुरु की ओर से देखें तो जैसे गुरु अपने साक्षात शिष्यों को चाहते हैं और संभालते हैं, वैसे ही अपनी निश्रा में आए हुए निश्रावर्ती साधु भगवंतों को भी चाहना है और संभालना है। 

इस तरह जैसे माता-पिता अपनी बेटी को चाहते हैं-संभालते हैं, वैसे ही अपनी बहू को भी चाहना है-संभालना है। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। दोनों ओर से अपना-अपना कर्तव्य पूरा करना आवश्यक होता है।

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