14 Divine Qualities of Sadguru / Jain Acharya | Updeshmala Granth – Episode 09

यह 14 अद्भुत गुण कराते हैं सद्गुरु / आचार्य की असली पहचान...

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By Jain Media 24 Min Read

‘गुरु का विनय करो’-ऐसा उपदेश दिया, तो सवाल होता है कि ‘सच्चे गुरु कैसे होते हैं? वह तो हम जानते नहीं हैं। हमको गुरु को जानना है, मानना है, उनकी सेवा-भक्ति करके संसार सागर का पार प्राप्त करना है।’ 

तो अब ग्रंथकार महर्षि दो गाथा के द्वारा सुगुरु का स्वरूप बताते हैं।

प्रस्तुत है आगम ज्ञानी बनो Series के अंतर्गत उपदेशमाला ग्रंथ का Episode 09

पडिरुवो तेयस्सी,
जुगप्पहाणागमो महुरवक्को।
गंभीरो धिइमंतो,
उवएसपरो य आयरिओ।। (09)

अपरिस्सावी सोमो,
संगहसीलो अभिग्गहमई य।
अविकत्थणो अचवलो,
पसंतहियओ गुरु होइ।। (10)Updeshmala Granth

इस दो गाथा में गुरु के यानी कि आचार्य के 14 गुण बताए गए हैं।

1. प्रतिरूप: गुरु के तमाम अंग और उपांग संपूर्ण होने चाहिए। गुरु लूले-लंगड़े हो, अंधे-पंगु हो, काणे-कुबड़े हो, बहरे-गूंगे हो, शरीर का ऐसा कोई भी अपलक्षण नहीं होना चाहिए। 

प्रश्न: अरे भाई शरीर थोड़ा खराब हो तो क्या फर्क पड़ता है? शरीर खराब हो तो भी आत्मा तो उत्तम हो सकती है। अष्टावक्रजी का शरीर विचित्र था लेकिन संत पुरुष थे, उन्होंने अष्टावक्र गीता नाम के ग्रंथ की रचना भी की।

उत्तर: शरीर खराब हो तो भी आत्मा गुणवान हो सकती है, उसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन बड़ी Post पर कोई विचित्र शरीरवाला बैठे तो व्यवहार में शोभा नहीं देता। 

जैसे कि भारत के प्रधानमंत्री या किसी राज्य के मुख्यमंत्री अगर लंगड़े-लूले-काणे-बहरे हो तो अच्छा नहीं लगता है। ठीक वैसे ही जैनधर्म के आचार्य अगर लंगड़े-लूले-काणे-बहरे तो अच्छा नहीं लगता है। 

जैनधर्म की शोभा कम होती है। पूरी दुनिया सामान्य तौर पर बाहर का स्वरूप ही जल्दी देखेगी-देख पाएगी। इसलिए जैनधर्म की शोभा को आंच ना आए, उस कारण गुरु प्रतिरूप यानी कि संपूर्ण शरीर वाले होने जरूरी है। 

प्रतिरूप का दूसरा अर्थ है प्रतिबिंब। जैसे अरिहंत परमात्मा की मूर्ति अरिहंत जैसी है, अरिहंत को याद करवाती है, इसलिए उसे अरिहंत का प्रतिबिंब बोलते हैं। 

ठीक उसी तरह जैन आचार्य में भी परोपकार नाम का गुण इतना भर भर के पड़ा हुआ होता है कि उनको देखकर अरिहंत को जाननेवाले किसी भी इंसान को जैन आचार्य अरिहंत जैसे ही लगेंगे। 

इस कारण आचार्य अरिहंत का प्रतिबिंब कहे जाते हैं। 

जैन आचार्य ने आचार्य बनने से पहले अपनी आत्मा का हित, स्वाध्याय-तप आदि के द्वारा बहुत अच्छे से कर लिया है। इस कारण आचार्य बनने के बाद उनका पूरा जीवन मुख्य रूप से परोपकार के लिए होता है। 

