आज हम जिस महापुरुष के बारे में जाननेवाले हैं उनका नाम वादिवेताल प.पू. आचार्य भगवंत श्री शांतिसूरीजी महाराज साहेब है. वादिवेताल यानी जैसे वेताल का प्रवेश होने पर अच्छे अच्छे लोग त्रस्त हो जाते हैं वैसे ही जहाँ शांतिसूरीजी महाराज साहेब का नाम आता था, वहां पर भलभले वादी त्रस्त हो जाते थे यानी हिल जाते थे.
आखिर आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. कौन थे और उन्होंने क्या क्या किया था?
उसकी बड़ी घटना आज हम देखेंगे.
बने रहिए इस Article के अंत तक.
भीम के तेजस्वी लक्षण
11वी शताब्दी की बात है. युगप्रधान प.पू. आचार्य श्री हारिलसूरीजी म.सा. के गच्छ में हुए पू. आचार्य श्री भटेश्वरसूरीजी म.सा. से थारापद्रगच्छ निकला था जिसमें अनेक विद्वान आचार्य भगवंत हुए थे.
थारापद्रगच्छ में पू. विजयसिंहसूरीजी म.सा. नामक आचार्य हुए थे. वे चैत्यवासी थे यानी वे मंदिरों में ही रहते थे. थोड़े शिथिलाचार यानी आचारों के पालन में कमी का प्रवेश उस समय हो गया था पर उनकी निष्ठा में बिलकुल भी कमी नहीं आई थी. वे संपतकरशांतु मेहता के चैत्य में रहते थे.
एक दिन राधनपुर के पास में उण नामक गाँव में आचार्य श्री गए थे. वहां जिनालय में दर्शन करने के बाद उनकी नजर एक लड़के पर पड़ी. उस लड़के के लक्षणों में प्रभावकता के चिन्ह स्पष्ट रूप से दिख रहे थे.
वह लड़का उण गाँव के निवासी श्रीमाली सेठ धनदेव और उनकी पत्नी धनश्री का भीम नामक पुत्र था. भीम बचपन से ही भीम जैसा ही था यानी तीक्ष्ण बुद्धिवाला था. उसका भाल यानी Forehead बहुत विशाल था. उसके हाथ घुटनों तक यानी Knees तक आते थे और अन्य कई लक्षण उसमें होने से वह बहुत तेजस्वी लगता था.
विजयसिंहसूरीजी म.सा. धनदेव सेठ के पास गए और संघ के कल्याण के लिए उन्होंने सेठ से उनके पुत्र की यानी भीम की याचना की.
ऐसा कोई Rule नहीं है कि गुरु भगवंत सिर्फ गोचरी ही वहोर सकते हैं लेकिन यदि किसी की क्षमता हो और यदि कोई शासन के भविष्य के लिए तेजस्वी लगता हो तो पुत्र को भी वहोरने में कोई शर्म या संकोच या शास्त्र विरोध नहीं आता है. महापुरुष महापुरुषों को जान सकते हैं.
हमारे घर के रत्न को तराशने का काम सिर्फ और सिर्फ साधु भगवंत ही कर सकते हैं क्योंकि लगभग सभी को अपने घर का स्वर्ण सिक्का भी खोटा सिक्का ही लगता है. इसलिए हमारे घर में रहनेवाले रत्न को कई बार हम पहचान नहीं पाते हैं और उसकी उपेक्षा करते हैं.
चिंटू, मिंटू, पिंटू कहकर उसका मजाक बना देते हैं पर हर चिंटू, मिंटू, पिंटू में कोई ना कोई तेजस्विता होती है जिसे हम पहचान नहीं पाते हैं लेकिन अगर उसे पहचानना है तो गीतार्थ गुरु भगवंतों का शरण स्वीकारना होगा.
सेठ ने जब एक आचार्य श्री याचना कर रहे हैं तब यह बात देखकर और भविष्य में बड़ा लाभ होगा यह समझकर अपने पुत्र को आचार्य श्री को समर्पित कर दिया. कितनी उदारता थी. आचार्य श्री ने धनदेव सेठ के पुत्र भीम को संयम जीवन अंगीकार करवाया और नूतन मुनिराज का नाम रखा गया पू. मुनिश्री शांतिभद्रविजयजी.
