क्या माता – पिता की अनुमति के बिना दीक्षा ले सकते हैं?

Can a Mumukshu take Diksha without Permission of Parents ?

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By Jain Media 590 Views 34 Min Read
Highlights
  • हर मुमुक्षु को पहली Priority पर तो अपने माता-पिता से दीक्षा की सहर्ष अनुमति लेने का भरपूर प्रयास करना ही चाहिए. समय लग सकता है लेकिन मुमुक्षु को प्रयास करते रहना चाहिए और उनके आशीर्वाद के साथ दीक्षा लेनी चाहिए. यह हर मुमुक्षु का कर्त्तव्य है. 
  • गीतार्थ गुरु भगवंत के मार्गदर्शन से अनुमति ना मिलने पर प्रबल वैरागी आत्मा को अपवाद मार्ग का सेवन करते हुए माता-पिता की अनुमति के बिना भी दीक्षा के मार्ग में आगे बढ़ाना कोई ग़लत बात नहीं है. 
  • जो माता-पिता धर्म करने में रूकावट पैदा करे, अंतराय करे उनसे बड़ा शत्रु पूरे विश्व में कोई नहीं है, जो अपने बेटे बेटियों को सुविधा की तो भरमार दे रहे हैं लेकिन संस्कारों या धर्म से नहीं जोड़ रहे हैं, वे तो उपकारी नहीं बल्कि शत्रु हुए क्योंकि वे संतानों के लिए दुर्गति का द्वार खोल रहे हैं.

क्या माता पिता की अनुमति के बिना बेटे या बेटी की दीक्षा हो सकती है?

यह प्रश्न अभी के समय में कई लोगों के लिए Hot Topic बन गया है. WhatsApp में व्यस्त रहनेवालों के लिए यह एक चर्चा का विषय बन चुका है, जितना सरल हमें यह विषय लगता है, उतना सरल है नहीं इसलिए आइए आज इस संवेदनशील विषय पर कड़वी लेकिन सच बात जानने का प्रयास करते हैं. 

बने रहिए इस Article के अंत तक.

जैनधर्म में अनेकांतवाद

इस Topic को समझने से पहले हमें जैन धर्म की एक सुंदर व्यवस्था-अनेकांतवाद में बताए गए 2 मार्ग के बारे में Open Mind से जानना होगा.

1. उत्सर्ग मार्ग और 2. अपवाद मार्ग.

1. उत्सर्ग मार्ग यानी जिस व्यवस्था का पालन करने के लिए कहा गया है यानी जो करना Compulsory है. For Example, जैन साधु भगवंत के लिए ‘एगभत्तं आहारं’ यानी एकाशने का यानी दिन में एक बार ही भोजन ग्रहण करने का आचार बताया गया है. नंगे पैर, पैदल चलकर ही विहार करने का आचार बताया गया है. 

2. अपवाद मार्ग यानी Exception. For Example, कोई ग्लान यानी बीमार साधु हो या बुजुर्ग साधु भगवंत हो या किसी साधु को कोई अन्य परेशानी हो तो ऐसी Situation में वे अपने गुरु की आज्ञा लेकर नवकारसी का पच्चक्खान भी कर सकते हैं. Same अगर नंगे पैर पैदल विहार करने में परेशानी हो, छाले हो गए हो, एक कदम भी आगे रख नहीं पा रहे हो, तो वे मोज़े पहनकर विहार करते हैं. इसे अपवाद मार्ग कहते हैं.

एक बात यहाँ समझनी है कि अपवाद मार्ग का सेवन अनिवार्य संयोगों में जरुरत पड़ने पर, जब दूसरा कोई रास्ता ना हो तब ही किया जाता है. बिना किसी कारण से अपवाद मार्ग का सेवन नहीं किया जाता. अब इन दोनों मार्गों को ध्यान में रखते हुए “क्या एक मुमुक्षु बिना माता-पिता की अनुमति के दीक्षा ले सकते हैं?” इस प्रश्न के उत्तर को अलग अलग Angles से जानने का प्रयास करते हैं.

आदिनाथ प्रभु or महावीरस्वामी प्रभु?

तीर्थंकर परमात्मा की बात करें तो ऐसा कहा जाता है कि आदिनाथ प्रभु ने दीक्षा ली थी तब मरुदेवी माता 1000 वर्ष तक रोए थे और दूसरी तरफ़ 24वें तीर्थंकर महावीर प्रभु ने तो गर्भ में ही यह निर्णय कर लिया था कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक दीक्षा नहीं लेंगे और भाई नन्दिवर्धन के कहने पर दो वर्ष तक राजमहल में रहकर भी साधु जैसा जीवन जीया था और फिर दीक्षा ली थी. 