वाचना देकर शास्त्रों की पढ़ाई करवाकर साधु-साध्वीजी पर उपकार करते हैं। प्रवचन देकर श्रावक-श्राविका पर उपकार करते हैं। साधर्मिक भक्ति की प्रेरणा देकर हजारों जैन साधर्मिक को Support करवाते हैं। 

जीवदया करवाकर, पशु-पक्षी पर अनुकंपा करवाकर, गरीब प्रजा पर उपकार करते हैं। Politicians जैसे बड़े-बड़े लोगों को भी धर्मात्मा बनाकर हजारों-लाखों प्राजजनों का हित करते हैं। 

ऐसे अनेक प्रकार से आचार्य परोपकार करते हैं। इसलिए वो तीर्थंकर के समान दिखते हैं, इसलिए वे प्रतिबिंब यानी प्रतिरूप कहे जाते हैं। 

2. तेजस्वी: जैसे सूर्य तेजस्वी है तो कोई भी ग्रह सूर्य के तेज को ढक नहीं सकता। उसके प्रभाव को कम नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही आचार्य का ‘ज्ञान तेज’ इतना जबरदस्त होता है कि कोई भी इंसान अपने ज्ञान से आचार्य के ज्ञान को झूठा साबित कर दे वह नहीं होगा। 

आचार्य के तप का तेज इतना जबरदस्त होता है कि खाते रहने के संस्कार वाली दुनिया उनके चरणों में झुकने लगती है। 

आचार्य का ब्रह्मचर्य तेज इतना जबरदस्त होता है कि विषय-वासना से पीड़ित दुनिया उनके चरणों का स्पर्श करने को, धूल लेकर सर पर लगाने को तड़पती है। 

उनका अप्रमत्तता का तेज इतना जबरदस्त होता है कि युवा पीढ़ी भी बड़ी Age वाले ऐसे भी आचार्य भगवंतों की Activeness को देखकर आश्चर्यचकित हो जाती है। 

तेजस्वी व्यक्ति दूसरों पर हावी होते हैं, कोई भी दूसरा व्यक्ति तेजस्वी पर हावी नहीं हो सकता है। ठीक वैसे ही आचार्य का ज्ञान-ब्रह्मचर्य-तप-अप्रमत्तता का तेज Powerful होने से वे दूसरों को प्रभावित करते हैं। कोई उनको ढक पाए ऐसा नहीं होता है। 

In Short सामान्य इंसानों से तो एकदम हटकर-एकदम अलग तरीके का उनका व्यक्तित्व होता है। 

देखिए आज से 2 हजार साल पहले श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरीजी ने विक्रम राजा जैसे अति महान राजा को अपने तेज से प्रभावित करके अपना भक्त बनाया था। 

आर्य सुहस्तीसूरीजी ने सम्राट संप्रति को, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्रसूरीजी ने कुमारपाल महाराजा को, जगद्गुरु श्री हीरसूरीजी ने बादशाह अकबर को अपने तेज से प्रभावित करके अपना भक्त बनाया था। 

अगर आचार्य तेजस्वी होंगे तो शिष्य उनके तेज के प्रभाव से अपने आप समर्पित रहेंगे। कभी गुरु द्रोही नहीं बनेंगे, गुरु निंदक नहीं बनेंगे। 

आचार्य के तेजस्वी होने का सबसे बड़ा Profit शिष्यों को यह है कि वे अपनेआप समर्पण-विनय-नम्रता गुण को पा लेंगे। बिना किसी मेहनत के अपनी आत्मा का हित कर लेंगे। 

नेता का प्रभावशाली होना बहुत जरूरी है, यह सब लोग अनुभव करते ही हैं। फिर वह प्रधानमंत्री हो, मुख्यमंत्री हो, School-College के Deen-Principal हो या कोई भी संस्था के अध्यक्ष-Secretary हो।