उन्होंने शास्त्रों और सिद्धांतों की पढ़ाई की और उनकी आचार्य पदवी के अवसर पर उन्हें पू. आचार्य श्री शांतिसूरीजी नाम दिया गया. अंत में उन्हें गच्छ का भार सौंपकर अनशन ग्रहण कर पू. आचार्य श्री विजयसिंहसूरीजी म.सा. का देवलोकगमन हुआ.
सरस्वती देवी का वरदान
आचार्य शांतिसूरीजी ने राजगच्छीय महातार्किक पू. आचार्य भगवंत श्री अभयदेवसूरीजी म.सा. के पास न्याय और तर्क की पढ़ाई की थी और थारापद्रगच्छ के पू. आचार्य श्री सर्वदेवसूरीजी म.सा. जो खुद भी बहुत बड़े प्रभावक थे, उनके पास जिनागम का ज्ञान प्राप्त किया था.
आचार्य शांतिसूरीजी ने पाटन में जाकर राजा भीमदेव जो वि.सं. 1078 से लेकर 1120 तक राजा थे, उनकी राजसभा में खुद की प्रतिभा के द्वारा कविन्द्र और वादी चक्रवर्ती का मानव बिरुद यानी Title प्राप्त किया था.
भैरा नगरी में भोजराज जो बहुत Famous राजा थे, उनकी पंडितों की सभा में प्रधान कवी धनपाल ने तिलकमंजरी नाम की कथा जो बहुत ही प्रसिद्द कथा है और जिसका नाम उनकी खुद की पुत्री के नाम से रखा गया है और जो बहुत उत्कृष्ट कथा है उसकी रचना की थी.
उन्होंने उसके लिए पू. महेंद्रसूरीजी म.सा. को पूछा था कि ‘इस कथा का संशोधन कौन करेगा?’ और आचार्य श्री ने कविराज को वादिवेताल आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. का नाम बताया था.
कवीश्री आचार्य शांतिसूरीजी म.सा. के लिए पाटन आए थे और सबसे पहले उन्होंने एक शिष्य के साथ वार्तालाप शुरू किया था. शिष्य के साथ हुए उस वार्तालाप से कविश्री को पता चल गया था कि ऐसे विद्वान शिष्यों के गुरु विद्या के गहरे सागर ही होंगे इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है.
धनपाल कवी ने आचार्य शांतिसूरीजी म.सा. को धारानगरी में पधारने की विनंती की और मंत्रिश्वर खुद आचार्य श्री के साथ में रहकर उन्हें वि.सं. 1083 में धारानगरी की तरफ ले गए.
धारानगरी के रास्ते के बीच में एक रात को देवी सरस्वती ने प्रत्यक्ष होकर आचार्य श्री को आशीर्वाद दिया कि ‘आप आपका हाथ ऊँचा करके जहाँ भी वाद करेंगे, वहां आपको विजय की प्राप्ति होगी.’ धारानगरी पहुँचने से पहले आचार्य शांतिसूरीजी म.सा. एक स्थान पर रुके हुए थे.
01 VS 500
राजा भोजराज ने सामने से आकर आचार्य श्री को बताया कि ‘धारा की सभा में बहुत बड़े बड़े वादी हैं. उनमें से जितने वादियों को आप जीतेंगे उतने लाख मालवी द्रम यानी मालव के सोने आपको मिलेंगे. देखते हैं, गुजरात के जैन साधुओं में विद्वत्ता का कितना सामर्थ्य है.’
आचार्य श्री ने राजा भोज की सभा में 84 जितने वादियों को जीत लिया जिनका नाम बहुत अलग अलग जगहों पर आता है. फिर तो अन्य 500 वादी शास्रार्थ के लिए धारानगरी पहुँच गए.
आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने सभी वादियों को जीत लिया और इस तरह से जीतते जीतते पैसे की रकम इतनी बढ़ गई कि भोज राजा भी खुद Confusion में पड़ गए. कविश्वर धनपाल ने राजा के मन को जान लिया और उसका तोड़ निकाला.
‘पू. आचार्य श्री का नाम शांति है परंतु वादियों के सामने वेताल जैसे हैं इसलिए अब ज्यादा वाद यानी Debate करने की जरुरत नहीं है.’ राजा ने आचार्य श्री को 84 लाख मालवी द्रम दिए थे जो उस समय की गुजराती पैसों के हिसाब से 12 लाख सोना मोहर होती है.