जैन धर्म में किसी भी चीज़ को लेकर एकांत नहीं है, इसे ही अनेकांतवाद कहते हैं. यदि आदिनाथ प्रभु का दृष्टांत देखें तो माता-पिता को रोता बिलखता छोड़ दीक्षा सही हुई और यदि महावीर प्रभु का दृष्टांत देखें तो अनुमति से ही दीक्षा उचित हुई. नेमिनाथ प्रभु तो शादी करने के लिए निकले थे और रथ को वापस मोड़ा और पहुँच गए गिरनार. अब क्या करें?

कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि ‘जैन शास्त्रों में, जिनवाणी में कहा गया है कि बिना माता-पिता की अनुमति के दीक्षा ले ही नहीं सकते.’ लेकिन उन लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिनके शासनकाल में हम जी रहे हैं यानी 24वे तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी भगवान के समय में, जब प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई तब इंद्रभूति आदि 11 व्यक्ति प्रभु से Debate करने आए थे. 

प्रभु ने उनके Doubts Solve किए और उन 11 आत्माओं ने तुरंत वहीं पर दीक्षा ले ली, वे घर जाकर अनुमति लेकर नहीं आए थे ना ही घर से दीक्षा की तैयारी के साथ आए थे, और वे बने प्रभु के शासन के गौतमस्वामीजी आदि 11 गणधर भगवंत. तो अब क्या करें इन्हें Copy करें? 

कि भाई आज मन हुआ तुरंत दीक्षा लेनी है और गुरु भगवंत दे दे? जी नहीं. गीतार्थ गुरु भगवंत उसकी भी अनुमति लगभग नहीं देंगे. उस समय तीर्थंकर परमात्मा स्वयं दीक्षा दे रहे थे, वो केवलज्ञानी है, शासन के हित में ही वो कोई भी कार्य करेंगे लेकिन अभी के समय में क्या कोई केवलज्ञानी है? नहीं. इसलिए उन्हें Blindly Follow नहीं किया जा सकता. 

अब ज़्यादा दूर के नहीं लेकिन निकट के इतिहास में ऐसे अनेकों Cases हैं जहां कुछ आत्माओं ने बिना माता-पिता की अनुमति के दीक्षा ली है और उनके गुरु ने दीक्षा दी भी है तो क्या वे सभी ग़लत है? जी नहीं. वे भी ग़लत नहीं है. एक से एक धुरंधर महात्मा निकले. आप शायद कहेंगे कि भाई ये क्या गोलमाल है? सही है या नहीं एक लाइन में बता दो ना. 

यह प्रश्न ही ऐसा है कि इसमें एक लाइन में जवाब नहीं दिया जा सकता, इसमें कई अगर-मगर, If and But आएंगे इसलिए अनेकांतवाद सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए गंभीरतापूर्वक हम आगे अलग-अलग Situations के हिसाब से अलग अलग Angles जानते हैं.

दीक्षा किस तरह?

महापुरुष तो ऐसे होते थे कि वैराग्य होते ही निकल जाते थे, Training तो दूर की बात, माता पिता को पूछते भी नहीं थे, उनसे रहा ही नहीं जाता था, तो क्या बच्चों को बिना माता-पिता की आज्ञा के ही दीक्षा ले लेनी चाहिए? जी नहीं! आचार्य स्थूलभद्रजी की योग्यता देखकर उनके गुरु आचार्य संभूति मुनि ने उन्हें कोशा वेश्या के यहाँ चातुर्मास करने की आज्ञा दी थी, शालिभद्र की कथा में संगम ने पूरी खीर वहोरा दी थी और महात्मा ने पूरी खीर वहोर ली थी.

सामान्य तौर पर गुरु भगवंत कोई भी भोजन सामग्री पूरी नहीं वहोरते, लेकिन इतिहास में ऐसे कई अलग-अलग प्रकार के विशिष्ट दृष्टांत हमें सुनने को मिलते ही है, ऐसे अनेकों दृष्टांत हमने कई बार प्रवचनों में सुने भी होंगे लेकिन यह दृष्टांत जब कोई विशिष्ट ज्ञानी नहीं है ऐसे आज के काल में अप्रस्तुत है, यानी अनुपयोगी है, अर्थात् इनकी Copy करना उचित नहीं है ऐसा गीतार्थ गुरु भगवंत फरमाते हैं. 

जैन शास्त्रों के अनुसार भले पहले के और वर्तमान के भी कई महापुरुषों ने तुरंत दीक्षा ली हो, बिना अनुमति ली हो, ऐसी सैंकड़ो घटनायें होने के बावजूद वास्तविक व्यवस्था तो यह ही है कि माता-पिता द्वारा अनुमति मिलने पर, उनके पूरे आशीर्वाद से दीक्षा लेनी! माता-पिता उपकारी हैं, वंदनीय हैं, जीवनदाता हैं इसलिए हर मुमुक्षु भाई-बहनों का कर्तव्य यह है कि वे अपने माता-पिता का विनयपूर्वक आदर-सत्कार करें, उन्हें Respect करें, उनके उपकारों को भूले नहीं, उन्हें मान सम्मान दे. 

