मछुआरे की कथा जो हिलाकर रख देगी.
क्या हमारा सामना कभी ऐसे इंसान से हुआ है जिसे देखकर हमें लगा हो ‘ये तो पक्का पापी है!’ लेकिन क्या हो अगर वही व्यक्ति कुछ पल बाद भगवान बन जाए? जी हाँ, आज हम ऐसी की एक रोचक कथा देखेंगे.
बने रहिए इस Article के अंत तक.
एक बार दो गुरु भगवंत-गुरु और शिष्य महात्मा एक स्थान से विहार करके यानी पैदल यात्रा करके जा रहे थे और रास्ते में एक तालाब आया. तालाब में मछलियाँ तैर रही थीं और एक मछुआरा तालाब के किनारे खड़ा मछलियाँ पकड़ रहा था.
उसने बगल में टोकरी रखी थी. वह मछुआरा जाल फेंककर मछलियों को बाहर निकालकर उस टोकरी में भरता जाता. उस टोकरी में सैंकड़ों मछलियाँ मर चुकी थीं और सैंकड़ों बेचारी तड़प रही थीं.
वह मछुआरा अपना मछली पकड़ने का काम Non-Stop करते ही जा रहा था. गुरु और शिष्य महात्मा वहाँ से गुज़रे और फिर शिष्य ने क्रोधित होकर जोर से थूका… “छी”! गुरु ने कहा ‘क्या हुआ भाई?’
शिष्य महात्मा ने कहा कि ‘गुरूजी, कैसे पापी लोग है ना! अधम! मछलियाँ इतनी तड़प रही हैं, उस मछुआरे को दिख नहीं रहा क्या? गुरूजी, ये पापी किस गति में जाएगा? मेरे मन में एक ही बात आ रही है कि अगर मेरा चले तो उसकी गर्दन पकड़कर…’
गुरु महात्मा ने बीच में टोकते हुए कहा कि ‘शांत, शांत हो जाओ!’ शिष्य ने कहा कि ‘गुरुदेव आप मुझे शांत कर रहे हो, बाकी ऐसे पापी जीवों के मुँह में धगधगता हुआ सीसा डाल देना चाहिए!’
गुरु एक ही बात बोल रहे थे कि ‘शांत, शांति भाई, शांत.’ लेकिन शिष्य शांत होने को तैयार ही नहीं. उल्टा शिष्य महात्मा की कड़वाहट बढती ही जा रही थी. वे पुल के End पर पहुंचे और अचानक वाद्ययंत्र बजने की आवाज़ आई.
शिष्य ने गुरु से पूछा कि ‘गुरुदेव, ये वाद्ययंत्र बज रहे हैं क्या? और वह भी जंगल में? गुरु ने उत्तर दिया कि ‘हाँ बज रहे हैं’ शिष्य ने पूछा कि ‘किसके लिए बज रहे हैं?’ गुरु ने उत्तर दिया कि ‘देवता केवलज्ञान महोत्सव करने आ रहे हैं.’
यह गुरु महात्मा को अवधिज्ञान था तो पीछे देखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि देवता क्यों आ रहे हैं और किस लिए आ रहे हैं.
पुल के उस पार कोई मंदिर नहीं था, कोई बस्ती नहीं लेकिन फिर भी दिव्य नाद की गूंज चारों ओर गूंज रही थी, जैसे पूरा जंगल किसी बहुत ही Auspicious घटना के स्वागत में गा रहा हो.
शिष्य महात्मा के पैर थम गए और उन्होंने पूछा कि ‘गुरुदेव किसे केवलज्ञान हुआ है?’ गुरु ने उत्तर दिया ‘उस मछुआरे को.’ शिष्य महात्मा Shock हो गए और उन्होंने कहा ‘लेकिन गुरुदेव वह तो मछली मार रहा था ना?’
गुरु ने कहा कि ‘हाँ, वही मछुआरे को केवलज्ञान हुआ है, देशना सुनने जाना है? चलो हम चलते हैं.’ दोनों गुरु और शिष्य वापस मुड गए और चलने लग गए लेकिन अब पूरा Conversation बदल गया. शिष्य ने पूछा कि ‘गुरुदेव ऐसा कैसे हो सकता है?’
गुरु महात्मा ने बहुत ही अद्भुत तरीके से समझाया कि
देखो Simple बात है, जिस तरह से हमने उसे देखा, उसी तरह से उसने भी हमें देखा फर्क सिर्फ इतना था कि हमने उसे देखा और आपके मन में उस मछुआरे के लिए कड़वाहट जागने लगी कि ये जीव कितना पाप के मार्ग पर है.
उसने हम दोनों को देखा और उसके मन में भी कडवाहट जागने लगी लेकिन हमारे प्रति नहीं बल्कि खुद के प्रति. वह सोचने लगा कि ‘हे भगवान, मैं किस मार्ग पर हूँ. उसके हाथ कांपने लगे कि परिवार का पेट भरने के लिए मैं कैसे पाप कर रहा हूँ.