परंतु सच्चे साधु कभी पैसे लेते नहीं हैं, देते नहीं हैं और ना ही उनका कोई Personal Bank Balance होता है, ना ही Personal Project होता है और ना ही वे कभी खुद के लिए पैसों की याचना करते हैं.
जहाँ कहीं भी हमें पैसे आदि की चीजें दिखती हैं, वहां पर विवेक रखना बहुत जरुरी है. जहाँ भी पैसों का जोड़-तोड़ है वहां पर ख़ास विवेक रखना चाहिए. यदि हमें ऐसा लगे कि गुरु भगवंत खुद पैसे रखते हैं या हमें शंका हो जाए तो उसमें सतर्कता रखनी जरुरी है क्योंकि यदि कोई गड़बड़ होती है तो अंत में जिनशासन की ही हीलना होगी.
ना गुरु भगवंत का नाम और ना ही देनेवाले का नाम, सिर्फ जिनशासन का नाम ख़राब होगा.
आज भी ऐसा सुनने में आता है कि साधु वेश धारण करके पैसों की मांग की जाती है. इस जगह पर श्रावक श्राविकाओं को विवेकपूर्ण वर्तन करना बहुत जरुरी है, नहीं तो उनके ह्रदय से भी जिनशासन टूट जाएगा.
पैसे मांगने की जरुरत तब ही पड़ती है जब आवश्यकता होती है इसलिए पहले आवश्यकता जानना जरुरी है और यदि लगे कि आवश्यकता नहीं है तो विवेक और विनयपूर्वक मना भी किया जा सकता है.
कोई भी जैन साधु साध्वीजी भगवंत खुद के लिए पैसे नहीं मांगते यह स्पष्ट बात है. साधु साध्वीजी भगवंत धर्म कार्य के लिए, संघ में कोई सुकृत करवाने के लिए संघ के श्रावक श्राविकाओं को प्रेरणा अवश्य कर सकते हैं लेकिन खुद के लिए कभी पैसों की मांग नहीं करते हैं.
राजा भोजराज ने आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. को जो 84 लाख द्रम अर्पित किए थे उससे धारानगरी में जैन मंदिर बनवाया गया था. कविश्वर धनपाल ने भी खुद की तरफ से 6 हजार द्रम दिए थे और वो आचार्य श्री की आज्ञा से थराद के जैन मंदिर में भेजे गए थे.
थराद संघ ने उस द्रम यानी उस समय की एक Type की Currency से आदिनाथ भगवान के देरासर में Right Side की ओर एक देहरी बनाई थी और एक रथ भी बनाया था. आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने तिलकमंजरी कथा में उत्सुत्र प्ररुपणा यानी गलत बातें ना रहे इसलिए बहुत संशोधन किया था.
भोजराज ने आचार्य श्री को “वादिवेताल” का बिरुद देकर गुजरात के समर्थ विद्वान की Value की थी. आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. राजा भीमदेव की विनंती से धारानगरी से विहार करके कविश्वर धनपाल के साथ पाटन पधारे थे.
पाटन में सेठ जिनदेव ने खुद के पुत्र पद्मदेव को सांप के डंसने के कारण से जमीन के अंदर डालकर रखा था. आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने उसे बाहर निकालकर उसपर अमृत का छिटकाव किया और छिटकाव करते करते उन्होंने सिर्फ पद्मदेव के हाथ को स्पर्श किया और पद्मदेव का जहर उतर गया.
महापुरुषों के हाथ में भी अमृत होता है. उनके विचारों में, हाथ में और वाणी में अमृत होता है. अमृतमय जीवन जैन साधुओं का होता है.
ज्ञान का अद्भुत क्षयोपशम
सेठ जिनदेव ने आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. को अत्यंत उत्साहपूर्वक अपने घर ले जाकर फिर उपाश्रय में पहुंचाया था. आचार्य श्री खुद के 32 शिष्यों को पाटन में न्याय शास्त्र का अभ्यास करवाते थे.