3. युगप्रधानागम: युग यानी वर्तमान काल-Present Time। आगम यानी श्रुतज्ञान। जिस काल में जो श्रुतज्ञान है, वह श्रुतज्ञान-शास्त्र ज्ञान जिसके पास दूसरों की Comparison में अधिक हो वह आचार्य युगप्रधानागम। 

आचार्य का यह तीसरा गुण है। पुराने काल में 14 पूर्व आदि आगम थे, तो उस वक्त पर आचार्य उतने ज्ञानवाले होने जरूरी थे। आज 45 आगम आदि श्रुतज्ञान है, तो आज आचार्य के पास उतना ज्ञान होना जरूरी है। 

अगर यह ज्ञान होगा तो ही वह शिष्यों को पढ़ा पाएंगे, उनके प्रश्नों का जवाब दे पाएंगे, उनको संतोष दे पाएंगे। अगर आचार्य के पास वर्तमान काल में इतना भी श्रुतज्ञान नहीं होगा, तो वे शिष्यों को क्या पढ़ाएंगे? 

वह शिष्यों की जिज्ञासा का समाधान कैसे देंगे? और जिज्ञासा का समाधान नहीं मिलेगा तो शिष्यों को संतोष नहीं होगा, तो वह दूसरी-तीसरी जगह पर भटकने लगेंगे और उनकी श्रद्धा टूट जाएगी। 

4. मधुरवाक्य: आचार्य की वाणी मीठी होनी चाहिए। अगर आचार्य कड़वे-कर्कश वचन बोले, गुस्सा करें, अपशब्द बोले तो सुननेवाले लोग अवश्य दुर्भाव पाएंगे कि ‘आचार्य कितनी कर्कश भाषा का प्रयोग करते हैं।’ 

लोग धर्म से विमुख होंगे। आचार्य के प्रति दुर्भाव वाले बनेंगे ही। इससे लोगों को भी नुकसान, आचार्य को भी नुकसान और जैनशासन को भी नुकसान होगा। आचार्य अगर मीठी भाषा बोलेंगे तो पापियों को भी उनके प्रति बहुमन बढ़ेगा। 

आखिर तो सबको प्रेम की जरूरत है ही। प्रेम से पशु भी वश हो जाते हैं तो इंसान की तो क्या बात करनी? और एक बार अगर पापियों को भी सद्भाव आ जाए तो वे धार्मिक बनेंगे ही। 

मधुर भाषा मंत्र-तंत्र बिना का वशीकरण ही है। इसलिए शास्त्रकार सामान्य तौर पर कभी भी कर्कश भाषा का प्रयोग नहीं करते हैं।

पूरण और सूरण दोनों भाई थे। सूरण शराबी-जुआरी था। एक बार पूरण उसको कबीरजी के प्रवचन में जबरदस्ती ले गया। कबीरजी ने उसी वक्त पर कहा ‘कहत कबीर सुनो मेरे भैया..’ 

यह भैया शब्द सुनकर सूरण को बहुत अच्छा लगा। कोई उसके साथ ऐसे मीठे शब्दों से बात ही नहीं करता था। दूसरे दिन से वह खुद प्रवचन में आने लगा। 

एक बार तो कबीरजी ने कहा ‘कहत कबीर सुनो मेरे साधु..’ यहाँ पर साधु शब्द यानी कि सज्जन शब्द सुनकर तो सूरण रोने लगा। उसने कबीरजी के पास रो-रोकर अपने पापों का Confession किया और उसके बाद शराब-जुआ आदि सभी व्यसन छोड़ दिए। 

यह है मधुर भाषा का प्रभाव। आचार्य अपनी मीठी भाषा से सबको जीत लेते हैं।

5. गंभीर: आचार्य गंभीर होते हैं। उनके मन में क्या है? वह दूसरा कोई भी इंसान नहीं जान पाएगा। सामान्य तौर पर हम दुखी या सुखी होते हैं, तब बाहर हमारे वर्तन में या वाणी में वह दुख-सुख सबको पता चल जाता है, यह तुच्छता है। 