पूरी मर्यादा के साथ प्रेम से उनके साथ बर्ताव करें और इसलिए अपने माता-पिता से दीक्षा की सहर्ष अनुमति लेने का भरपूर प्रयास करना ही चाहिए. इस Process में 2-3 साल का समय भी लग सकता है, लेकिन मुमुक्षु को प्रयास करते रहना चाहिए और माता-पिता की सहमती के साथ, आशीर्वाद के साथ दीक्षा लेनी चाहिए. यही उचित मार्ग है और हर मुमुक्षु का कर्त्तव्य भी. 

संयम जीवन की सफलता के लिए माता-पिता का आशीर्वाद होना अत्यंत आवश्यक है. एक बात सभी मुमुक्षुओं को ख़ास समझनी होगी कि मुमुक्षु को वैराग्य हुआ है, माता-पिता को वैराग्य नहीं हुआ है और इसलिए अत्यधिक ममता के कारण Reaction में डांट, फटकार आदि देखने को मिलेंगे ही और इसलिए हर मुमुक्षु को सहन करने की तैयारी भी रखनी ही चाहिए, यदि उपकारी ऐसे माता-पिता की डांट फटकार भी सहन नहीं कर पाएंगे तो साधु जीवन के कष्ट भी सहन नहीं हो पाएंगे.

कई बार कटु वचन भी सुनने पड़ेंगे फिर भी मुमुक्षु का कर्त्तव्य यही बनता है कि पूरे आदर सत्कार के साथ, विनय भाव से माता-पिता की अनुमति लेकर दीक्षा लेनी. उनसे द्वेष नहीं करना है, माता-पिता से ही द्वेष करके राग-द्वेष से मुक्ति वाले रास्ते पर कैसे चल पाएंगे? उनका आशीर्वाद तो अत्यंत आवश्यक है. यहाँ पर माता-पिता का क्या कर्त्तव्य है वह भी हम आगे जानेंगे.

लेकिन अब यहाँ पर पूज्य गुरु भगवंतों का रोल देखें तो उन्हें भी देखना ही है कि जिसे दीक्षा दे रहे हैं वह आत्मा दीक्षा के लायक़ है या नहीं, तो पंचवस्तुक ग्रन्थ में 6 महीनों तक उसके वैराग्य की परीक्षा लेने की बात सामान्य रूप से आती है, लेकिन फिर भी वर्तमान में Normally 1-2-3 वर्ष तक मुमुक्षु की Training चलती है. 

यहाँ पर मुमुक्षु यदि कहें कि भाई 2 या 3 वर्ष के ऊपर हो जाने पर भी, आदर विनय करने के बावजूद, सब कोशिशें की फिर भी यदि Permission ना मिले या साधु-साध्वीजी के पास ही जाने ना दें तो क्या करना? इस Situation को हम थोड़ी देर के बाद जानते हैं.

एक ही बेटा हो तो?

आज के समय में कई परिवारों में एक ही बेटा होता है तो क्या करना? अगर घर में एक ही बेटा हो और उसे दीक्षा लेने के भाव हो तो पहले उसे अपने माता-पिता के भविष्य के बारे में सोचकर, उनके भविष्य को Secure करने की व्यवस्था करने के बाद, ख़ुशी ख़ुशी उनसे अनुमति लेकर ही दीक्षा के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए! 

अब यदि बेटे को दीक्षा लेनी हो, आर्थिक परिस्थिति अच्छी नहीं हो, माता-पिता Dependent हो, लेकिन धर्म को पाए हुए माता पिता फिर भी खुमारी से अनुमति दे कि बेटा आप संयम के मार्ग पर आगे बढ़ो हम हमारा देख लेंगे, आप चिंता मत करो, ऐसी Situation में भी मुमुक्षु बेटे का फ़र्ज़ बनता है कि भले माता पिता अनुमति दे रहे हैं फिर भी कम से कम उनके लिए आर्थिक व्यवस्था करके ही निकले. 

ऐसे देखने जाए तो ज़िम्मेदारी संघ की बनती है, इतिहास में श्री कृष्ण महाराजा की बात आती है, उन्होंने ऐसी घोषणा की थी कि जिसे भी दीक्षा लेनी हो वो ले सकते हैं, उनके परिवार की ज़िम्मेदारी कृष्ण महाराजा देखेंगे. इसी तरह आज के समय में ज़िम्मेदारी संघ की बनती है, धनवान श्रावक श्रविकाओं की बनती है, क्योंकि सिर्फ़ आर्थिक कारण से यदि किसी की दीक्षा अटकती है तो यह बिलकुल भी उचित नहीं है, फिर भी बेटे का कर्तव्य बनता है कि वह पूरी व्यवस्था करके ही निकले. 

