प्रभु पार्श्वनाथ का पूर्वभव
प्रस्तुत है Friend or Foe Book का Episode 19
जिनके सबसे ज्यादा मंदिर आज भारत में हैं, ऐसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु का पूर्वभव यानी पिछले एक जन्म में मरुभूति उनका नाम था. अद्भुत आराधना कर सुंदर श्रावक जीवन जी रहे थे. पुरुषादानीय पार्श्वप्रभु का जीव मरुभूति. कैसा अद्भुत आराधना पूर्ण श्रावक जीवन था उनका.
मरूभूति का बड़ा भाई कमठ. कमठ ने बहुत बड़ी गलती की थी यह बात मरूभूति को पता चली और मरूभूति ने राजा को बता दी. राजा ने कमठ को देश बाहर कर दिया. कमठ को तो अपने किए का ही फल मिल चुका था.
मगर मरुभूति को बात खटक रही थी कि ‘मैंने राजा को पूरी बात बताई और बेचारे मेरे अभागे बड़े भाई के लिए मुसीबत खड़ी हो गई न? आखिर मेरे Statement पर ही राजा ने Judgement दिया. अतः मैं उसके दुःख में निमित्त बना हूँ. जब तक मैं उसके पास माफी नहीं माँगूँगा तब तक मुझे चैन कहाँ मिलेगा?’
माफी माँगने की इच्छा से मरुभूति कमठ के पास गया और उसके पैरों में गिरा.
क्रोध में अंधे कमठ ने मरूभूति के सर पर पत्थर उठाकर पटक दिया और मरुभूति की तो हालत ख़राब हो गई. सहन नहीं कर पाए ऐसी पीड़ा मरूभूति को होने लगी और वह सोचने लगा कि ‘हाय! मैं तो माफी माँगने आया था और मुझे इतनी तकलीफ सहन करनी पड़ रही है.’
Please Note : क्रोध नहीं किया था, बदला लेने का नहीं सोचा था बल्कि सिर्फ ‘हाय दुःख हाय दुःख’ ऐसी Complaint कर दी और आर्तध्यान कर लिया.
कर्मसत्ता ने बेझिझक फैसला सुना दिया ‘मुझे Complaint सुननी ही नहीं है, तू कितना भी आराधक क्यों न हों? एकबार तो तुम्हें जाना ही पड़ेगा पशुयोनि में. फरियाद का फल भुगतो और जाओ, हाथी बनकर रहो.’
यहाँ पर हम तीर्थंकर की बात कर रहे हैं, पार्श्वनाथ प्रभु की. आज प्रभु वीर का शासन है लेकिन फिर भी पार्श्वनाथ प्रभु को ज्यादा पूजा जाता है यह वास्तविकता है.
सोचने जैसा है कि कैसा अद्भुत पुण्य तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान का होगा. फिर भी कर्मसत्ता ने इन्हें पूर्व के जन्म में नहीं बक्शा. आखिर वे हाथी बने.
Life Story Of Shri Parshwanath Bhagwan
इसलिए ज्ञानी भगवंत कहते हैं ‘न कोई प्रतिकार, न कोई प्रतिकार की भावना.’ ‘वह मुझे परेशां करता है’-ऐसा मन पर लेना ही नहीं है. इतना ही नहीं ‘मैं परेशान हो गया हूँ’ ऐसी Complaint भी नहीं करनी है अर्थात् दूसरा कुछ भी नहीं करना है, जो आए सहन करना है बस.
सिर्फ सहन ही नहीं, स्वीकारपूर्वक सहन करना और मात्र स्वीकारपूर्वक ही नहीं, सहर्ष स्वीकारपूर्वक सहन करना है. अर्थात् सिर्फ Tolerate नहीं करना है, Acceptance के साथ Tolerate करना है और सिर्फ Acceptance के साथ Tolerate नहीं बल्कि Wholeheartedly Acceptance के साथ Tolerate करना है.
फिर देख सकते हैं Result. कर्मसत्ता की ओर से सजा का तो नामोनिशान ही नहीं परंतु बढ़िया से बढ़िया पुरस्कार मिलेगी. भौतिक और आध्यात्मिक दोनों समृद्धियों का जोरदार इनाम.
हाँ, दुनिया में भी आप यही सत्य देखने को मिलेगा.