बडगच्छ के पू. आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. नाडोल से विहार करके पाटन की चैत्यपरिपाटी करने के लिए पाटन पधारे थे. वे एक दिन श्री ऋषभदेव भगवान के दर्शन करने के लिए गए. आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. अपने शिष्यों को वहां पर पाठ दे रहे थे.
आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. उनके पास गए और उन्हें वंदन करके पास में बैठे और उस समय बौद्ध दर्शन का प्रमेउ का पाठ चल रहा था. आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. ने आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. के पास 10 दिन रहकर पाठ के समय हाजरी दी यानी उपस्थिति रखी और उस पाठ को बिना उसकी पुस्तक पढ़े Byheart कर लिया.
परंतु आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. के शिष्य उस पाठ को याद नहीं कर सके इसलिए आचार्य श्री को भारी खेद हुआ. आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. ने यह देखकर आज्ञा मानकर उस 10 दिन के पाठ को अनुक्रम से सुना दिया.
यह सुनकर आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. एकदम खड़े हो गए और अत्यंत उत्साहपूर्वक आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. के गले लग गए और उन्हें कहा कि ‘सचमुच, तुम धुल में ढके हुए रत्न हो. तुम मेरे पास रहकर अभ्यास करो.’
आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. को ख्याल आ गया कि पाटन में संवेगी मुनियों को यानी अच्छे चारित्र पालन करनेवालों को रहने का स्थान नहीं मिलता है. इस कारण से उन्होंने आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. को टंकशाल के पीछे एक घर में रखा और उन्हें षट्दर्शन का अभ्यास करवाया.
आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरीजी म.सा. ने बिना किसी परिश्रम के उसे याद कर लिया. उस दिन से चैत्यवासियों की तरफ से सुविहित साधुओं को यानी अच्छे साधुओं को Easily वसति यानी रहने की जगह मिलना शुरू हुई.
यह घटना लगभग वि.सं. 1094 के समय में हुई होगी ऐसा लगता है.
वादीवेताल शांतिसूरीजी
कौलमत के आचार्य श्री धर्मपंडित, कविश्वर धनपाल की सुचना से वादिवेताल आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. के पास पाटन आए और उनके साथ वाद करने की शुरुवात की. आचार्य श्री धर्मपंडित ने पहला प्रश्नचक्र चलाया.
आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने खुद को देव साबित करे और पंडित को Dog साबित करे ऐसा जवाब दिया. फिर तो पंडित ने Aggressive वाद शुरू किया यानी अपशब्द आदि बोलने शुरू किए.
आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने उस पाठ को जैसा उसने बोला था वैसा का वैसा उसे सुनाया और पंडित की Exact नक़ल हर चीज़ में करके बताई. पंडित ने उनके चरणों में मस्तक झुका दिया और कहा कि ‘कविश्वर धनपाल ने जैसा कहा था, आप बिलकुल वैसे ही हैं.’
आचार्य श्री स्वभाव से शांत थे उस कारण से पंडित भी शांत हो गया.
समझने जैसी चीज़ है कि हम जैसा बर्ताव रखेंगे सामनेवाला भी वैसा ही बर्ताव करेगा. अगर हम Positive रहेंगे तो सामनेवाला भी Positive रहेगा और अगर हम Negative रहेंगे तो सामनेवाला Negative रहेगा.
आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने द्रविड़ यानी South India के एक विद्वान को भी जीतकर शांत किया था. इतना ही नहीं, आचार्य श्री ने 415 राजकुमारों को जैन बनाया था.
एक बार एक धूल का किला यानी Fort बनाया गया था और आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ने वह किला भविष्य में गिर जाएगा ऐसी भविष्यवाणी की थी जिससे 700 श्रीमाली कुटुंब बच गए थे और उन 700 परिवारों को भी आचार्य श्री ने दृढ़ जैन धर्मी बनाया था.
ऐसी तो बहुत सारी घटनाएँ उनके जीवन में हुई थी. श्री उत्तराध्ययन सूत्र की जो सबसे Important और मुख्य टिका है उसके भी रचियता वादिवेताल आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. ही थे. ऐसे अनेक विद्वान जिनशासन में हुए हैं और उनमें से एक आचार्य श्री शांतिसूरीजी म.सा. थे. आज उनके जीवन की कुछ घटनाएँ हमने जानी.