पूज्य हरिभद्र सूरीजी ने पंचसूत्र में एक Situation बताई है! श्रवण कुमार जैसा दृष्टांत है. एक पुत्र अपने माता-पिता को साथ लेकर जंगल में से पसार हो रहा था. जंगल काफी बड़ा था, काफी समय बीत गया. इसी दौरान जो भोजन सामग्री उन्होंने अपने साथ ली थी वह भी ख़त्म होने को आई थी, ऐसे में बीच जंगल में माता-पिता की तबियत बिगड़ गई. वे रोगग्रसित हो गए. 

अब उस पुत्र को यह पता चला कि थोड़ी दूरी पर एक गाँव है जहाँ वैद्य की व्यवस्था हो जाएगी लेकिन Situation ऐसी है कि वो माता-पिता को वहां लेकर जा नहीं पाएगा, उसे अपने माता-पिता को छोड़कर उस गाँव में जाकर वैद्य को लाना होगा, इसलिए वह अपने माता-पिता से अनुमति मांगता है. अब माता-पिता बेटे को अनुमति नहीं देते हैं, कि बेटा हम तो इस रोग में पीड़ा में हैं और तुम हमें छोड़कर जाने की बात कर रहे हो. 

वह पुत्र समझाने का प्रयास करता है फिर भी माता-पिता नहीं मानते, अब ऐसी Condition में उस पुत्र को क्या करना चाहिए? अगर नहीं जाए तो भोजन सामग्री ख़त्म होने के बाद तीनों ही मर जाएंगे और जाकर वैद्य को लेकर आए तो माता-पिता भी बचेंगे और वह पुत्र भी. ऐसी परिस्थिति में माता-पिता का त्याग करना भी अत्याग है और अत्याग करना भी त्याग है, अर्थात् अगर माता-पिता को छोड़कर नहीं जाए तो आखिर मृत्यु आएगी तो माता-पिता को हमेशा के लिए छोड़ना ही पड़ेगा, और माता-पिता को छोड़कर जाए तो भले अभी Temporarily छोड़ना पड़ रहा है लेकिन फिर भी वापस आकर माता-पिता का स्वास्थ्य अच्छा कर सकते है. 

ग्रन्थकार श्री ने फरमाया है कि यह जंगल संसार है, वह रोग और कुछ नहीं बल्कि राग है, Attachment है, और वह वैद्य गुरु भगवंत है, उन्होंने यह बताया है कि संतान का कर्त्तव्य तो यह है कि खुद तो दीक्षा लेनी ही है लेकिन  बाद में माता-पिता को भी राग-द्वेष रुपी रोग से मुक्त करने के लिए दीक्षा के मार्ग पर ले आना है. तो सभी मुमुक्षु अपना रोल समझ गए होंगे. आज भी ऐसे अनेक संतान है जिन्होंने माता-पिता की सम्मति ना होने पर भी दीक्षा ली और बाद में माता-पिता को भी दीक्षित किए.

अनुमति ना मिले तो?

अब ऐसी कोई Situation ना हो, परिवार में और भी संतान हो या मान लो लड़की हो, जिसे वैसे भी वह घर छोड़ना ही है और वह मुमुक्षु का वैराग्य सच्चा हो, Training भी हो गई हो, गुरु दीक्षा के लिए Ready है, फिर भी माता पिता अनुमति ना दे तो? 

सभी माता-पिता सावधान! 

लगभग सभी लोगों ने 3 Idiots Movie देखी होगी. उस Movie में बताई गई बातों से लगभग सब सहमत थे. उस Movie के एक Scene में Farhan नामक किरदार ने अपने पिता से कहा था कि ‘मैं Engineer भी बनूँगा तो बहुत बुरा Engineer बनूँगा’ क्योंकि उसका Passion Photography था. 

यह Movie Hit हुई थी और लोगों ने यह स्वीकार भी किया था कि बच्चों को जो Field में Interest हो उसमें आगे बढ़ाने में कोई बुराई नहीं है. उल्टा जो माता-पिता बच्चों पर थोपते हैं कि “तुझे Doctor ही बनना पड़ेगा या फिर Engineer ही बनना पड़ेगा क्योंकि शर्मा जी का बेटा Doctor या Engineer बन रहा है” तो कोई भी कहेगा कि भाई ये बहुत ही ग़लत बात है. अब यही बात हम दीक्षा के विषय में देखते हैं. 