जो आम्रफल गर्मी सहता है वही मजेदार सुगंध और Taste की Special समृद्धि पाता है, जो हीरा Acid में उबलकर सान पर घिसता है वही चमकता है. जिस पत्थर को मार-मारकर तराशा जाता है, छेनी के आघातों को सहता है वही प्रतिमा बनकर जगत्पूज्य बनती है.
Michelangelo नामक एक Sculptor यानी शिल्पकार को पूछा गया कि ‘तुमने यह सुंदर मूर्ति बनाई है?’ तब Michel ने सुंदर उत्तर दिया कि ‘नहीं.. नहीं.. यह अपने आप सुंदर बनी है क्योंकि मेरे प्रहारों को इसने सहा है.’
जड़ की यानी Materialistic चीज़ें की समृद्धि उनके ऊँचे प्रकार के रूप-रस-गन्ध-स्पर्श की प्राप्ति आदि है.
अत्यंत कर्कश स्पर्शवाले पत्थर भी जैसे जैसे घिसे जाते हैं वैसे वैसे उनमें चिकनाहट पैदा होती है. Granite की आत्मकहानी शायद इन्हीं प्रहारों को सहने की जीती-जागती निशानी है. यही बात जीव पर भी लागू होती है. जो सहन करता है वह उत्तरोत्तर उत्तमोत्तम भूमिका को प्राप्त करता है, यही उसकी समृद्धि है.
Pay the Price Theory
कुदरत ने यह Rule अपना रखा है ‘Pay the price and gain it.’ यदि आपको श्रेष्ठतम समृद्धियाँ, Prosperities चाहिए तो Price चुकाओ और माल लो. न तो, कुदरत से हम भीख माँगकर उसे ले सकते हैं, न उससे हम चोर-उचक्कों की भांति छीना झपट्टी से जबरन ले सकते हैं.
उसके संपूर्ण मूल्य को चुकाकर ही हम प्राप्त कर सकते हैं. वह मूल्य है ‘सहन करना..’ सहन करने के रूप में इस Payment को हम Pay करते रहे और कुदरत हमें समृद्ध करती रहेगी.
अरे, निगोद से लगाकर पृथिवीकायादि या बेइन्द्रियादिपन की प्राप्ति और उससे भी आगे चलकर पंचेन्द्रियपन एवं मानवभव की प्राप्ति किसके बूते? क्योंकि उन क्षुद्र जन्मों में न धर्म का ज्ञान होता है न अधर्म का यानी सर्वथा विवेकहीन उन जन्मों से भी उत्तरोत्तर भौतिक समृद्धियाँ प्राप्त होती ही जाती हैं.
वह सब किसके बलबूते? तो कहना होगा कि अकामनिर्जरा से यह श्रेष्ठ भूमिका मिली है यानी हमने दुःखों को सहन किया उसी का यह प्रभाव है.
‘सहन करना’ यह तो जीव का अनादिकाल से सुखदायक मित्र है. संसार में निगोद से लगाकर (Highest) या श्रेष्ठ जन्मों तक जितना भी कम-ज्यादा मात्रा में सुख मिलता है, और तो और मोक्ष के निर्मल सुख की भी प्राप्ति होती है, उन सबको देनेवाला यदि कोई है तो यही मित्र है.
सहन करने का मूल्य चुकाया नहीं कि हमें कुछ न कुछ अनुकूल-इच्छित मिलेगा ही समझना है. दूनिया में अनेकों धोखेबाज़ होंगे जो Guarantee देकर पलट जाते हैं लेकिन कुदरत का System ऐसा नहीं है. कुदरत बड़ी ही प्रामाणिक है.
हमने अगर उचित कीमत चुकाई है तो Home Delivery से माल हमें मिलेगा ही.
Reality
पूज्य श्री कहते हैं कि जब हमने Base की बात पहचान ली तो किसी भी व्यक्ति या जड़ की ओर से कैसी भी तकलीफ क्यों न आए, उसे सहन क्यों न करें? क्यों हम प्रतिकार करने जाए या वैसी भावना भी दिल में पनपने दे?
जो हमारे आराध्य देव हैं, जिनकी हम रात-दिन पूजा अर्चना करते हैं उन श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने क्या कम सहन किया था? राह पर चलते-फिरते राहगीरों ने उन पर थूका, वह उन्होंने सहन किया.