आचार्य इतने गंभीर होते हैं कि उन्हें दुख हो तो भी किसी को पता नहीं चलेगा या उनको खुशी हो तो भी किसी को पता नहीं चलेगा। उनको किसी के ऊपर गुस्सा आया भी होगा तो भी किसी को अंदाजा नहीं आएगा। 

इसको माया नहीं समझना है, लेकिन अपने विचारों को पहचानने की शक्ति है यह। अगर दूसरों से छुपाकर उनका बुरा करने का भाव हो तो अवश्य माया बोल सकते हैं। आचार्य में ऐसा मलिन भाव नहीं होता है। 

लेकिन मन में उठते हुए भावों को-विचारों को पचाने का सामर्थ्य होता है। अपने गुस्से को, अपने राग को, अपनी सुख-दुख की Feelings को बाहर दिखने नहीं देना, यह आसान काम नहीं है। 

एक आचार्य को शक्कर की जगह पर नमक वाली खारी चाय गोचरी में आ गई लेकिन उन्होंने ऐसे वापरली की शिष्यों को पता भी नहीं चला। 

यह तो वहोराने वाले श्राविका बहन ने बाद में बोला कि ‘वह चाय तो खारी-खारी थी।’ तब साधुओं को पता चला। इसे कहते हैं आचार्य की गंभीरता।

एक श्रावक जगद्गुरु श्री हीरसूरीजी के पैर दबा रहा था। उसमें एक फोल्ला यानी फुंसी-गुमडा फूट गया लेकिन किसी को पता नहीं चला। सुबह जब खूनवाले कपड़े देखे तब पता चला। 

श्री सय्यंभवसूरीजी ने अपने सगे बेटे मणक को दीक्षा दी, उसके ऊपर प्रेम भी था लेकिन उनके कालधर्म तक किसी को भी पता नहीं चला कि मणकमुनि आचार्य के पुत्र हैं। अपने स्नेह भाव को किसी को भी पता नहीं चलने दिया।

6. धृतिमान: आचार्य दृढ़ चित्त वाले होते हैं। कितनी भी दिक्कतें आए, उनका मन अपने महाव्रतों से विचलित नहीं होता। 

मानलो कि कोई स्त्री आचार्य के प्रति पागल होकर Propose करे तो आचार्य फिसल जाए, ब्रह्मचर्य व्रत से विचलित हो जाए, सच्चे आचार्य में ऐसा कभी भी नहीं होता है। 

खाने की सुंदर Item मिल रही हो लेकिन अभक्ष्य हो-दोषित हो तो आचार्य आसक्त बनकर उसे खा ले, सच्चे आचार्य में ऐसा कभी भी नहीं होता है।

आचार्य व्रजस्वामीजी को रुक्मणी नाम की रूपवान लड़की मिल रही थी, साथ में एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा भी मिल रही थी लेकिन वे अपने व्रतों में दृढ़ रहे। ना स्त्री का स्वीकार , ना सोने का। 

एक मुनि विहार में पानी की प्यास से तड़प रहे थे। पास में नदी का पानी बह रहा था। मुनि ने अनशन कर लिया लेकिन वह कच्चा पानी नहीं पिया। 

ऐसे तो अनेकों दृष्टांत मिलते हैं जिसमें पता चलता है कि आचार्य अपने महाव्रतों में कितने दृढ़ चित्त वाले होते हैं। कोई भी प्रलोभन, कोई भी डर उनके मन को संयम से-महाव्रतों से विचलित नहीं कर सकता है।

7. उपदेशपर: आचार्य योग्य जीवों को हमेशा हीतोपदेश देते ही रहते हैं। गृहस्थों के साथ फालतू बातें कभी नहीं करेंगे, Timepass कभी नहीं करेंगे। 

Politics की बातें, खाने-पीने की बातें, अलग-अलग शहर-गाँव की बातें, स्त्री संबंधी बातें आदि इन सब में कभी भी अपना Time Waste नहीं करेंगे। 