माता पिता के लिए एक प्रश्न खड़ा होता है? वो अपनी संतान को खुश देखना चाहते हैं या दुखी? एक संतान दीक्षा लेना चाहती है, उसका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न है, माता-पिता का ध्यान रखने के लिए Siblings हैं, दीक्षा की अनुमति नहीं देने जैसा कोई Major कारण नहीं है. 

फिर भी अगर उस संतान के माता-पिता मात्र राग के-मोह के कारण या अपने अहंकार के कारण दीक्षा की अनुमति नहीं देते हैं तो उस मुमुक्षु आत्मा को First Priority पर तो 2nd Point में बताए गए अनुसार 2-3 साल तक Wait करके अपने वैराग्य को Prove करके दीक्षा के लिए अनुमति लेने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, कोई कष्ट आए तो सहन शक्ति की तैयारी भी रखनी चाहिए, 

माता-पिता का अविनय तो बिलकुल भी नहीं करना है, उन्हें धिक्कारना नहीं है, उन्हें कटु वचन नहीं कहने हैं, उनके प्रति बहुमान भाव कम नहीं करना है, उनका तिरस्कार या उनकी निंदा तो नहीं ही करनी है, उन्हें प्रेम से धर्म की बात समझानी है, याद रखिए मुमुक्षु को धर्म क्या है वह समझ में आया है, माता-पिता को शायद समझ में नहीं आया होगा, इसलिए प्रेम आदर भाव से सब कुछ समझाना है, पैरों में पड़कर भी प्रार्थना करनी है, 

उन्हें Convince करना है, लेकिन अगर सब कुछ करने के बाद भी माता-पिता नहीं मानते हैं और यह बात एकदम Clear दिखती है कि माता-पिता आज क्या, कल क्या, 3-4 साल बाद भी अनुमति देंगे ही नहीं, कुछ भी हो जाए फिर भी अनुमति नहीं ही देंगे, गुरु भगवंत के पास कभी भेजेंगे ही नहीं, तब ऐसी Situation में गीतार्थ गुरु भगवंत के मार्गदर्शन से वह प्रबल वैरागी आत्मा को अनेकांतवाद में बताएं गए अपवाद मार्ग का सेवन करते हुए माता-पिता की अनुमति के बिना भी दीक्षा के मार्ग में आगे बढ़ाना कोई ग़लत बात नहीं है. 

क्योंकि यहाँ पर उस तीव्र वैरागी आत्मा की दीक्षा रोकने का कोई बड़ा कारण नज़र नहीं आ रहा है. कच्चे पानी में साधु भगवंतों को पैर नहीं रखना चाहिए लेकिन नदी बीच में आने पर, यदि कोई चारा ही ना हो और उस पार विहार करके जाना ही हो तो विहार अवश्य करेंगे, अपवाद मार्ग से नदी में पैर रखकर जाना पड़ेगा. यह हुआ अपवाद मार्ग का सेवन. 

हम फिर से कह देते हैं कि यह Rare Cases में होता है, Normally सच्चे जैन माता-पिता कुछ समय तक अनुमति नहीं देते और बात टालते हैं कि एक दो साल बाद देखेंगे, वो देना नहीं चाहते ऐसा नहीं है लेकिन उन्हें चिंता होती है कि यह दीक्षा पाल पाएगा क्या ? और भी अलग परिस्थितियां हो सकती है और जब अपने बेटे या बेटी में वैराग्य की झलक देखते हैं तो अनुमति देकर ख़ुशी-ख़ुशी दीक्षा दे दी जाती है. 

जिस तरह सगाई के बाद माता-पिता को Urgency रहती है कि जितनी जल्दी शादी हो जाए उतना अच्छा, उसी तरह तीव्र वैराग्य के बाद या दीक्षा की Training के बाद, जितनी जल्दी दीक्षा हो जाए उतना अच्छा. सगाई में तो माता-पिता की चले तो 7 दिन में शादी करवा दे. उसी तरह तीव्र वैरागी जीव को आत्म कल्याण के मार्ग पर भेजना भी माता-पिता का कर्त्तव्य है.

माता – पिता भगवान नहीं!

कई लोगों को ऐसा लगेगा कि अच्छा बच्चा अब माता-पिता से भी इतना बड़ा हो गया जो बिना अनुमति लिए दीक्षा ले सकता है? जी नहीं, अनुमति के बिना दीक्षा नहीं लेनी है लेकिन दीक्षा की अनुमति क्यों नहीं देनी है? कभी-कभी माता-पिता को लगता है कि वे स्वयं भगवान है, माता-पिता ख़ुद एक माता-पिता होने से पहले प्रभु के शासन के श्रावक-श्राविका है, उन्हें यह बात स्वीकारनी चाहिए कि वे माता-पिता है, बच्चे पर उनका अधिकार ज़रूर है लेकिन वे स्वयं गुरु या भगवान नहीं है. 

