Mohraja VS Dharmraja – Friend or Foe : Episode 03

हम किसकी सुनते हैं - मोहराजा की या धर्मराजा की?

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हम गुलाम है या आज़ाद है?
हम किसकी सुनते हैं?
धर्मराजा की या मोहराजा की?
प्रस्तुत है Friend or Foe Book का Episode 03.

‘अवर अनादिनी चाल नित नित तजीएजी’

एक श्रोता को अपनी पत्नी पर इतना राग था, इतना Attachment था कि व्याख्यान में भी वे भाई बार-बार अपनी पत्नी का चेहरा देख ही लेते थे. प्रवचनकार ने यह बात देख ली और इसलिए व्याख्यान पूरा होते ही महाराजश्री ने महाशय को बुलाया और तीव्रराग के पाप से बचने के लिए उसको उपदेश दिया 

जगत स्वार्थ का साथी है, चाहे पत्नी हो या परिवार. स्वार्थ खत्म कि मित्र भी शत्रु बन जाते हैं. इसलिए स्नेह के बंधनों को तोड़ते रहना चाहिए.

यह सुनते ही महाशय तुरंत बोल उठे ‘महाराजजी! आप भी कमाल है, चार दिन के पहले आपने ही मैत्रीभावना के प्रवचन में कहा था, दुनिया के सभी प्राणी अपने मित्र हैं, कोई भी शत्रु नहीं है, सभी पर स्नेहपरिणाम रखना चाहिए और आज आप एक दम Opposite कह रहे हैं. मेरी Wife को मैं चाहता हूँ, उसके प्रति मेरा साहजिक स्नेह है और आप उसको तोड़ने का कह रहे हैं?’ 

तब महात्मा ने उसे कहा कि ‘देखो भाग्यशाली! जैसे मैत्री आदि चार भावनाएँ हैं वैसे ही अनित्यता आदि बारह भावनाएँ भी तो हैं. उन्हें भी हरदम चित्त में लाकर चिंतन के द्वारा चित्त को भावित करना चाहिए. 

इन बारह भावनाओं को बतानेवाले भी वे ही ज्ञानी भगवंत हैं. 

अशरण भावना में ‘ये स्नेही स्वजन, माता-पिता, पुत्र-पत्नी-परिवार वगैरह कोई भी शरणभूत नहीं हैं. न मौत से मुझे कोई बचा सकता है, न दुर्गति से, इसलिए इस संपूर्ण सृष्टि में मैं अशरण हूँ’ ऐसी भावना दिल में जगानी चाहिए. 

संसार भावना में ‘संसार में प्राप्त हुए सभी स्वजन स्वार्थ के साथी है, जोरदार हवा ने बड़े वटवृक्ष को जड़मूल से उखाड फेंका, सारे के सारे पक्षी रोने लगे, क्यों? क्या वे उस वृक्ष की यादों में आँसू बहा रहे हैं? अथवा अपना घोंसला-Need का आधार नष्ट हो गया इसलिए रो रहे हैं? 

स्वार्थमय विश्व में निःस्वार्थ प्रेम मिल नहीं सकता’ ऐसी सुंदर भावना से व्यक्ति संसार की आसक्ति को घटा सकता है, संसार के Attachment को घटा सकता है. 

एकत्व भावना में ‘जन्मा हूँ अकेला, कर्मों को बांधता हूँ अकेला, कर्मों को भोगना पडेगा अकेला, दुःखों को सहता हूँ अकेला, मरता हूँ अकेला, सब कुछ बस अकेला ही अकेला है. Alone in the World. तो फिर फ़ालतू में सारी दुनिया की झंझट से क्या? अकेला चलो रे.’ ऐसे चिन्तन में सदा मशगूल रहना. 

अन्यत्व भावना में ‘शरीर, धन, कुटुम्ब, पुत्र, पत्नी, परिवार आदि सब कुछ पराया है. 