अपनी आराधना में मग्न रहेंगे और योग्य जीव आएंगे तो अवश्य आत्म हितकारी उपदेश देंगे ही। वह उपदेश सुनकर योग्य जीव भी मोक्ष मार्ग की ओर प्रयाण करेंगे ही।

इस प्रकार 9वीं गाथा के आधार पर आचार्य के यानी कि गुरु के 7 गुण बताए गए हैं। अब 10वीं गाथा के आधार पर बाकी के 7 गुण देखते हैं। 

8. अपरिश्रावी: अनादि काल के खराब संस्कार, इस भव में पुण्य-पाप का घोर अज्ञान और पाप करने के निमित्त का मिलना-इन तीन कारणों से लगभग सभी जीव छोटे-बड़े पाप कर बैठते हैं। 

जब ज्ञान आता है तब उनको घोर पश्चाताप होता है। वह अपने पाप का Confession आचार्य के पास करते हैं। अब आचार्य की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। 

जब लोग विश्वास रखकर अपने गुप्त पाप भी आचार्य को बता दें, तब वह पाप सपने में भी, भूल से भी दूसरों को नहीं बताते हैं, यह अत्यंत आवश्यक है। सच्चे आचार्य ऐसे ही होते हैं। 

वे मर जाएंगे, कोई फांसी पर चढ़ा देगा, तो चढ़ जाएंगे, कोई तलवार से उनका गला काटकर मार देगा, तो मर जाएंगे लेकिन किसी ने विश्वास रखकर बताया हुआ पाप दूसरों को कभी नहीं बताएंगे। 

जैसा पत्थर से बना हुआ बर्तन हो, आज के जमाने में Steel का बर्तन हो और उसमें पानी रखा जाए तो एक बूंद भी नीचे नहीं टपकता है। वहीं अगर मटके में पानी रखा हो तो मटके में से पानी झरता ही है। 

मटका परिश्रावि कहा जाता है और Steel का बर्तन अपरिश्रावी कहा जाता है। आचार्य Steel के बर्तन की तरह अपरिश्रावी होते हैं। 

लगभग हम सभी को यह पता ही है कि देश के जवान (फौजी) अगर दुश्मनों के हाथों में पकड़े जाते हैं, तो वे मर जाएंगे लेकिन देश की गुप्त बात कभी भी दुश्मनों को नहीं बताएंगे। 

उसी तरह आचार्य भी मर जाएंगे लेकिन किसी के गुप्त पाप दूसरों को नहीं बताएंगे।

9. सौम्य: जिनको देखते ही मन प्रसन्न हो जाए, आचार्य उन्हें कहते हैं। पूनम की रात के चांद को देखकर ही मन में कितनी प्रसन्नता छा जाती है ना? 

उसी तरह आचार्य की शांत मुखमुद्रा को देखकर कोई भी दुखी जीव एक बार तो प्रसन्न बन ही जाता है। 

10. संग्रहशील: आचार्य अनेक शिष्य बनाने में तत्पर, शिष्यों को आवश्यक ऐसे वस्त्र-पात्र-उपाश्रय आदि ग्रहण करने में तत्पर होते हैं। यह संग्रह वे क्यों करते हैं? वह वस्तुओं का लाभ Profit पाने के लिए करते हैं। 

बहुत शिष्य होंगे तो वे शिष्य जिनशासन की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। अनेकानेक जीवों का हित-कल्याण करेंगे। वस्त्र-पात्र-उपाश्रय होंगे तो पूरा गच्छ अच्छे से आराधना कर पाएगा। 

आचार्य कोई भी जीव को शिष्य नहीं बनाते, किंतु शिष्य बनने के लिए जो योग्य हो, साधु बनने के लिए जो योग्य हो, उसको ही दीक्षा देंगे। वस्त्र-पात्र भी जो संयम का पोषण करे, ऐसे ही लेंगे। 