मैं कैसा अधम जीव हूँ कि मछलियाँ मार-मारकर बेहिसाब पाप का बंध कर रहा हूँ और ये मुनि भगवान कितने पवित्र जीव है, कैसे धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, किसी को तकलीफ नहीं देते बस सबका भला करते रहते हैं और अपनी आत्मा का कल्याण करते रहते हैं.
उस मछुआरे को साधु वेश के लिए बहुत आदर भाव जागा.
शिष्य महात्मा हैरानी से सुनते ही जा रहे थे.
गुरु महात्मा ने आगे कहा कि ‘देखो हमने उसे एक उपदेश भी नहीं दिया, एक शब्द तक नहीं बोला लेकिन उसने सिर्फ हमें देखा, इस साधु वेश को देखा, हम में साधु के दर्शन किए, हमारी चर्या देखी कि हम कितने शांति से चल रहे थे, हम विहार कर रहे थे.
अद्भुत भाव उसके मन में जागे और इन्ही विचारों को वह घोंटता गया, घोंटता गया और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान यानी पूर्णज्ञान प्राप्त किया.
उस मछुआरे का जाल वहीं रह गया लेकिन उसके अहम का जाल टूट गया और मछुआरे ने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया. अब इसलिए देवता महोत्सव में आ रहे हैं, चलो हम भी देशना सुनने चलते हैं.
No Doubt ऐसे Cases भरत महाराजा अथवा मरूदेवा माता जैसे बहुत Rarely होते हैं लेकिन इस कथा से निकलती कुछ बातें आज हम देखेंगे जो शायद हमारा जीवन भी हिलाकर रख देगी.
Moral Of The Story
1. Court भी कम से कम 2-3 Trial के बाद अपना Judgement, अपना Verdict देती है, हम तो एक क्षण में फैसला दे देते हैं कि ‘सामनेवाला व्यक्ति कितना बुरा है और उसमें कितनी बुराइयां हैं.’
खुद का तो हमारा ठिकाना नहीं लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि हमने नरक की Booking का ठेका ले रखा है कि ‘ये व्यक्ति तो पक्का नरक जाएगा, अरे ये भाई तो पक्का नरक में सड़ेगा.’
नरक का Register तो हमारे ही हाथ में हैं ऐसा हम Behave करते हैं. विचार करने जैसा है कि क्या हम किसी को Judge करने लायक है, अधिकार है? योगसार ग्रंथ में लिखा है कि दूसरे को गिरा हुआ मानना, वह हमारे पतन का सूचन है.
2. यह कथा हमें यह Learning देती है कि किसी भी जीव की यात्रा किसी भी क्षण मोक्ष की तरफ शुरू हो सकती है. हम में से कोई भी यह तय नहीं कर सकते कि कौनसे जीव का कब कल्याण हो जाए.
शायद ऐसा भी हो सकता है कि हम यहाँ पर चर्चा करें और उस आत्मा का मोक्ष हो चुका हो. इसलिए ही कहते हैं कि हर आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने चाहिए.
3. धर्म क्रिया बिलकुल भी गलत नहीं है, धर्म क्रिया हमें परमात्मा तक जोड़ने का काम करती है, लेकिन लक्ष्य परमात्मा से जुड़कर परमात्मा जैसा बनना है, लेकिन हम क्रियाओं में इतना उलझ जाते हैं कि उसके बाहर का कुछ सोच ही नहीं पाते.
हर व्यक्ति की क्रिया के हिसाब से हम उस पर धार्मिक या अधार्मिक का ठप्पा लगा देते हैं. उस व्यक्ति के अंदर की विचारधारा क्या चल रही होगी यह तो हम सोच भी नहीं पाते या फिर शायद सोचना भी नहीं चाहते.
4 प्रकार के धर्म में भी भाव धर्म को ही प्रधानता दी गई है. षोडशक नाम के ग्रन्थ में सिर्फ आचार-क्रिया को ही देखनेवाले को मध्यमबुद्धि कहा है और अंदर के भाव को देखनेवाले को पंडित कहा है. हम कौन हैं? सोचने जैसा है.
4. दीक्षा लेने के बावजूद वह शिष्य महात्मा ने मछुआरे में दोष देखें और मछुआरा एक मछुआरा होने के बावजूद महात्मा में गुण देखता है, परिणाम स्वरुप केवलज्ञान की प्राप्ति वह जीव करता है.
महात्मा ने दोष देखें तो उन्हें कडवाहट की प्राप्ति हुई, मन अशांत हुआ. मछुआरे ने गुण देखें तो आत्म कल्याण हो गया. हम जो देखते हैं, वैसा ही हमारा Future होता है.
5. हम लगभग दूसरों का ही देखते हैं, खुद का नहीं देखते. और आजकल तो अपरिपक्व व्यक्ति भी बिना कोई अभ्यास के ज्ञान बांटते फिरता हैं कि महात्मा को क्या करना चाहिए और क्या नहीं.