मैं नहीं केरा कोई नहीं मेरा क्यूं करे मेरा मेरा,
तेरा है सो तेरे पास और सभी अनेरा,
आतमध्यानमां रे अवधू सदा मगन में रहनाPhrase from the Poem of Pu. Anandghanji Maharaj

अवधूत योगी आनंदघनजी कहते हैं सब कुछ तुमसे पर है, तेरा कुछ भी नहीं और जो तेरा है वह तेरे पास ही है यानि अनंत ज्ञान-अनंत दर्शन और अनंत चारित्र आदि तेरे सहज स्वाभाविक गुण बिलकुल तेरे पास ही हैं.’ 

इस तरह मैत्री आदि चार भावनाएँ हैं और अनित्यता आदि बारह भावनाएँ है, इन अलग अलग भावनाओं से भी अन्तःकरण को वासित करना है. यह विषय Detail में फिर कभी ज़रूर जानेंगे.

भावनाओं में विरोधाभास? 

यह सुनकर श्रोता महाशय दुविधामें पड़ गए. ‘अरे महाराज साहेब. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आती यह बात. आपने जो फरमाया उसके अनुसार तो यह तय हुआ कि जिन-जिन व्यक्तियों के साथ अपना मधुर संबन्ध स्थापित हुआ है, उसे तोड डालना, दिल में जो स्नेह पैदा हुआ है उसे कुचल देना. 

जबकि मैत्रीभावना में सृष्टि के हर जीव के साथ स्नेह संबन्धों को स्थापित करना है, कटुता को भगाकर दिल में माधुर्य को भरना है. ‘कोई भी व्यक्ति मेरा दुश्मन नहीं है, सभी मेरे दोस्त हैं.’ ऐसी सुंदर भावना के बल पर शत्रुओं को भी गले लगाना है, टूटे हुए तार को पुनः जोडना है. 

तो क्या पहलेवाली बात और इस बात में विरोध नहीं है?’ यानी एक बार कहा जाता है संबंधों के स्नेह को ख़त्म करो और दूसरी तरफ यह कहा जाता है कि स्नेह संबंधों को दिल में स्थापित करो. आखिर करना तो करना क्या?

हम अपनी दिल की Diary में एक बात नोट कर सकते हैं. सर्वज्ञ भगवंत की वाणी हमेशा Without Fault ही होती है, उसमें विरोधाभास या बिना मतलब की बात के लिए जगह ही नहीं होती है. मोती सागर के तट पर बिखरे हुए नहीं होते हैं, उसके लिए गहराई में उतरना पड़ता है, इसी तरह रहस्य की बातें ऐसे ही नहीं मिलती, कुछ गहराई में उतरना पडेगा. यह है छुपा हुआ रुस्तम, रहस्य. ‘अवर अनादिनी चाल नित नित तजीएजी’

भारी अज्ञानता 

पूज्य श्री कहते हैं कि अनादिकाल से यह आतमराम यानी हमारी आत्मा अज्ञान से घिरी हुई है. राग और द्वेष से परवश है, यानी Attachment और Hatred की गुलाम है ऐसा कह सकते हैं और कर्म जैसे नचाता है वैसे नाचती रही है. मोह यानी Attachment कह सकते हैं. 

मान लीजिए जिस चीज़ से हमें नुकसान होनेवाला है वह पता होने के बाद भी यदि हमारी आत्मा उसी तरफ जाए तो ऐसा समझना है कि आत्मा मोहराजा की सुन रही है. इन्हीं अज्ञान आदि दोषों का मारा यह आतमराम-मोहराजा को अपना मित्र मानता रहा है, जिस मोहराजा ने इसको भयंकर से भयंकर कष्ट दिए. 

जो कट्टर में कट्टर शत्रु है उस मोह को यह जिगरजान दोस्त मान बैठा है, उसे अपना हित करने वाला समझता है. जबकि हित करनेवाला तो धर्मराजा है फिर भी धर्मराजा को हृदय सिंहासन पर बिठाने के बदले मोहराजा को बिठा चुका है. मोहराजा जो भी आज्ञा करे उसे ‘जी हुजूर’ कहकर उसकी बात स्वीकार लेता है और आनंदित होकर काम करता है. 