भिखारियों ने उन्हें तंग किया, लबार-लफंगों ने पत्थरों से मारा, गोपालक ने कान में कील ठोक दी, भयंकर वेदना हुई, उन्हें उछालकर नीचे ज़मीन पर फेंका गया, अनेकों कष्ट उनको आए लेकिन उन सबको सहन किया.
आख़िर क्यों?
जब इंद्र प्रभु को मेरुपर्वत पर अभिषेक करने ले जाते हैं, तब इंद्र को Doubt होता है कि प्रभु तो इतने छोटे से हैं, अभिषेक की धारा सहन कर पाएंगे या नहीं? और प्रभु अपने पैर के अंगूठे से मेरु को कंपित कर देते हैं.
जन्म लेते ही 1 लाख योजन के मेरु को कंपित करनेवाले ताकतवर भगवान उस गोपालक का, जिसके कान में कील ठोकी थी, उसका सिर्फ हलके हाथ से कान भी पकड़ लेते तो बेचारा अभागा चीख-चिल्लाकर मर जाता. कील मारने की बात ही कहाँ रहती?
ऐसा न करके भगवान ने अपना मस्तक Statue की तरह Stable रखा, जिससे गोपालक को कील ठोंकते हुए परेशानी न हो. अर्थात् असह्य पीडा पहुँचानेवाले उस गोपालक को उल्टा Help की क्योंकि भगवान मन ही मन खुश थे.
‘कर्मों को खपाने का मेरा जो मुख्य जीवनध्येय है उसे हासिल करने में यह मुझे अपार सहायता कर रहा है, इसलिए मुझे भी इसकी सहायता करनी चाहिए.’ ऐसी Extreme मैत्री भावना से परमात्मा ने सहन किया.
दीपक की भांति संसार में जलता है कोई-कोई
वृक्ष की भांति संसार मे फलता है कोई-कोई
सब प्रवीण है आदर्शों की बातों में, मगर…..
आदर्शों पर संसार में चलता है कोई-कोई…
भगवान महावीर स्वामी ने खुद सहन किया और फिर भव्य जीवों को कहा ‘यदि मेरे शासन में रहकर संसार से मुक्त होना है तो यह सूत्र अपनाओ ‘सहन करना! न कोई प्रहार, न कोई प्रतिकार.’
यह उनकी सिर्फ बातें नहीं थीं क्योंकि सिर्फ बातों से होता भी तो क्या है?
शायर ने ललकारा है-
‘सिर्फ बातें बनाने से काम नहीं बनता,
दिल की सच्ची लगन के बिना नाम नहीं बनता.
चौदह साल वनवास में गुजारे बिना,
अपने आप कोई राम नहीं बनता.’
भगवान महावीर स्वामी ने अपने जीवन से यह सच्चाई पेश की. सहन करनेवाला जीतता है, सहन करनेवाला समृद्ध बनता है और सहन करनेवाला महान कहलाता है और Finally कैवल्यलक्ष्मी को प्राप्त करके मुक्तिसुख का भोक्ता भी बनता है, मोक्ष को पाता है अर्थात् हमें सहन करना होगा.
हमें यह समझना होगा कि परमदयालु परमात्मा क्रूर नहीं थे. स्वाश्रित भव्यजीव दुःखी हो, परेशान हो, संसार में भटकते रहे, ऐसी करुणासागर भगवंत की इच्छा कभी नहीं हो सकती लेकिन चमचमाते अनंतज्ञान-केवलज्ञानरूपी आयने में उन्होंने यही Reality देखी कि सहन करने से ही आत्मा की उन्नति है.
प्रहार और प्रतिकार करने में तो अवनति है, Downfall है. तभी तो भगवान ने साधुओं को कहा ‘सहते इति साधुः.’ यानी जो सहता है वही साधु है. साधु. जिस दिन से तुने दीक्षा ली उसी दिन से तुझे इसे अपना जीवनमंत्र बनाना है.
साधु भगवंत ऐसा सोचते हैं कि ‘मुझे सब कुछ सहना है, चिलचिलाती धूप हो या दंतवीणा बजवानेवाली कडाके की ठंडी, गाली हो या अपमान. बस, सब कुछ सहन करो, विहार करो, लोच करो (हाथों से बालों को नोचना), तपश्चर्या करो, जिनाज्ञा के अनुसार कष्टमय जीवन यापन करो, 22 परीषह और उपसर्गों को सहन करो.’