माता-पिता से ऊपर गुरु भगवंत है और उनसे ऊपर भगवान. माता-पिता का कर्त्तव्य है कि अपनी संतान को सद्गुरु भगवंत के साथ जोड़ना ताकि उसका भविष्य सुरक्षित रह सके, फिर वो दीक्षा ले या ना ले वो अलग बात है लेकिन फिर भी सद्गुरु भगवंत का सत्संग करवाना वह माता-पिता का कर्त्तव्य है. धर्म से दूर करनेवाले माता-पिता अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करते.

ख़ुद को भगवान मानना यह बहुत बड़ा मिथ्यात्व हो जाएगा. No Doubt यदि मुमुक्षु में वैराग्य नहीं है, दीक्षा देने में शासन का कोई बड़ा हित नहीं है अपितु नुकसान है, एकदम Clear लगता है कि दीक्षा पाल भी नहीं पाएगा तो फिर दीक्षा देना उचित नहीं है, लेकिन यदि वैराग्य प्रबल है, वह आत्मा संयम के लिए बनी है Clear समझ में आ रहा है और संयम की Training में सद्गुरु भगवंत द्वारा Pass है और लग रहा है कि दीक्षा जीवन अच्छे से पाल पाएगा फिर भी माता-पिता सिर्फ़ राग के कारण, मोह के कारण अथवा अहंकार के कारण दीक्षा की अनुमति ना दे तो वह भी तो उचित नहीं है. 

यदि मुमुक्षु में कोई कमी लगे तो माता-पिता सद्गुरु भगवंत से बातचीत कर उस विषय में समाधान प्राप्त कर सकते हैं और वह दीक्षा के लिए लायक़ है या नहीं वह भी गुरु भगवंत तय करेंगे, क्योंकि शास्त्र उन्होंने पढ़े हैं, फिर भी यदि कुछ Additional Doubts हो उन गुरु भगवंत की बात समझ नहीं आती हो, तो गीतार्थ गुरु भगवंत के पास जाकर भी समाधान प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन इन सबसे ऊपर ख़ुद को बिलकुल नहीं समझना है. यह अविवेक हो जाएगा. 

साथ ही कोई माता-पिता या परिवार जिन्होंने धर्म को समझा ही ना हो, साधु भगवंतों के प्रति मन में द्वेष लेकर बैठे हो और इस कारण से ऐसे धर्म द्वेषी माता-पिता यदि मुमुक्षु को हद से ज़्यादा कष्ट दे, जैसे क्रूरता से मारपीट करना, मंदिर तक जाने नहीं दे, धर्म बिलकुल भी करने ना दे, गालीगलौच करना, अर्थात् इतना हद से ज़्यादा त्रास अथवा पीड़ा दे कि वह मुमुक्षु का जीना हराम कर दे, और फिर ऐसी Situation में यदि वह मुमुक्षु अपने जीवन की रक्षा के लिए क़ानून की शरण ले तो उसमें कोई बुराई नहीं है.

माता – पिता का कर्तव्य

बात करें शास्त्रों की तो क्या आप जानना चाहते हैं माता पिता के लिए शास्त्रों में क्या कहा गया है? 
सभी माता-पिता सावधान. 

शास्त्रों की बात आपको बतायें तो पूज्य मुनिसुंदर सूरीश्वरजी महाराजा द्वारा अध्यात्म कल्पद्रुम का शास्त्र वचन देखिए

‘न तत्समो अरि क्षिपते भवाब्धौ
यो धर्म विघ्नादि कृतेश्च जीवम्’

यानी जो माता-पिता धर्म करने में रूकावट पैदा करे, अंतराय करे उनसे बड़ा शत्रु पूरे विश्व में कोई नहीं है, जो अपने बेटे बेटियों को सुविधा की तो भरमार दे रहे हैं लेकिन संस्कारों या धर्म से नहीं जोड़ रहे हैं, वे तो उपकारी नहीं बल्कि शत्रु हुए क्योंकि वे संतानों के लिए दुर्गति का द्वार खोल रहे हैं. ऐसे कुगुरू को भी शास्त्रों ने आड़े हाथ लिया है जो शिष्यों की दुर्गति करवाते हैं. 

माता-पिता ने जन्म दिया लेकिन पाप के खड्डे में धक्का मारे तो वे उपकारी नहीं बल्कि अपकारी कहे जाएंगे, जिनशासन में ऐसा कोई एकांत नहीं है कि माता-पिता उपकारी ही है, जी नहीं, यदि माता-पिता अपनी संतान को धर्म से दूर रख रहे हैं या कर रहे हैं तो वे महापापी है, महाशत्रु हुए. बुरे मार्ग पर जाने से रोकने वाले अच्छे होते हैं, और अच्छे मार्ग पर जाने से रोकने वाले बुरे होते हैं. 