संयम को नुकसान पहुंचाए, उस तरीके के वस्त्र-पात्र आदि कभी नहीं लेंगे। 

उदाहरण देखें तो Coloured कपड़े राग उत्पन्न करवाकर संयम को नुकसान करते हैं। जो उपाश्रय में स्त्री रहती हो या आसपास के घरों में स्त्री दिखती हो, ऐसे उपाश्रयों में संयम को नुकसान होता है इसलिए आचार्य कभी भी इस प्रकार के वस्त्र-पात्र-उपाश्रय आदि का स्वीकार करते नहीं है। 

आचार्य को शिष्य बढ़ाने का कोई राग नहीं है। योग्य को ही शिष्य बनाना, अयोग्य को नहीं बनाना.. यह उनका Fix Rule होता है। 

अगर आचार्य ऐसे होते हैं तो उस गच्छ की वृद्धि होती है। हर एक योग्य जीव को ऐसे आचार्य के शिष्य बनने का मन होगा ही। 

11. अभिग्रहमतिक: आचार्य खुद अलग-अलग अभिग्रह लेते हैं और दूसरों को भी अलग-अलग अभिग्रह में जोड़ते हैं। अभिग्रह चार प्रकार के होते हैं-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से।

  • आज मुझे सिर्फ सब्जी + रोटी ही वापरनी है-यह द्रव्य अभिग्रह
  • आज मुझे 5 घरों में से जो गोचरी मिले, वही वापरनी है-यह क्षेत्र अभिग्रह
  • आज मुझे 3 बजे गोचरी वापरनी या 3 बजे गोचरी लेने जाना-यह काल अभिग्रह
  • आज मुझे कोई बच्ची रोते-रोते वहोराए तो वहोरना-यह भाव अभिग्रह। 

ऐसे हजारों प्रकार के अभिग्रह होते हैं। ऐसे अभिग्रह को धारण करने से आत्मा का Power बढ़ता है और अनिश्चित जिंदगी का भी एक मजा होता है। 

कुदरत के साथ खेल-खेलने का भी एक आनंद होता है। प्रभु महावीर ने जो अभिग्रह लिया था वह याद करने जैसा है। 

उड़द के बाकुले ही वहोरने-यह द्रव्य अभिग्रह था।

दोपहर के बाद गोचरी जाना-यह काल अभिग्रह था।

वहोराने वाले का एक पैर दहलीज के अंदर और एक पैर दहलीज के बाहर हो, इस प्रकार वहोराए तो लेना-यह क्षेत्र अभिग्रह था।

वहोराने वाला व्यक्ति राजकुमारी हो, चौराहे पर बिकी हुई हो, 3 दिन की भूखी हो, सर पर बाल नहीं हो, रोती हुई हो-यह सब भाव अभिग्रह थे। 

आचार्य भी अपनी शक्ति के अनुसार अभिग्रह लेते हैं। 

12. अविकत्थन: आचार्य जितना जरूरी हो उतना ही बोलते हैं। Extra बातें, फालतू की बातें वह नहीं करते। इसलिए उनके एक-एक वचन Valuable यानी कीमती होते हैं। 

चाणक्य के लिए कहा जाता है कि वो बिना कारण नींद में भी पैर हिलाने जितनी भी प्रवृत्ति नहीं करता है यानी कि चाणक्य का अंगूठा भी अगर नींद में भी हिलता है तो पक्का समझना है कि उसके पीछे कुछ कारण है। 

वैसे ही आचार्य एक शब्द भी बोलते हैं तो समझ जाना कि उसके पीछे कुछ ना कुछ राज है। 

अविकत्थन का दूसरा अर्थ यह है कि आचार्य कभी भी अपनी खुद की तारीफ नहीं करेंगे, अपनी शक्ति की भी नहीं, अपने गुणों की भी नहीं, अपने कार्यों की भी नहीं। ऐसी चीजों में वे मौन ही रहते हैं। 

कोई खुद जान ले और तारीफ करें तो ‘देव-गुरु पसाय’ ही कहेंगे, दूसरा कुछ भी नहीं। उनके इस नम्रस्वभाव से सबको उनके प्रति आकर्षण होगा ही। उनकी यह निस्पृहता सबके दिल को छू जाएगी।