जो भी आए, बस Agreed, No Argue अर्थात् Agreement चाहिए, Argument नहीं. जो सहर्ष स्वीकारता है वही शासन में टिक पाता है, प्रगति करता है और अनुक्रमेण संसारसागर से पार भी उतरता है यानी मोक्ष प्राप्त करता है.
आज के Modern Culture में शायद हर कोई यह वास्तविकता हज़म नहीं कर पाएगा, क्योंकि अभी तो Rebel वाला Trend चल रहा है, सभी को Bold बनना है, एक के बदले चार सुनानेवाला सभी को बनना है. ऐसे में सहन करने की बात गले से उतरना बहुत मुश्किल लगती है.
इसलिए तो आज ज़्यादातर घरों में लड़ाई-झगडे हैं, ज़्यादातर रिश्तों में, Couples में भी लड़ाइयाँ देखने को मिलती है क्योंकि कोई सहन ही नहीं करना चाहता. ‘मैं क्यों सहन करूँ, मैं क्यों उसका सुनु, मैं ही क्यों?’
‘वो क्या सोचता है मैं उसके बिना जी नहीं पाऊंगा क्या?’ अथवा ‘वो क्या सोचती है उसके बिना मैंने जी नहीं पाउंगी क्या?’ ये Attitude लगभग आज देखने को मिल रहा है. ऐसे में हमें गंभीरता से सोचना होगा कि भगवान महावीर एक तरफ खड़े हैं और हम दूसरी तरफ Opposite तरफ खड़े हैं.
प्रभु कह रहे हैं सहन करो और हम कह रहे हैं बिलकुल सहन नहीं करना है. अब या तो प्रभु ज्ञानी है या तो हम ज्ञानी है या तो प्रभु Right है या तो हम Right है? या तो प्रभु सही है या तो हम सही है. हम खुद को सही, Right और ज्ञानी माने तो उस हिसाब से प्रभु अज्ञानी, गलत और Wrong हुए.
अब खुद से प्रश्न पूछना होगा कि क्या करना है प्रभु की बात माननी है या खुद की.
मुर्दा और आदमी
जो संघर्ष करने के लिए कमर कसता है वह डूबता है. जीता आदमी समुद्र के सामने प्रतीकार करता है, संघर्ष करता है इसलिए वह डूबता है. जबकि लाश तैरती है क्योंकि वह प्रतिकार या संघर्ष की भाषा समझती ही नहीं.
सागर की तरंगें उससे अठखेलियाँ करती हैं, प्रवाह उसे इधर-उधर फेंकता है लेकिन लाश सभी को अपनी मनमानी करने देती है. जिधर बहाओ बह जाने की उसकी पूर्ण तैयारी रहती है, अतः चाहे वह बीच समुद्र में क्यों न हो, वह तैरती है. भयंकर तूफानों से क्यों न टकरा जाए, तो भी वह तैरती है और एक दिन वही लाश किनारे पहुँच आती है.
जीते आदमी और मुर्दे में बस फर्क इतना ही है. एक संघर्ष करता है दूसरा नहीं. अतः एक डूबता है दूसरा तैरता है. संसार भी एक अथाह सागर है. जो जीव इसमें संघर्ष की सोचता है, प्रतिकार-प्रतिरोध के विचारवाला है वह डूबता है. जो संघर्ष-प्रतिकार-प्रतिरोध-प्रहार से दूर रहता है, वह तैरता है और पार हो जाता है.
याद रखना होगा कि जो भी व्यक्ति प्रहार करने गया, वह शासन से बाहर हो गया और संसार के विशाल जन्म-मरण के चक्कर में वह डूब जाता है. यह और कुछ नहीं बल्कि खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी दुष्चेष्टा कर बैठता है.
बात सही है कि सहन करना चाहिए, प्रभु ने किया है, अनंत तीर्थंकरों ने किया है, अनंत सिद्धात्माओं ने किया है लेकिन हमसे नहीं होता.
सहन नहीं करने का नुकसान क्या है जानेंगे अगले Episode में.