यदि कोई बाप अपनी बेटी से छेड़खानी करे, यदि कोई अपनी संतान को शराब पिलाए तो समाज उसको स्वीकारेगा क्या? नहीं ना? क्यों? क्योंकि हम कहेंगे आपने बेटी को जन्म दिया है लेकिन आप उसके मालिक नहीं है कि आप उसके साथ कुछ भी करेंगे. Right?

एक माँ को पता चले कि गर्भ में बेटी है और इस कारण से वो गर्भपात करवा दे तो समाज उसको स्वीकारेगा क्या? वो क्रूर माँ तो कहेगी My Body, My Right, My Choice. लेकिन फिर भी जीवदय प्रेमी लोग बिलकुल भी स्वीकार नहीं करेंगे कि उस जीव का क्या कसूर था. Right?इसी तरह कर्मसत्ता ने यदि संतान को एक माता-पिता के घर में जन्म दिया है, तो माता-पिता का दायित्व बन जाता है कि उसे सही मार्ग दिखाए और गलत रास्ते से रोके. 

विडंबना यह है कि आज कई घरों में देखा जाता है संतान शराब पीए, सिगरेट फूंके, सट्टा खेले, व्यभिचार करें तो माता-पिता और समाज की उनको रोकने की ताकत नहीं होती, समाज तो ऐसे लोगों से अब कांपता है और कोई भव्य आत्मा दीक्षा ले अथवा धर्म करें, रात्रिभोजन का भी त्याग करें तो समाज के एक बहुत बड़े अज्ञानी वर्ग के कटाक्ष शुरू हो जाते हैं कि ओह हो हो हो रात को नहीं खाता दीक्षा लेनी है क्या? 

धर्म के नाम से डराते हैं और कटाक्ष करते हैं, मजाक उड़ाते हैं वो अलग. कई घरों में तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि माता-पिता की अनुमति होती है लेकिन पूजा, सामायिक करने वाले दादा दादी की अनुमति नहीं होने के कारण, अथवा घर के अन्य अज्ञानी सदस्यों के कारण दीक्षा के लिए अथवा धार्मिक पढ़ाई के लिए भी अनुमति नहीं दी जाती, Emotional Blackmail किया जाता है. 

ऐसे में माता-पिता को Strongly अपनी संतान को Support करना चाहिए, आज की एक दुखभरी वास्तविकता यह है कि आज के जमाने में सिर्फ धर्म करने वाले को ही रोकने का भरपूर प्रयास किया जाता है पाप करने वाले तो बिंदास कर ही लेते हैं. किसी जीव को उसके लक्ष्य से दूर करने में जो अंतराय पैदा करते हैं. मत भूलिए Attachment कितना भी क्यों ना हो मृत्यु एक दिन अलग करने ही वाली है, अनावश्यक रुकावट करके, भारी कर्मों का बंधन क्यों करना? यह कर्म जब भोगने पड़ेंगे तो नानी नहीं परनानी यादी आएगी.

माता – पिता सावधान!

एक उदाहरण के साथ समझते हैं! मान लीजिए कि एक Factory में किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा और एक बड़ी मशीन उसके हाथ में दे दी कि यह मशीन आपको संभालनी है, वह कर्मचारी मशीन ख़राब कर दे या कह दे कि मैं इसका मालिक हूँ तो क्या Actual मालिक उसे माफ़ करेगा? बिलकुल नहीं. बस तो कुदरत ने संतान दी है तो उस संतान के प्रति जो ड्यूटी है वह माता-पिता को निभानी है. 

बाकी यदि माता-पिता सिर्फ पकड़कर रखे कि मेरा बेटा है या मेरी बेटी है अनुमति नहीं देंगे, तो यह भी नहीं भूलना है कि जब मृत्यु आएगी तब माता-पिता को बेटे बेटी से दूर करने ही वाली है, तब मृत्यु अनुमति नहीं लेगी कि आप अनुमति दो तो हम हमारा काम करें? तब जितना अधिक राग होगा, Attachment होगा उतनी ज्यादा तकलीफ होगी.

यह कई बार देखा जा चुका है कि माता पिता ख़ुद ही पहले बच्चों को धर्म से दूर करते हैं, और फिर जब बच्चा अधर्म के मार्ग पर जाता है तब माता-पिता उसी बच्चे को गुरु भगवंत के पास लेकर आते हैं, उसकी शिकायत भी करते हैं और कहते हैं साहेबजी आप कुछ कीजिए ना, वासक्षेप कीजिए ना, आशीर्वाद दीजिए ना, इसको व्यसनों में से निकालिए ना, आपके पास रखिए ना दो दिन etc etc.. 

अब ऐसे केस में गलती किसकी है आप खुद सोचिए?