13. अचपल: चपल यानी चंचल स्वभाववाला। आचार्य स्थिर स्वभाव वाले होते हैं। अचानक कुछ विचार आए और उल्लास से एक काम शुरू कर दिया, वापस कुछ और विचार आया तो इस काम को छोड़कर, दूसरा काम चालू कर दिया, ऐसा वे नहीं करते। 

इस तरह आज किसी को कुछ Commitment दे दिया, फिर थोड़े Time के बाद Mood बदल गया तो Commitment बदल देना, ऐसा वे कभी नहीं करेंगे। 

सिर्फ भावों में बहकर काम नहीं करेंगे, भाव के साथ-साथ विवेक को मिलाकर Commitment देंगे और फिर उसका अच्छे से पालन करेंगे। ऐसे स्थिर स्वभाव वाले आचार्य होते हैं। 

14. प्रशांतह्रदय: उनके हृदय में क्रोध-मान-माया लोभ नाम के कषायों की अशांति नहीं होती। न मन में गुस्सा, न शब्दों में कड़वाहट, न चेहरे पर आवेश या अरुचि। 

वैसे ही अहंकार भी नहीं, स्वप्रशंसा और परनिंदा से लाखों योजन की दुरी रखते हैं। खरी बात जरूर बताएंगे लेकिन ईर्ष्या से प्रेरित होकर किसी को Criticize करना, वह कभी नहीं होने देंगे। 

एकदम सरल होते हैं, अपनी छोटी गलती का भी स्वीकार कर लेंगे। घुमा घुमाकर बात नहीं करेंगे, खुद को महान बताने की साजिश नहीं करेंगे। मन में कुछ और, वचन में कुछ और, और काया में कुछ और-ऐसा Triple Character उनका नहीं होता। 

गिरगिट बार-बार अपना रंग बदलता रहे, वैसे वे अपना रंग-रूप बदलते रहें वैसा नहीं करेंगे। उनके मन में लोभ भी नहीं होता, शिष्यों की ममता नहीं, भक्तों का राग नहीं, अपने नाम की कामना नहीं.. तो इस प्रकार चारों कषायों से मुक्त होता है सच्चे आचार्य का हृदय।

सद्गुरु / आचार्य ऐसे 14 गुणों वाले होते हैं। 

यहाँ पर यह समझना है कि कोई साधु अगर व्यवहार में आचार्य पद का धारक है, लेकिन ऐसे गुणों से संपन्न नहीं है तो वह द्रव्य आचार्य है-भावाचार्य नहीं है। 

कोई साधु आचार्य पद धारक नहीं है लेकिन गुणों से संपन्न है, तो वह भले द्रव्य से आचार्य नहीं है लेकिन भावों से आचार्य है। 

कोई साधु दोनों तरीके से आचार्य है, कोई साधु दोनों तरीके से आचार्य नहीं है। 

जो द्रव्य + भाव दोनों से आचार्य है, वह श्रेष्ठ गुरु है। जो द्रव्य से नहीं है लेकिन गुणवान होने के कारण अंदर से आचार्य है, वह 2nd Number पर श्रेष्ठ गुरु है। 

तीसरे और चौथे साधु हो सकते हैं, वंदनीय हो सकते हैं लेकिन उनको गुरु के रूप में नहीं मानना चाहिए ऐसा ज्ञानी गुरु भगवंत बताते हैं। 

वर्तमान में सभी के सभी गुण ना मिले तो भी वैराग्य संपन्न यानी कि साधु के आचारों का अच्छे से पालन करनेवाले और शास्त्रों का अच्छा ज्ञान पाए हुए-यह दो गुण तो अवश्य होने ही चाहिए। 

बाकी तो सीधी बात है कि हमारे गुरु जितने अधिक गुण संपन्न हो, उतना हमारी आत्मा का हित भी अधिक है।

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