पर हाय! आत्मा की उससे अवनति ही हुई है, Downfall ही हुई है, क्योंकि Actual में वह आत्मा का जानी दुश्मन है. वह कभी अच्छी और आत्मा का हित हो वैसी आज्ञा करता ही नहीं है, आत्मा के कल्याण की कामना तो उसके खून में नहीं है. 

By chance, ऐसी आज्ञा कर दे तो आत्मा का हित हो जाएगा और आत्मा मोक्ष में रफूचक्कर हो जाएगी. मोहराजा का एक गुलाम कम हो जाए? नहीं! ऐसा बिलकुल नहीं चलेगा. अतः आज्ञा देने में मोहराजा बड़ी ही सावधानी रखता है. कहीं ऐसा न हो कि गुलाम नौ-दो-ग्यारह हो जाए, मोक्ष में छू हो जाए. 

मधुबिन्दु जैसे वैषयिक क्षणिक सुखों को बताकर मोहराजा आत्मा को उल्टा अहित करनेवाली आज्ञाएँ करता है. बेचारा अज्ञानी जीव. क्षणिक वैषयिक सुखों की चकाचौंध में फंस जाता है और मोहराजा की आज्ञाओं को हितकर मानकर न करने जैसे पाप करता है, भयंकर कर्म बांधता है और अपने हाथों से अपना सत्यानाश कर बैठता है. 

इसको उदाहरण के साथ समझते हैं.

एक लड़का रास्ते में चल रहा है, सामने से सुंदर कन्या आ रही है, लड़का इस लड़की को देखता है, तब 2 Choices है. दिल में दो राजा बैठे हैं. धर्मराजा कहता है कि माँ, बहन बेटी है, बुरी नजर से मत देख वरना आत्मा कर्मों को बांधेगी और दुर्गति होगी लेकिन तभी मोहराजा कहता है कि ओह भाई आत्मा वात्मा कुछ नहीं होती, देख और मज़ा ले, आँखों को वासना से भर दे और मन में उस लड़की के साथ कुछ भी कल्पनाएँ कर ले, कुछ नहीं होगा. 

धर्मराजा यह आँखों के क्षणिक सुख से रोकता है लेकिन परिणाम में आत्मिक सुख देगा, और मोहराजा आँखों के क्षणिक सुख के बदले आत्मा को दुर्गति में ले जाएगा, आत्मा मोहराजा का सुनकर खुद का सत्यानाश कर बैठती है और मन ही मन में लड़की को लेकर नहीं करने जैसी कल्पनाएँ कर बैठता है. 

तो हमने Short में समझा धर्मराजा और मोहराजा क्या होता है. यही बात पाँचों इन्द्रियों के सुखों के विषय में समझना है. व्यसनों के लिए समझना है.

पूज्य श्री कहते हैं कि जैसे आधिनुकता की चकाचौंध में उलझा हुआ बेचारा अज्ञान, मूर्ख भारतीय. जिस Culture और Lifestyle के सहारे हजारों वर्ष तक विश्व की समृद्धियों के शिखर पर बैठा हुआ था, उसे छोड़ता जा रहा है और अंग्रेजों की = Western Culture की हर एक बात-हर एक सलाह को आँख बंद करके अपनाते जा रहा है. 

परिणाम में क्या हो रहा है सबको पता ही है, एक से बढकर एक विनाश हो रहा है.
आखिर कौन समझाए कि

भाई! पश्चिम की तरफ क्यों आँख फाडे जा रहे हो? पूर्व की तरफ नजर कर. पश्चिम में तो अस्त ही देखने को मिलेगा उदय नहीं. अभ्युदय देखना है तो पूर्व की ओर मुँह रख.’ आज की आधुनिकता भले दिखने में हमें मस्त लग रही हो लेकिन अंदर से हमें खोखला करती जा रही है.