अब आपको Frankly बताएँ तो ऐसे बिना अनुमति के दीक्षा वाले Cases बहुत Rare होते हैं, शायद एक वर्ष में 5 भी नहीं, ऐसे में कुछ अधर्मी लोग गुरु भगवंत के ख़िलाफ़ अनापशनाप लिख देते हैं, अथवा उनके Character को नुक़सान पहुँचे ऐसे कई Fake Messages घुमाने का प्रयास करते हैं, दोनों साइड की स्टोरी हमें पता नहीं होती, ना ही हम जानने का प्रयास करते हैं. 

ना ही हमारे WhatsApp पर ऐसे अनावश्यक चर्चा करने से कुछ होने वाला है तो कम से कम लोगों को ऐसे अफवाह वाले Fake Messages से बचना चाहिए और बिना कुछ जाने आगे Messages Forward भी नहीं करने चाहिए. एक बात हमेशा याद रखियेगा कि झूठ से भी कई गुना ज्यादा खतरनाक अधुरा सच होता है! 

Never Judge Without Knowing The Whole Story! 

Fake Messages से सावधान!

श्री ठाणांग सूत्र, चौथा अध्ययन 355वाँ सूत्र, जिसमे लिखा है कि चार प्रकार से दीक्षा होती है, जिसमें चौथा प्रकार है विहग प्रव्रज्या यानी पंछी की तरह बिना परिवार अकेले ही दुसरे देश में जाकर दीक्षा ले लेनी यानी शास्त्रों की दृष्टी में बिना परिवार की अनुमति भी दीक्षा हो सकती है. जैन धर्म शास्त्रों से चलेगा WhatsApp से नहीं चलेगा. 

गुरु भगवंत चाहे तो शास्त्रों के वचन दिखाकर यह सब कर सकते हैं लेकिन फिर भी वे सामाजिक व्यवस्था, द्रव्य, काल, क्षेत्र, भाव, व्यक्ति की पात्रता, योग्यता, शासन हित आदि सब कुछ देखकर Training आदि देकर ही लगभग दीक्षा देते हैं. जिनवाणी के नाम का Bill फाड़नेवालों ने कभी जिनवाणी पढ़ी होती या सुनी होती तो कम से कम जिनवाणी को तो बदनाम नहीं ही करते. 

जिसने आगम पढ़े नहीं, सुने नहीं वह व्यक्ति यदि WhatsApp में ऐसी बात घुमा दे कि “आगमों में XYZ बात लिखी ही नहीं है” इससे हास्यास्पद बात क्या हो सकती है, दुख तो तब होता है जब नादान लोग धर्म से जुड़े ऐसे श्रद्धा वाले लोगऐसे बेतुके Fake Messages को सही मानकर शेयर भी कर देते हैं Verify भी नहीं करते. 

अरे पूछ तो लो पहले कि भाई यह मेसेज आपने जो बनाया है वो अपनी कल्पना से बनाया है या कोई गुरु भगवंत ने आपको यह बात सच में कही है. जितना पाप Fake Messages लिखने वाले को लगता है, शायद उससे ज़्यादा पाप Fake Messages फैलाने वाले को लगेगा. क्योंकि फैलाने से नुकसान ज्यादा हो रहा है धर्म की कितनी भयंकर निंदा होगी क्या हमने कभी सोचा है? 

कई लोगों की आस्था को तोड़ने का काम ये Messages करते हैं. अभी तो Forward करने में सिर्फ़ एक Second लगता है, लेकिन जिस दिन ये किए गये कुकर्मों की सज़ा मिलेगी तब नानी याद आ जाएगी.

अधिक जानकारी इस विषय में जानना चाहते हैं तो गीतार्थ अथवा ज्ञानी गुरु भगवंत के पास जाकर जान सकते हैं, हम सिर्फ़ इतना कह देते हैं कि यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील मुद्दा है, कृपया करके ऐसे प्रश्नों को WhatsApp में चर्चा का विषय ना बनाए, विवेकी व्यक्ति, सच्चा जैनी कभी भी ऐसे विषय पर WhatsApp पर चर्चा नहीं करेगा, करेगा तो भी किसी ज्ञानी के पास कुछ जानने की जिज्ञासा से करेगा, पीठ पीछे निंदा करने वाला जैन नहीं हो सकता.

क्योंकि Groups में ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों के साथ फालतू के Discussions करके कुछ हासिल नहीं होनेवाला है, ना ही ऐसे प्रश्नों का उत्तर मिलेगा, उल्टा ग़लत मान्यता दिमाग़ में जाएगी वो अलग और निंदा के कारण भयानक कर्मों का बंधन होगा वो अलग. समझदारों को इशारा काफ़ी है बाक़ी नासमझ लोगों के लिए सिर्फ़ प्रार्थना कर सकते हैं कि उन्हें प्रभु सद्बुद्धि दे.

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