एक Basic चीज़ अगर यह मछुआरे से सीखने जैसी है तो वह यह है कि खुद का देखो, खुद के अंदर झांको, जो खुद का देखता है वही आगे बढ़ता है.
6. कुदरत बहुत ही खतरनाक है, नचाने में समय नहीं लगाती. जो शिष्य महात्मा मछुआरे की निंदा कर रहे थे, कोस रहे थे, धिक्कार रहे थे वही महात्मा कुछ समय के बाद उसी जीव की देशना सुनने के लिए निकल पड़ते हैं. यह चमत्कार नहीं तो क्या है.
7. शास्त्रों में कहा है “साधूनां दर्शनं पुण्यं” – सच्चे साधु के दर्शन से भी जीवन बदल सकता है. प्रवचन या उपदेश से तो बदलता ही है लेकिन सच्चे साधु भगवंतों की एक झलक, एक दर्शन भी आत्मा का कल्याण कर मोक्ष पहुंचा सकती है.
8. English में एक बहुत प्रसिद्द कहावत आती है
“Don’t Judge The Book By It’s Cover”
हम अक्सर बाहरी व्यवहार देखकर व्यक्ति को Judge करते हैं लेकिन हमें ना तो उसकी मज़बूरी पता होती है और ना ही उसकी परिस्थिति. उसके अंदर क्या चल रहा होता है वह तो केवली भगवंत ही जाने.
इसलिए सिर्फ देखकर या किसी की बातें सुनकर किसी को भी Judge करना हमारी आत्मा के लिए बिलकुल भी उचित नहीं है. परमात्मा ने हमें Judge करने का अधिकार दिया ही नहीं है.
9. परिवर्तन क्रोध से नहीं शांति से ही होता है. यदि महात्माओं ने क्रोध करके मछुआरे के सामने कडवे शब्द बोल दिए होते तो शायद उस मछुआरे के भाव बिगड़ सकते थे लेकिन महात्मा चुपचाप चलते रहे.
शिष्य की कडवाहट मछुआरे तक पहुंची नहीं थी, मुनि भगवंतों के इस शांत स्वाभाव से मछुआरे का परिवर्तन हो गया. यह चीज़ Parents को ख़ास सीखने जैसी है. अगर शिशु को शांत करना है तो खुद पहले शांत होना होगा.
10. महात्मा के दर्शन मात्र से मछुआरे का जीवन परिवर्तन हो जाता है, हमने आजतक ना जाने कितने महात्माओं के कितनी बार दर्शन किए होंगे लेकिन आजतक परिवर्तन अगर नहीं हुआ है.
तो सोचने जैसा है आखिर इसके पीछे का कारण क्या हो सकता है, मछुआरे जितने भी विनम्र शायद हम नहीं है, यही कारण हो सकता है हमें खुद-खुद का आंकलन करना होगा.
11. गुरु भगवंतों की नम्रता यहाँ पर विशेष समझने जैसी है. वह गुरु और शिष्य महात्मा को जब पता चला कि मछुआरे को केवलज्ञान हुआ है तो भी चुपचाप आगे निकल सकते थे कि किसी और केवली की देशना सुन लेंगे.
अभी अभी तो इस जीव की निंदा की है, अभी अभी तो उसे धिक्कारा है, अब फिर से उसी जीव के सामने जाकर बैठना थोडा मुश्किल भी हो सकता है. अहंकार को किस हद तक की चोट पहुँच सकती है.
लेकिन फिर भी दोनों महात्मा, उन्ही केवली की देशना सुनने के लिए U-Turn लेते हैं. कितनी नम्रता.
12. कई बार हम बोलते हैं कि कपड़ों में क्या रखा है, वेश में क्या रखा है, Don’t Judge Me By What I Wear.
इधर वेश देखकर केवलज्ञान हो गया. वेश देखकर सामनेवाले व्यक्ति के भावों में परिवर्तन होता है. मानो या ना मानो. इसलिए बालजीवों के लिए वेश का भी बहुत महत्त्व है.
13. कभी-कभी मौन सबसे बड़ा उपदेश होता है-गुरु भगवंतों ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ पास से गुज़रे, लेकिन उन्हीं का मौन, मछुआरे के जीवन की सबसे ऊँची आवाज़ बन गया.
14. “मैं कुछ नहीं हूँ”-यह भाव “सर्वज्ञ” बनने की सीढ़ी बन सकता है.
15. गुरु शिष्य को कडवे शब्द बोलने के लिए ना बोलते रहे पर शिष्य समझे नहीं कि ‘क्यों?’ और कुदरत ने ही गुरु की बात को सच्चा Prove कर दिया. गुरु ज्ञानी होते हैं और उनका हरेक वचन सोचने जैसा होता है.
16. मछुआरे ने दरअसल मुनि के दर्शन कर खुद को देखा.. खुद को Judge किया और खुद को देखा तो सब कुछ पा लिया यानी केवलज्ञान को पा लिया.
अंत में एक प्रश्न खुद के लिए खड़ा करना होगा “क्या अब भी किसी को देखकर Judge करने का तुच्छ काम हम करेंगे?”