दुःखपरंपरा का कारण 

पूज्य श्री कहते हैं कि बेचारा अज्ञानी जीव भी वैसा ही है. मोहराजा की फरमाइशों का पालन इसने पाँच पच्चीस बार नहीं, लाखों करोडों बार भी नहीं, पर अनंतीबार कर दिया है. उसकी हर आज्ञा को इस अभागिए ने सर आँखों पर उठाई है. 

मना करने की तो बात ही नहीं इसलिए उसकी आज्ञा का पालन रोजमर्रा की जिंदगी का एक अभिन्न अंग बन गया है, बिलकुल सहज, Routine बन गया है. बिलकुल स्वाभाविक, एक दम जैसे Natural. 

इसी बात को ज्ञानीपुरुष कहते हैं – अनादि की चाल.

पूज्य श्री कहते हैं कि अपनी इस Lifestyle से हम इतना Used to हो चुके हैं कि हमारा जीव उन आज्ञाओं का पालन एक दम Easily कर सकता है. जबकि आत्मा का एकान्त हित करनेवाली आज्ञाएँ उसे अखरती हैं, विचित्र लगती हैं. उनमें वह जीव Adjust ही नहीं हो पाता. परंतु बेचारा जीव अज्ञानी है न. 

अपने अनुभवों पर से भी इतना नहीं समझ पाता कि ‘एक के बाद एक ऐसी अनादि की चाल पर मैं चलता ही रहता हूँ और दुःखों की परंपरा Day by day बढ़ती ही जा रही है. मैं सुख के पीछे दौड़ता हूँ और दुःख मेरा गला घोंटता ही रहता है. न सुख मिलता है और न ही दुःख का पिंड छूटता है. 

हम खुद से पूछ सकते हैं कि आखिर बात क्या है? हो न हो, इन दुःखों का कारण मेरी उल्टी चाल-चलन ही होनी चाहिए, मोहराजा के हम नौकर बने, वही कारण होना चाहिए. हो सकता है कि मैं उल्टी चाल-चलन चलूँ और तुरंत में फल न भी मिले, दुःख न भी आए. 

किलो-डेढ किलो बर्फी दबाकर खा ली हो तो भला, इसका मतलब यह थोडा ही है कि तुरंत ही संडास की Visit लेनी पडे. दस बारह घंटे जाते हैं और बाद में असली मजा चखने को मिलता है. इसलिए यदि मुझे दुःखों का अंत लाना है तो इस अनादि की रीति-भात छोडनी ही पडेगी.’ 

मोहराजा : छिपा हुआ शत्रु 

करुणासागर सद्गुरु जीव को बताते हैं कि ‘हे भाग्यशाली. तू जिसे अपना हित करनेवाला मान रहा है वह सही मायने में तेरा दुश्मन है, आस्तीन का साँप है. अतः पहला काम तो यह करना होगा कि तेरे हृदय में जो सिंहासन है उस पर से मोहराजा को हटा और फिर विश्ववत्सल परम हितैषी धर्मराजा श्री अरिहंत परमात्मा का उस खाली सिंहासन पर अभिषेक कर. उसके बाद वे तारक प्रभु जैसी आज्ञा करें वैसा करने के लिए कटिबद्ध बन.’ 

प्रश्न उठ सकता है कि ‘पर भगवन! परमात्मा की किस पल कैसी आज्ञा है यह मुझे कैसे पता चले? मोहराजा की आज्ञा को समझना मेरे लिए बड़ी बात नहीं है क्योंकि बिलकुल सहजरूप से ही तदनुकूल आचरण हो जाता है. लेकिन परमात्मा की आज्ञा की बात तो ऐसी नहीं है तो आप ही फरमाइए मैं करूँ तो क्या करूँ?’ 

इसके उत्तर में सद्गुरु जिज्ञासु आत्मा को क्या जवाब देते हैं देखेंगे अगले Episode में.

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